परम्परा की परिभाषा एवं महत्व की विवेचना कीजिए।

परम्परा की परिभाषा – श्री जिन्सबर्ग (Ginsberg ) के शब्दों में, “परम्परा का अर्थ उन सभी विचारों आदतों और प्रथाओं का योग है, जो व्यक्तियों के एक समुदाय का होता है, और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है।” श्री जेम्स ड्रीवर ने लिखा है, “परम्परा-कानून, प्रथा, कहानी तथा किंवदन्ती का वह

संग्रह है, जो मौलिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है।” उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि परम्परा सामाजिक विरासत का वह अभौतिक अंग है जो हमारे व्यवहार के स्वीकृत तरीकों (accepted ways of behaviour) का द्योतक है, और जिसकी निरन्तरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरण की प्रक्रिया द्वारा बनी रहती है।

परम्पराओं का समाजशास्त्रीय महत्व

परम्पराओं का महत्व निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है-

(1) परम्पराओं का प्रत्येक समाज में अधिक महत्व होता है। परम्परा, जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं, हमारे व्यवहार के तरीकों की द्योतक है, अर्थात् परम्परा के आधार पर हम व्यवहार के ढंगों का पता चलाते हैं। परम्पराएं यह निर्धारित करती हैं कि हमें किस समय, किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। व्यवहार के ये तैयार प्रतिमान (readymade patterns of behaviour) हमें बचपन से ही, समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से, अन्य लोगों से, आप से आप प्राप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि सामाजिक जीवन से सम्बन्धित अनेक परिस्थितियों में हमें किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए, यह हमें सोचना नहीं पड़ता और परम्परा की सहायता से सारा काम आप से आप चलता रहता है। परम्पराओं के कारण ही अनेक सामाजिक परिस्थितियां हमें नई नहीं लगतीं। अतः स्पष्ट है कि परम्परा सामाजिक व्यवहार को सरल बनाती है और उसे एक निश्चित दिशा देती है।

(2) परम्परा सामाजिक जीवन में व वैयक्तिक व्यवहार में एकरूपता उत्पन्न करती है। परम्परा हस्तान्तरित होती रहती है, पर, यह नहीं होता है कि एक व्यक्ति को एक परम्परा के रूप में मिले तो दूसरे को वही किसी दूसरे रूप में परम्परा का रूप सबके लिए समान होता है, और जब परम्परा के अनुसार समाज के सदस्य समान रूप में व्यवहार करते हैं तो सामाजिक जीवन व व्यवहार में एकरूपता उत्पन्न हो जाती है।

(3) परम्परा व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करती है। परम्परा जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं, कुछ निश्चित व्यवहार प्रतिमानों को प्रस्तुत करती है और समाज के सदस्यों से यह आग्रह करती है कि वे उन्हीं प्रतिमानों का अनुसरण करें। परम्परा के पीछे अनेक पीढ़ियों का अनुभव तथा सामाजिक अभिमति (social sanction) होती है, और इसीलिए इसमें व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करने की शक्ति होती है। सामाजिक निन्दा के डर से ही व्यक्ति परम्परा को तोड़ने का साहस सामान्यतः नहीं करते। ‘परम्परा’ किसी व्यक्ति-विशेष की नहीं होती, वह तो ‘सब’ की होती है। यह ‘सब’ ‘प्रत्येक’ पर अपना नियन्त्रणात्मक प्रभाव डालता है, और उसके व्यवहार को निर्देशित व संचालित करता है।

(4) परम्परा व्यक्ति में सुरक्षा की भावना पनपाती है। परम्परा अनुभव सिद्ध व्यवहारों का संग्रह होती है। हमारे पूर्वज, बहुत प्रयास के बाद, विभिन्न परिस्थितियों में जिन व्यवहारों या क्रियाओं के बंगों को सफल पाते हैं, उचित समझते हैं, वही हमें परम्परा के रूप में प्राप्त होते हैं। इस रूप में परम्परा पूर्वजों द्वारा व्यावहारिक ढंग से परीक्षित (tested) व्यवहार के सफल व उपयोगी तरीकों का ही दूसरा नाम है। इसीलिए इन तरीकों के सम्बन्ध में हमारे मन में दुविधा नहीं होती, और हम अपने अन्दर विभिन्न परिस्थितियों में एक सुरक्षा की भावना को स्वतः ही विकसित कर लेते हैं। कारण यह है कि हमें पहले से ही यह पता होता है कि किस परिस्थिति में हमें किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए।

बहुपति विवाह जनजातियों के दो उदाहरण दीजिए।

(5) श्री जिन्सबर्ग (Ginsberg) ने लिखा है कि “परम्परा राष्ट्रीयता की भावना के विकास में राष्ट्रीय प्रारूपों को डालने में महत्वपूर्ण योगदान करती है।” जिस समाज का स्वयं अपना कोई परम्परागत आधार नहीं होता है तथा जिसे केवल अन्य समाजों की प्रथाओं, विश्वासों आदि के सहारे रहना पड़ता है, उस समाज के सदस्यों में आत्मसम्मान, देश गौरव व स्वाभिमान आदि के भावों का अभाव ही रहता है, क्योंकि उसे अपने एक पृथक तथा स्वतन्त्र अस्तित्व की चेतना ही नहीं हो पाती। इसके विपरीत, जिस समाज की परम्पराएं विस्तृत व गौरवमय होती हैं. उसमें राष्ट्रीय भावना भी उच्चकोटि की ही पाई जाती है।

वैयक्तिक व सामाजिक जीवन एवं व्यवहार में परम्पराओं का वास्तविक महत्व यही है।

    Leave a Comment

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    Scroll to Top