विवाह एक धार्मिक संस्कार है ( Marriage is a Religious Sacrament)- डॉ. सक्सेना के अनुसार, “हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार संस्कार शब्द का तात्पर्य ऐसे धार्मिक अनुष्ठान से है जिसके द्वारा मानव जीवन की क्षमताओं का उद्घाटन होता है जो मानव को सामाजिक जीवन के योग्य बनाने वाले आन्तरिक परिवर्तनों का प्रतीक होता है और जिसके द्वारा दीक्षित व्यक्ति को विशेष स्तर प्राप्त होता है।…. जिसके बिना मनुष्य का धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष असम्भव है।” इस प्रकार संस्कार वह धार्मिक विधि है जो व्यक्ति को एक विशेष स्थिति में अपने कर्तव्यों का बोध कराती है। विवाह एक ऐसा आवश्यक धार्मिक संस्कार है जिसके बिना व्यक्ति मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। इस विवाह संस्कार के द्वारा पति-पत्नी न केवल आजीवन साथ रहने का संकल्प लेते हैं बल्कि पूरी निष्ठा के साथ एक दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने का वचन भी देते हैं। डॉ. कपाड़िया ने लिखा है, “हिन् विवाह एक संस्कार है। यह एक पवित्र कार्य समझा जाता है क्योंकि यह तभी पूर्ण होता है जबकि ये पवित्र कृत्य पवित्र मन्दों के साथ किये जाते हैं। हिन्दू विवाह की कुछ अन्य ऐसी विशेषतायें हैं जो इसकी धार्मिक प्रकृति को और स्पष्ट कर इसे एक संस्कार का रूप प्रदान करती हैं। दे विशेषतायें निम्नांकित हैं-
1.धार्मिक अनुष्ठान
हिन्दू विवाह को एक धार्मिक संस्कार इसलिए माना जाता है क्याकि कुछ विशेष अनुष्ठान इसमें सम्पन्न किये जाते हैं। जैसे- बाग्यन कन्वायन, पाणिग्रहण लाजा, होम, अग्निपरायण, सत्पदी आदि विवाह के समय सम्पन्न किये जाने वाले इन अनुष्ठानों के साथ वर-वधू को आशीर्वाद दिया जाता है साथ ही अन्न, धन, बल, सुख सन्तान की कामना कर वर-वधू को भावी कर्त्तव्यों का बोध कराया जाता है। इस प्रकार विवाह के समय सम्पन्न किये जाने वाले ये संस्कार विवाह की धार्मिक प्रकृति को प्रकट करते हैं।
2. विवाह एक अटूट बन्धन
हिन्दुओं की धारणा है कि विवाह एक ऐसा बन्धन है जो कुछ समय के लिए नहीं युगों-युगों तक चलता है। हिन्दू विवाह की यह विशेषता उसे अन्य समाजों से पृथक करती है। हिन्दुओं के शास्त्रों में तलाक एवं परित्याग के लिए कोई स्थान नहीं है। विवाह एक ऐसा बन्धन है जो जन्म-जन्मान्तरों तक बना रहता है। अतः परिस्थिति चाहे जितनी प्रतिकूल हो पति-पत्नी एक दूसरे के साथ सदैव अनुकूलन करने की कोशिश करते हैं। ये यौन सम्बन्धों को अधिक महत्व न देकर पवित्रता को अधिक महत्व देते हैं।
3. ऋणों और पुरुषार्थों का आधार
व्यक्ति विवाह संस्कार सम्पन्न करके ही अपने देव ऋण, पितृऋण एवं ऋषि ऋण से मुक्ति प्राप्ति कर सकता है। व्यक्ति अपने पुरुषायों अर्थात् धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की पूर्ति भी विवाह द्वारा ही कर सकता है। इस प्रकार गृहस्थाश्रम जिसे समस्त आश्रमों का प्रवेश द्वार कहा जाता है। व्यक्ति विवाह करके ही इस गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता है।
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4. सामाजिक स्थिति का निर्धारण
विवाह के द्वारा ही व्यक्ति की पारिवारिक एवं सामाजिक स्थिति का निर्धारण होता है। विवाह के द्वार से गुजरने के बाद ही व्यक्ति को धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने का अधिकार मिलता है जबकि अविवाहित व्यक्ति को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है एवं उसे परिवार में उचित स्थिति नहीं मिलती।
5. पतिव्रत पत्नी का आदर्श
हिन्दू विवाह एक ऐसा धार्मिक संस्कार है जिसके सम्पन होने के बाद हिन्दू स्त्री से यह आशा की जाती है कि वह पतिव्रत धर्म का पालन करे। धर्मशास्त्रों में लिखा है, “जिस प्रकार नदी समुद्र में जाकर अपने व्यक्तित्व को खो देती है उसी प्रकार पत्नी अपना व्यक्तित्व पति में खो देती है।” पतिव्रता पत्नी का यह आदर्श विवाह की धार्मिक प्रकृति को प्रकट करता है।
6. धार्मिक आदेशों और निषेधों से युक्त
हिन्दू विवाह उन विभिन्न प्रकार के आदेशों और निषेधों से युक्त है जिनका हिन्दू धर्म में विशेष महत्व है। विवाह को वैदिक दैति से सम्पन्न करना, वेदमन्त्रों का उच्चारण तथा विवाह सम्बन्धों को स्थायी बनाये रखने हेतु प्रयास करना इसके प्रमुख आदेश हैं। जबकि अपने गोत्र में विवाह न करना, प्रतिलोम विवाह न करना तथा विवाह को भौतिक दृष्टिकोण से न देखना इसके प्रमुख निषेध हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है यद्यपि इसकी विशेषताओं में समय के साथ तेजी से परिवर्तन आ रहा है फिर भी सभी व्यक्ति इसे एक धार्मिक संस्कार के रूप में देखते हैं।