योग के प्रकार
योग के प्रकार – मुख्य रूप से योग का अर्थ आत्मा का परमात्मा से मिलन है। इस दृष्टि से योग आत्मा तथा परमात्मा के एकीकरण के उपाय, विधियों तथा साधन बताता है। सभी प्रकार के योग साधक को अपने-अपने ढंग से चलकर अन्त में समाधि की अवस्था पर पहुँचाने का मार्ग स्पष्ट करते हैं। अतः योग के विद्वानों ने अनेक मार्ग बताए हैं। भारतीय ग्रन्थों के अनुसार योग के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं
(क) कर्म योग (Karma Yoga)-
यह संसार कर्मक्षेत्र माना गया है। इसलिए प्रत्येक प्राणी को यहाँ आकर अनेक प्रकार के कर्म करने पड़ते हैं। जो व्यक्ति शास्त्र के विधान के अनुसार कर्म करता है वह उसका सत्कर्म कहलाता है। गीता में निष्काम कर्म पर विशेष बल दिया गया है। इसीलिए मनुष्य को मनोयोग से कर्म करते रहना चाहिए। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-“कमों को त्यागने से तो निष्कर्मता की प्राप्ति होती है और न भगवत् साक्षात्कार रूप सिद्धि की प्राप्ति हो सकती है।’
कर्म करना मनुष्य का परम कर्त्तव्य है। मनुष्य कर्म करने के लिए तो स्वतन्त्र है किन्तु फल प्राप्ति की उसे पता नहीं है। कर्म करना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है। इसलिए फल की इच्छा त्यागकर व्यक्ति को कर्म करते रहना चाहिए।
विद्वानों ने कर्म की गति को बड़ा गम्भीर माना है। सचमुच हम नहीं जानते हैं कि किस कर्म का क्या परिणाम होगा परन्तु कर्म करने का कुछ न कुछ फल तो अवश्य होता है। इसलिए व्यक्ति को बुद्धि से ऐसे कर्म करने चाहिए जिनका परिणाम सुखदायक हो। फल की आशा न रखकर कर्मेन्द्रियों को कर्म करते रहना चाहिए यही कर्म योग है।
सत्य बात तो यह है कि कर्म योग व्यावहारिक वेदान्त है। कर्म योगी अनेक कठिनाइयों के होने पर भी निराशा को मन में नहीं लाता है। किन्तु कर्म योग का आचरण व्यक्ति को अच्छे मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा देता है। जो व्यक्ति सुख-दुःख में सदैव एक जैसा रहता है यही सच्या कर्मयोगी है।
( 2 ) ज्ञान योग (Gyan Yoga)-
ज्ञान और योग दोनों एक सिक्के के दो पक्ष हैं। ज्ञान के विना योग अर्थहीन है और योग के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। ज्ञान योग के दां रूप है-स्थूल तथा सूक्ष्म स्थूल ज्ञान भौतिक ज्ञान होता है। यह मनुष्य को सांसारिक कार्यों तथा
उलझनों में डाले रखता है। किन्तु सूक्ष्म ज्ञान व्यक्ति को परोपकारी, सहिष्णु, साहसी, दयालु तथा आध्यात्मिक बनाता है। इस दृष्टि से सूक्ष्म ज्ञान ही पूर्ण ज्ञान है। इससे व्यक्ति की आत्मा सबल होती है और बुद्धि में स्थिरता आती है। इस ज्ञान के होने पर व्यक्ति का मन पाप कर्मों की ओर न जाकर पुण्य कर्मों की ओर जाता है।
गीता में ज्ञान के लक्षणों के विषय में कहा गया है, “जो व्यक्ति प्रिय वस्तु से प्रायः प्रसन्न नहीं होता और अप्रिय वस्तु को पाकर खिन्न नहीं होता, जिसकी बुद्धि स्थिर रहती हैं, उसी ज्ञानी को ब्रह्म में स्थित हुआ समझना चाहिए।”
ज्ञान की प्राप्ति होने पर ही ज्ञानी को समझ आती है कि इस भौतिक संसार में मेरा कुछ भी नहीं है, सब कुछ ईश्वर का है। क्षेततरोपनिषद में कहा गया है-“ज्ञान के बिना मुक्ति प्राप्त करने का दूसरा मार्ग नहीं है। ज्ञान एक ऐसा योग है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कंचन के समान चमकीला और खरा बन जाता है। इस संसार में ज्ञान से बढ़कर पवित्र करने वाली दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ज्ञानी व्यक्ति ही ध्यानी होता है तथा भगवान् उसे सर्वप्रिय मानते हैं। इस प्रकार जो व्यक्ति ान योग को समझने में सफल हो जाते हैं ये मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
