विवाह के प्रमुख प्रकारों की व्याख्या
हिन्दुओं में विवाह एक धार्मिक संस्कार था विवाह का उद्देश्य पत्नी और पति के सहयोग से विभिन्न पुरुषार्थों को पूर्ण करना था। ऐसा माना जाता है कि हिन्दू व्यक्ति अगर विवाह नहीं करता है तो वह कर्म के योग्य नहीं रहता है। प्राचीन भारत में होने वाले विवाह के प्रकार निम्नलिखित थे
(1) ब्रह्म विवाह-
ब्रह्म विवाह सभी विवाहों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इस विवाह के अन्तर्गत पिता सावधानी के साथ वेदज्ञ एवं शीलवान वर का चयन करने के बाद उसे अपने घर बुलाता था। उसकी पूजा करके वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कन्या को उसे प्रदान करता था। इस अवसर पर वह उसे कुछ उपहार भी देता था। वर के कुल, आचरण, विद्या, स्वास्थ्य एवं उसकी धर्मनिष्ठा पर भी ध्यान रखा जाता था। स्मृतियों के विवरण से स्पष्ट है कि यह विवाह कन्या के वयस्क हो जाने पर ही किया जाता था। कन्या के पिता द्वारा प्रदत्त उपहार एक औपचारिकता मात्र था, न कि कोई बाध्यता स्मृति ग्रन्थ इस विवाह की अत्यधिक प्रशंसा करते हैं। यह स्वेच्छया एवं बिना किसी दबाव के सम्पन्न होता था। भारत में आज भी यही विवाह प्रकार सर्वाधिक प्रचलित है।
(2) दैव विवाह-
दैव विवाह में कन्या का पिता एक यज्ञ का आयोजन कराता था जिसमें वह बहुत से पुरोहितों को आग्रह पूर्वक बुलाता था जो भी पुरोहित यज्ञ का अनुष्ठान विधि पूर्वक करा लेता था, उसी के साथ वह अपनी कन्या का विवाह कर देता था। चूंकि यह विवाह देवताओं के लिए यज्ञ किए जाते समय सम्पन्न होता था, अतः इसे ‘देव’ की संज्ञा प्रदान की गई। मनुस्मृति में कहा गया है कि “यज्ञ में विधि वत् कर्म करते हुए ऋत्विज को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कन्या प्रदान करना दैव विवाह है। “
(3) आर्ष विवाह
इस विवाह में कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करने के बदले में एक जोड़ी गाय और बैल प्राप्त करता था ताकि यह याज्ञिक क्रियाएँ सम्पन्न कर सकें। यह विवाह मुख्यतः पुरोहित परिवार में ही प्रचलित था। अलतेकर महोदय वर द्वारा कन्या के पिता को दिए गए गाय-बैल को कन्या मूल्य मानते हुए इसे असुर विवाह का परिष्कृत अवशेष (Refinedrelic) बताते हैं। किन्तु हिन्दू शास्त्रकार इसे कन्या – मूल्य नहीं मानते। मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लुक भट्ट का विचार है कि यह उपहार धर्मतः स्वीकार किया जाता था, न कि इसके पीछे कन्या की बिक्री का कोई इरादा था। जैमिनी, शबर आदि ने भी यही मत दिया है। यह उपहार पूर्णतया यज्ञीय कार्य के लिए ही दिया जाता था। इस प्रकार यह विवाह असुर विवाह से भिन्न था।
(4) प्रजापत्य विवाह-
प्रजापत्य विवाह में कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करते हुए यह आदेश देता था कि दोनों लोग साथ मिलकर सामाजिक एवं धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करें। पिता वर से इसके लिए एक प्रकार की वचनबद्धता प्राप्त कर लेता था। आश्वालायन के अनुसार प्रजापत्य वह विवाह है जिसमें कन्या वर को “तुम दोनों साथ-साथ धर्म का पालन करो” इस आदेश के साथ प्रदान की जाती है (सहधर्म चरत इति प्राजापत्यः) । इसका तात्पर्य यह था कि दोनों जीवन भर साथ रहें, उनका सम्बन्ध विच्छेद न हो तथा वे मिलकर परिवार एवं समाज की उन्नति करें। अपने स्वरूप में यह विवाह ब्रह्म जैसा ही है। इसी कारण वशिष्ठ, आपस्तम्ब आदि प्रारम्भिक सूत्रकार इसका उल्लेख नहीं करते। लगता है कि स्मृतिकारों ने विवाह प्रकारों की संख्या आठ करने के उद्देश्य से इसका विधान कर दिया। ब्रह्म अथवा प्रजापत्य ही विवाह का सर्वप्रचलित प्रकार था जो आज भी हिन्दू समाज में विद्यमान है। ऊपर लिखे चार विवाहों को प्रशस्त अर्थात् शास्त्रसंगत विवाह कहा जाता है। नीचे के चार प्रकार के विवाह को शास्त्रकार नहीं मानते हैं अथवा मान्यता नहीं देते हैं। इन विवाहों का विवरण इस प्रकार है
