मुहम्मद बिन तुगलक की दक्षिण नीति की विवेचना कीजिए।

मुहम्मद बिन तुगलक की दक्षिण नीति – गयासुद्दीन तुगलक के शासनकाल में ही जूना खां (मुहम्मद तुगलक) ने दक्षिण भारतीय राज्य वारंगल पर आक्रमण किया था और उस पर अपना अधिकार जमा लिया था। इस प्रकार गयासुद्दीन तुगलक के काल में वारंगल की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी और वह दिल्ली सल्तनत का एक अभिन्न अंग बन गया। इतना होते। हुए भी उस प्रदेश पर दिल्ली सल्तनत का अधिकार अस्थिर तथा डावांडोल बना रहा।

मुहम्मद बिन तुगलक की विस्तारवादी नीति असीमित थी दक्षिण भारत का इतना अधिक भाग सल्तनत के आधिपत्य में आ गया कि उसमें और अधिक विस्तार करने की इच्छा स्वाभाविक रूप से जाग उठी। मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण भारत के द्वारसमुह, मावर तथा अनैगोडी राज्यों के विरुद्ध अभियान किए और इस प्रकार दक्षिण का पूरा पश्चिमी तट उसके अधिकार में आ गया। परन्तु दक्षिणी जीते क्षणिक और अस्थायी सिद्ध हुई। जल्द ही इस क्षेत्र में न सुल्तान के विरुद्ध भयंकर विद्रोह हुए और अंत में दक्षिण के सम्पूर्ण क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र हो गये।

सरहिंदी के अनुसार मुहम्मद तुगलक के शासनकाल का प्रथम विद्रोह सुल्तान के चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शप ने किया जो दक्षिण में सागर का हाकिम था। इब्नबतूता के अनुसार गयासुद्दीन की मृत्यु के बाद उसने मुहम्मद तुगलक के प्रति स्वामि-भक्ति की शपथ लेने से इनकार कर दिया। किन्तु इसामी का कहना है कि मुहम्मद तुगलक ने उसे गुर्शप की उपाधि दी और उसे सागर भेजा। जहां उसने बड़ा यश प्राप्त किया। गयासुद्दीन के सय वह समाना का शासक और ‘आरिज-ए-मुमालिक’ पद पर रह चुका था। गुर्शप के विद्रोह का कोई संतोषजनक कारण तत्कालीन लेखकों ने नहीं बताया है। इमामी के अनुसार सुल्तान मुहम्मद के व्यवहार में परिवर्तन आ जाने के कारण विद्रोह किया गया। दक्षिण के अन्य लेखकों के अनुसार दरबार में अमीरों का ईर्ष्यापूर्ण व्यवहार इसका कारण था। संभवतः वह इसलिए भी असंतुष्ट हो गया कि सुल्तान मुहम्मद ने उसे कोई अधिक ऊँचा पद नहीं दिया था।

इसके अतिरिक्त राजधानी से दूर एक सम्पन्न व धन-धान्य से परिपूर्ण सूबे का शासक होना एक महत्त्वाकांक्षी सैनिक के लिए स्वतंत्र होने का प्रलोभन बन सकता था। गुर्शप ने युद्ध की पूरी तैयारी की, बहुत सा धन जमा किया और दक्षिण के शक्तिशाली सामंतों को अपनी ओर मिलाया पराजय की संभावना से उसने अपने परिवार की रक्षा के लिए कंपिली के हिन्दू राजा से मित्रता कर ली। स्वतंत्रता घोषित करके उसने निकटवर्ती सामंतों से भूमि कर वसूल किया। सुल्तान ने सूचना पाते ही गुजरात के सूबेदार ख्वाजा-ए-जहाँ अहमद अय्याज को प्रस्थान के लिए आदेश दिया। गुर्शप ने तुरंत गोदावरी पार की और देवगिरि से पश्चिम की ओर बढ़ा। अय्याज ने देवगिरि पर कब्जा कर लिया। अंत में गुर्शप ने पराजित होकर कंपिली के हिन्दू शासक के यहां शरण ली। कंपनी एक छोटा सा राज्य था जिसमें आधुनिक रायचूर, धारवाड़ बेल्लारी तथा इसके आसपास के क्षेत्र सम्मिलित थे। प्रारम्भ में कंपिली के राजा देवगिरि के यादवों के अधीन उनके मित्र थे। किन्तु देवगिरि पर दिल्ली सुल्तानों के अधिकार के बाद कंपिली के शासक दिल्ली सुल्तानों के राजा परस्पर संगठित होने की अपेक्षा कंपिली पर आक्रमण करते रहे। फिर भी यहां के शासकों ने अपनी राज्य सत्ता का अत्यधिक विस्तार किया।

सुल्तान मोहम्मद ने कंपली पर आक्रमण करने का निश्चय किया और इसके विरुद्ध तीन बार आक्रमण किए। प्रथम आक्रमण में मुस्लिम सेना को पराजित होकर भागना पड़ा और कंपिली की सेना को अत्यधिक लूट का माल प्राप्त हुआ। सुल्तान की सैनिक पराजय से उसके गौरव को क्षति पहुंची परन्तु हिन्दू जनता का यह भयं समाप्त हो गया कि मुस्लिम सेना अजेय है। यह विदित हो गया कि दक्षिण के हिन्दू काफी शक्तिशाली है जिनको दबाना इतना सरल नहीं है। कंपिली के राजा ने भी राज्य की रक्षा की पूर्ण तैयारियों की और हुसदुर्ग तथा कूमर के किलों को पूरी तरह युद्ध सामग्री से भर दिया। किन्तु इस बार भी मुस्लिम् सेना कुतुबुल्मुल्क के साथ जान बचाकर भाग गयी।