( 3 ) ध्यान योग (Dhyan Yoga)-
ध्यान योग सभी योगों में श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि इसके बिना कोई भी साधना नहीं हो सकती। ध्यान के बाद ध्यानस्थ व्यक्ति समाधि में चला जाता है। चित्त में आत्मचिन्तन का तत्व चिन्तन ही ध्यान है। गोरक्षा संहिता में ध्यान के विषय में विचार प्रकट किए गए हैं-“जो अपने चित में आत्मचिन्तन करे, उसका यह चित ध्यान कहलाता है। स्मृ धातु से चिन्तन शब्द बना है इसलिए चित में चिन्तन करना ही ध्यान है।”
महर्षि पतंजलि के अनुसार, “तर प्रत्येकतानताध्यानम्।” अर्थात्, “जहाँ चित्त को ठहराया जाए, उसमें वृत्ति का एक जैसा बना रहना ही ध्यान है।” मनुष्य जिस कार्य के लिए अपने चित्त को लगाए और इधर-उधर न भटके, उसी को ध्यान कहते हैं। जब योगी अपने शरीर, प्राण और मन को वश में करके चित्तवृत्तियों को नियंत्रित कर लेता है तब यही स्थिति ध्यान कहलाती है। ध्यान जब सिद्ध हो जाता है तो व्यक्ति समाधि की अवस्था में पहुँच जाता है। ‘
ध्यान तीन प्रकार का बनाया गया है
- स्थूल ध्यान- जब व्यक्ति काल्पनिक किसी मूर्तिमय देवता या चित्र को अपने मन में उतारकार उसका ध्यान करता है तो वह स्थूल ध्यान कहलाता है।
- सूक्ष्म ध्यान- किसी मूर्ति या चित्र के बिना जब व्यक्ति निराकार रूप का ध्यान करता है तो उसे सूक्ष्म ध्यान कहते हैं। सूक्ष्म ध्यान में साधक बिन्दुमय ब्रह्म कुंडलिनी शक्ति का चिन्तन करता है।
- ज्योतिर्मय ध्यान- सुषुम्ना नाड़ी के नीचे कुंडलिनी शक्ति होती है जिसे योग साधना के द्वारा जगाया जाता है। इसको जाग्रत करने के लिए ज्योतिस्वरूप ब्रह्म का ध्यान करना। पड़ता है जिसे ज्योतिर्मय ध्यान कहते हैं ओंकार रूप ईश्वर का ध्यान तथा चिन्तन ही ज्योतिर्मय ध्यान है।
(4) हठ योग (Hatha Yoga)-
मनुष्य के शरीर में पिंडला तथा इड़ा नाड़ियाँ होती हैं। ये गरम तथा ठण्डी नाड़ियाँ मानी जाती हैं। हठ योग साधना में इन दोनों नाड़ियों में संतुलन तथा सामंजस्य उत्पन्न करने का प्रयत्न किया जाता है। जब ये चैतन्य हो जाती हैं तो इनसे सूक्ष्म शक्तियों का विकास होता है। इस प्रकार अन्त में साधक शक्ति जागरण के पश्चात् समाधि की अवस्था में जाकर मोक्ष प्राप्त करता है।
हठ योग का सम्बन्ध शरीर के स्वास्थ्य, अंगों और नाड़ियों की शुद्धि से है जब ये शुद्ध हो जाती है तो अंगों की कार्यप्रणाली में संतुलन स्थापित हो जाता है। हठयोगी सबसे पहले मन और शीरर साधता है। उससे आत्मा के दर्शन होते हैं और आत्म शक्ति चैतन्य होती है।
इस प्रकार हठ योग में शरीर पक्ष की ओर ध्यान दिया गया है। शरीर को स्वस्थ, सबल तथा क्रियाशील बनाने में जो कुछ भी सहायक होता है वही हठयोग की साधना है। प्राणायाम के द्वारा शरीर की नाड़ियों को शुद्ध कर प्राण वायु की मात्रा को बढ़ाते तथा उस पर नियन्त्रण करते हैं। इससे सम्पूर्ण शरीर हृष्ट-पुष्ट बना रहता है। इसलिए मुख्यतः हठ योग साधना में षट् कर्म, आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रा आदि साधनों का प्रयोग करके शरीर को साधा जाता है। योगी का शरीर इस योग्य हो जाता है कि वह अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण कर लेता है।