(5) असुर विवाह-
असुर विवाह में कन्या का पिता या उसके सगे सम्बन्धी धन लेकर कन्या का विवाह करते थे। यह एक प्रकार से कन्या की बिक्री थी। मनुस्मृति में इसका विवरण इस प्रकार है जहाँ वर कन्या के सम्बन्धियों को अथवा स्वयं कन्या को धन देकर स्वेच्छा से उसे ग्रहण करता है, वह असुर विवाह होता है। इस प्रकार असुर विवाह में मुख्य विचार धन का ही किया जाता था। अल्तेकर के अनुसार प्राचीन असीरियन समाज में कन्याओं की बिक्री की प्रथा प्रचलित थी, उसी के प्रभाव से भारतीय समाज में इसका प्रचलन हुआ। मनु के अनुसार कन्या के विद्वान पिता को अत्यल्प धन भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि लोभवश वह धन लेता है तो वह सन्तान विक्रेता है। बौद्धायन ने तो यहाँ तक कहा है कि धन से क्रेता कन्या पत्नी का पूर्णपद नहीं प्राप्त कर सकती। वह देवताओं तथा पितरौ के पूजा में भाग लेने की अधिकारिणी नहीं है तथा उसे दासी ही मानना चाहिए। जो व्यक्ति धन के लोभ में कन्यादान करते हैं वे महान पापी है। वे नरक को जाते हैं तथा सात पीढ़ियों के पुण्य को नष्ट कर देते हैं। इसके बावजूद भारत की कुछ जातियों में इसका प्रचलन रहा है। जो आज भी सीमित रूप में विद्यमान है।
(6) गान्धर्व विवाह-
गान्धर्व विवाह को प्रणय विवाह भी कहते थे। इस विवाह में वर और कन्या अपने माता-पिता की इच्छा के बिना एक दूसरों के गुणों पर अनुरक्त होकर स्वयं अपना विवाह कर लेते थे। मनु ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है-” जहाँ वर तथा कन्या स्वेच्छया से परस्पर मिलते हैं तथा कामवश उनमें मैथुन सम्बन्ध स्थापित हो जाता है वहाँ गान्धर्व विवाह होता है।” चूँकि इस विवाह का प्रचलन अधिकतर गान्धर्व जाति के लोगों में था, अतः इसे गान्धर्व विवाह कहा गया। इस विवाह का प्रचलन प्रत्येक युग में था। भारत की राजपूत जातियों मे यह सर्वाधिक प्रचलित प्रकार था। कुछ लेखक इसकी प्रशंसा करते हैं, जबकि कुछ अन्य इसे शास्त्रसंगत नहीं मानते।
(7) राक्षस विवाह-
राक्षस विवाह में बलपूर्वक कन्या का अपहरण करके उसके साथ विवाह किया जाता था। मनु के अनुसार, “कन्या पक्ष वालों की हत्या कर घायल कर, उनके घरों को गिराकर, रोती चिल्लाती हुई कन्या को बलात् उठा लाना तथा उसके साथ विवाह करना ही राक्षस विवाह है। वस्तुतः इसमें निहित क्रूरता के कारण ही इसे कहा गया है। इस विवाह का प्राचीनता प्रागैतिहासिक युग तक जाती है, जबकि कन्या को युद्ध का मूल्य समझा जाता था। यह विवाह प्राचीन काल की युद्धकर्मी जातियों में विशेष प्रचलित था। महाभारत में इसे ‘क्षात्र धर्म’ कहा गया है। प्राचीन साहित्य में इस प्रकार के विवाह के कुछ उदाहरण मिलते हैं। मनु क्षत्रियों के लिए इसे प्रशंसनीय कहते हैं। महाभारत में भीष्म ने भी इसे क्षत्रियों के लिए प्रशस्त बताया है।
(8) पैशाच विवाह-
यह विवाह का निकृष्टतम प्रकार है जिसकी सभी शास्त्रकार कटु आलोचना करते हैं। इसमें वर छल-छदम के द्वारा कन्या के शरीर पर अधिकार कर लेता था। मनु के अनुसार अचेत, सोती हुई, पागल अथवा मद मस्त कन्या के साथ जब व्यक्ति सम्भोग करता है तब यह पैशाच विवाह होता है। याज्ञवल्क्य छल द्वारा कन्या के साथ विवाह को पैशाच कहते हैं। देवल का भी यह मत है। सभी विचारक इसे नितान्त असभ्य एवं बर्बर प्रथा बताते हैं। इसका प्रचलन आदिम जंगली जनजातियों में रहा होगा।
नातेदारी की प्रमुख श्रेणियों का उल्लेख कीजिए।
इसके अतिरिक्त समाज में अन्तर्व विवाह, अनुलोम-प्रतिलोम विवाह तथा बहुविव बहुपतित्व विवाह भी प्रचलित था, परन्तु ऊपर वर्णित आठ प्रकार के विवाह ही स्मृति विवाहों एवं वैदिक साहित्य में मान्य बताए गए हैं।
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