इसके बाद सुल्तान मुहम्मद ने अपने विश्वसनीय मित्र मलिकजादा, ख्वाजा-ए-जहान की अध्यक्षता में विशाल सेना कंपिली राज्य के विरूद्ध भेजी। कंपिली के राजा ने एक महीने तक शत्रु का डटकर सामना किया। परन्तु जब बचने की कोई स्थिति न रही तो गुर्शप को द्वारसमुद्र के राजा बल्लाल तृतीय की रक्षा में परिवार सहित भिजवा दिया और शत्रु से अंतिम युद्ध करने का संकल्प किया गया। उसने जौहर सम्पन्न किया और अपनी समस्त सम्पत्ति, स्त्रियां और पुत्रियां अग्नि में भस्म कर दीं और स्वयं शस्त्र धारण करके शत्रु पर टूट पड़ा। कंपिली नरेश ने भयंकर युद्ध के बाद रणक्षेत्र में ही वीरगति प्राप्त की। मुस्लिम सेना का किले पर अधिकार हो गया।

फिरोज तुगलक की करनीति के विषय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

मलिकाया ने (होस) दुर्ग से होयसल राज्य पर आक्रमण किया, क्योंकि उसने गुर्शप को शरण दी थी। बल्लाल ने मलिक के आक्रमण के बाद थोड़े समय में दिल्ली सुल्तान की प्रभुसत्ता से विद्रोह कर वार्षिक राज्य कर भेजना बंद कर दिया और इसी अवधि में कंपिली के राज्य को भी जीतने का विचार किया। उसकी तीव्र इच्छा थी कि होयसल राज्य का भाग जो सुदूर दक्षिण के पांड्य राजाओं के अधिकार में है, वापस ले लिया जाए। इसी उद्देश्य से 1316 ई. में पांड्य राजाओं से युद्ध आरम्भ किया गया। जब वह इस प्रकार आसपास के राजाओं के साथ युद्ध में व्यस्त था। इसी बीच मोहम्मद तुगलक की सेना ने द्वारसमुद्र की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस विपत्ति से और अपनी रक्षा के

सुल्तान ने दक्षिण में देवगिरि को दौलताबाद का नाम देकर राजधानी बना लिया। इसे दक्षिण में एक प्रभावशाली प्रशासन केन्द्र स्थापित करने का प्रयास कहा जा सकता है। प्रो. हबीब के अनुसार “मुहम्मद तुगलक अपने किसी भी समकालीन से अधिक दक्षिण को जानता था।” उसका दक्षिणी प्रयोग एक विशेष सफलता थी। यद्यपि उत्तर को दक्षिण से विभाजित करने वाले अवरोध टूट गए थे तथापि दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक शक्ति दक्षिण में प्रसार सफल सिद्ध नहीं हुआ।

मुहम्मद तुगलक ने साम्राज्य के दक्षिण प्रदेशों की पांच प्रांतों में विभक्त कर दिया। (1) देवगिरि, (2) तेलंगाना (3) माबर, (4) द्वारसमुद्र और (5) कंपिली। दिल्ली साम्राज्य के इन दक्षिण प्रदेशों में विंध्य पर्वत से लगभग मदुरा तक की समस्त भूमि सम्मिलित थी। तेलंगाना को अनेक भागों में विभक्त करके उनके लिए अलग-अलग सूबेदार नियुक्त कर दिए गए। धीरे-धीरे इन हाकिमों ने स्थानीय हिन्दू राजाओं से संपर्क स्थापित करके अपना प्रभाव बढ़ाने की चेष्टा की। दक्षिण की दूरी दिल्ली से इतनी अधिक थी कि सुल्तान इच्छा रखते हुए भी दक्षिणी प्रांतों पर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सकता था इसलिए दक्षिण के प्रांतपति अधिक स्वतंत्र रहे। दक्षिण के हाकिमों एवं स्थानीय हिन्दू शासकों के हृदय में सुल्तान के प्रति स्वाभाविक आज्ञाकारिता की भावना बहुत कम थी। अतः तुर्की सरदार स्वतंत्र शासक होने का स्वप्न देखा करते थे। केवल सुविधा और स्वार्थ का ध्यान रखकर ही वे अपनी राजभक्ति की मात्रा स्थिर करते थे। राजधानी परिवर्तन के पीछे यह भी एक महत्वपूर्ण कारण था। दुर्भाग्यवश सुल्तान अपनी नई राजधानी में उत्तरी भारत के विद्रोहों और अकालों के कारण अधिक समय तक नहीं टिक सका। दक्षिण के हिन्दू राजा अपने वंश तथा धर्म के अभिमान को भूले नहीं थे तथा अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए सदा अवसर की तलाश में रहा करते थे। यही कारण है कि दक्षिण समस्या का समाधान उचित ढंग से नहीं हो पाया और कालांतर में वह स्वतंत्र हो गया।

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