( 5 ) लय योग (Laya Yoga)- लय का अर्थ है लीन होना या किसी कार्य में रमकर अपने को भूल जाना। लय योग में साधक अपने प्राण तथा मन को अपनी आत्मा में पूर्ण रूप सेरमा देता है। ऐसा करने से योगी स्थूल शरीर स्थूल विचार तथा बंधन से छूट जाता है और उसे सच्चे आत्म-स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार उसकी आत्मा धीरे-धीरे परमात्मा में सीन हो जाती है।
शरीर की क्रियाएँ, मन की चेष्टाएँ, प्राण का आवागमन आदि जब एक लय में हो जाते हैं तो साधक को अपनी आत्मशक्ति को पहचानने में पूरी सहायता मिलती है। यह केवल लय योग के द्वारा सम्भव है। लय योग मानसिक पक्ष को अधिक महत्व देता है।
लय योग में मनुष्य को सूक्ष्म शरीर अर्थात् आत्मा की ध्वनि का आभास होता है। प्रारम्भ मैं यह ध्वनि तीव्र होती है लेकिन धीरे-धीरे सूक्ष्म होती जाती है और योगी का मन पूरी तरह मधुर नाद ध्वनि में लीन हो जाता है। अन्त में उसे दिव्य अनाहत ध्वनि सुनाई देती है जिसे सुनकर वह धरमात्मा की दिव्य ज्योति में खो जाता है। उस ध्वनि को सुनकर वह आत्म विभोर हो जाता है। और मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है।
लय योग के 9 अंग है यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान,
लयक्रिया तथा समाधि इन अंगों का ज्ञान हो जाने पर योगी धीरे-धीरे समाधि की अवस्था में पहुँचकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
लय योग के 9 अंग है यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तयक्रिया तथा समाधि। इन अंगों का ज्ञान हो जाने पर योगी धीरे-धीरे समाधि की अवस्था में पहुँचकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
( 6 ) मंत्र योग (Mantra Yoga)-
मंत्र योग में मंत्रों का शुद्ध उच्चारण करके अथवा अपने इष्टदेव का नाम जपकर सिद्धि प्राप्त करने के लिए साधना की जाती है। मंत्रों को जपने से योगी को आत्मिक शान्ति तथा शक्ति का अनुभव होता है। भारतीय धर्म में ओम मन्त्र को विशेष महत्व दिया गया है। इसका उच्चारण करके हम अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं।
मंत्र का उच्चारण करने से वायुमण्डल में एक सूक्ष्म कम्पन्न होता है। इस कम्पन्न से योगी को एक विशेष प्रकार की ऊर्जा या शक्ति प्राप्त होती है। मंत्रों के उच्चारण से हमारे शरीर में विभिन्न नाड़ी केन्द्र यानाही चक्र प्रभावित होते हैं जिससे मनुष्य को भगवन प्राप्ति का आभास होता है और वह अपने में खो जाता है। ओम शब्द में तीन ध्वनियाँ हैं। ‘अ’ से ब्रह्म के प्रतीक का ज्ञान होता है, ‘ऊ’ से विष्णु का और ‘म’ से शंकर का इस प्रकार ओम मंत्र में सृष्टि की
सृजन, पोषण तथा संहारक तीनों शक्तियाँ निहित हैं। उसी प्रकार भारतीय योग में गायत्री मन्त्र का विशेष स्थान है जिसका उच्चारण करने से साधक जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । किसी भी मन्त्र का जाप उस अवस्था में ही अपना प्रभाव दिखाता है जब साधक सचे मन और आत्मिक भाव से मन्त्र का शुद्ध उच्चारण करता है। मंत्र के जाप के तीन रूप बताए गए हैं
- (क) वाचिक जाप इसमें मन्त्र का जाप इस रूप में किया जाता है कि उच्चारण अन्य व्यक्तियों को भी सुनाई देता है।
- (ख) मानसिक जाप इसमें मंत्र का जाप मन ही मन में किया जाता है। इससे मन्त्र की शक्ति बढ़ जाती है।
- (ग) उपाशु जाप- इसमें जापकर्ता ईश्वर में लीन हो जाता है। उसके मन में उसी मन्त्र की ध्वनि सुनाई देती है जिसका वह जाप कर रहा होता है। इस प्रकार मन्त्र जाप का आश्रय लेकर व्यक्ति सच्चे योग को सिद्ध करने के लिए कदम बढ़ा सकता है।
( 7 ) भक्ति योग (Bhakti Yoga)-
हिन्दू धर्म में ईश्वर को प्राप्त करने के ज्ञान, भक्ति और कर्म-ये तीन मार्ग बताए गए हैं। भक्ति योग ईश्वर को प्राप्त करने का सबसे सरल मार्ग है। भक्ति में व्यक्ति परमात्मा के प्रति प्रेम भाव रखता है तथा अपना सब कुछ परमात्मा को समर्पित कर देता है। भक्ति से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। भक्ति में ईश्वर की साकार उपासना पर बल दिया गया है।
भक्ति योग में साधक इष्ट देवता की मूर्ति या चित्र अपने सामने रखकर उसके प्रति प्रेम भाव जगाकर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है, अर्थात् साधक भक्ति में तन्मय हो जाता है। यही भक्ति योग है।
सगुणोपासना भक्ति के पाँच प्रकार हैं
- दुःख में भगवान् को स्मरण करना तथा दुःख समाप्त हो जाने पर उसे भूल जाना ।
- किसी मन्दिर या सत्संग में पहुँचकर ईश्वर भक्ति में लीन हो जाना।
- मन्दिर आदि से दूर रहकर भी दैनिक कर्म करते हुए ईश्वर का ध्यान करना।
- दैनिक कर्म त्यागकर हर समय भगवान् की भक्ति में लीन रहना तथा
- अपना अस्तित्व मिटाकर अपने आपको ईश्वर में एकाकार कर देना।
इस प्रकार भक्ति योग द्वारा परम पिता परमात्मा के अनेक रूपों का मनन करते हुए ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
( 8 ) सांख्य योग (Sankhya Yoga)-
सांख्य के प्रवर्तक कपिल मुनि हैं। उन्होंने बताया है कि यह संसार 25 तत्वों से मिलकर बना है जिसके दो वर्ग हैं-पुरुष और प्रकृति।
पुरुष या आत्मा एक है जिसका आदि या अन्त कुछ भी नहीं है। जो चैतन्य, सूक्ष्म, सर्वव्यापक, निर्गुण, अपरिवर्तनशील है। यदि वह प्रकृति का ज्ञान प्राप्त कर ले तो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। प्रकृति के कपिल मुनि ने 24 तत्व बताए हैं जिनमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जीभ और तवचा), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (मुँह, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा), पाँच तन्मात्राएँ (रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श), पाँच स्थूलभूत (आकाश, वायु, जल, पृथ्वी और अग्नि)। इस प्रकार मन, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति-इन 24 तत्वों से मिलकर प्रकृति बनी है।
सांख्य योग में प्रकृति तथा पुरुष को महत्व दिया गया है। ये सृष्टि के मूलाधार प्रकार पुरुष का उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना है। यह ज्ञान वह सत्संगति, स्वाध्याय, गुरुजनों आदि से प्राप्त कर जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। हैं। इस
( 9 ) राज योग (Raja Yoga)-
राजयोग आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति को अपना परम उद्देश्य मानता है। यह एक प्रकार से ऐसी प्रणाली का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें सभी अच्छी बातें आ जाती हैं। राजयोग व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और आध्यात्मिक के सर्वांगीण विकास तथा उन्नति को साथ लेकर चलने में विश्वास करता है। इस दृष्टि से यह अन्य सभी योगों से ऊंचा है।
योग साधना का मूल रूप चित्त वृति का निरोध कर मन पर नियन्त्रण करना है। इस दृष्टि से राजयोग सभी योगों की साधना के लिए अन्तिम सीढ़ी है। यह इन्द्रियों तथा मन को नियंत्रित करने का सरल मार्ग बताता है। राजयोग में सभी प्रकार के योगों की विधाओं को स्थान दिया गया है। योगाचार्यों ने राजयोग साधन के लिए 16 अंगों को बताया है।
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