विद्यालयों में जेण्डर पहचान एवं समाजीकरण पर एक निबन्ध लिखिये।

विद्यालयों में जेण्डर पहचान एवं समाजीकरण

विद्यालय समाजीकरण की एक प्रमुख संस्था है, परन्तु लिंग भेद को पितृसत्तात्मक संरचना के अनुसार बढ़ाता है। यह बालक का समाजीकरण इस प्रकार करता है कि जेण्डर या सामाजिक लिंग की उत्पत्ति होती है। इसमें पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तके अनौपचारिक क्रियाएं आदि सभी का योगदान होता है। विद्यालय समाज में व्याप्त लिंग भेद को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, विद्यालयी द्वारा जेण्डर पहचान का समाजीकरण अथवा सामाजिक लिंग की उत्पत्ति निम्न प्रकार की जाती है

  1. विद्यालय समाज में व्याप्त लिंग भेद को पुनर्रचित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  2. पाठ्यचर्या में शामिल विषयों व उनके चयन हेतु अवसरों में भी जेण्डर भेद शामिल होता है। पाठ्यपुस्तकों में शामिल पाठों, चित्रों, भाषा, कहानियों के नायकों आदि को इस प्रकार शामिल किया जाता है कि वे जेण्डर भेद को बालकों में आत्मसात कराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  3. विद्यालय अपनी औपचारिक व अनौपचारिक दोनों पाठ्यचर्या के द्वारा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष जेण्डर भेद को बनाए रखने में मदद करते हैं।
  4. शिक्षक छात्र अंतरक्रियाएँ भी इस प्रकार से होती हैं कि सामान्यतः छात्राओं को छात्रों से भिन्न कार्य करने, भिन्न-भिन्न प्रकार के खेल खेलने व कक्षा में भी अलग-अलग प्रकार से व्यवहार (दंड दिए जाने के मामले में भी लड़कों व लड़कियों के साथ मित्र व्यवहार किया जाता है) किया जाता है।

विद्यालय औपचारिक एवं अनौपचारिक गतिविधियों का आयोजन करता है यह गतिविधियां जेण्डर का समाजीकरण करती हैं।

विद्यालयों में आयोजित औपचारिक गतिविधियां एवं जेण्डर का समाजीकरण

विद्यालयों में आयोजित औपचारिक गतिविधियां जेण्डर का समाजीकरण करती हैं जो निम्नलिखित है

(1) विद्यालय का लड़कियों को घरेलू भविष्य के साथ जोड़ने का कार्य

मुखोपाध्याय अपने अध्ययन में यह उजागर करते हैं कि “अधिकतर लड़कियों के विद्यालयों में विज्ञान शाखा की कमी उन्हें सहशिक्षा वाले विद्यालयों में प्रवेश लेने के लिए बल डालती है। साथ ही जिन विद्यालयों में विज्ञान शाखा है भी वहाँ की लैब, शोध के उपकरण, आदि लड़कों के विद्यालयों में उपस्थिति सुविधाओं की तुलना में नाकाफी व कामचलाऊ हैं।”।

(2) पाठ्यपुस्तकों द्वारा सामाजिक लिंग तैयार करना

पाठ्यपुस्तकों में बहुत ही बढ़िया तरीके से यह बताया जाता है कि प्रकार एक बालक (लड़का व लड़की) में सामाजिक लिंग तैयार किया जाता है। कहानी के जरिये घर के काम का महत्व बताया जाता है परन्तु किसी भी वाक्य या चित्र के माध्यम से छात्र-छात्राओं को यह नहीं बनाया जाता कि घरेलू कार्य क्यों महिलाओं के लिये ही माने जाते हैं जबकि एक पुरुष भी उन सभी कामों को ही गिता से कर सकता है।

(3) लैंगिक भेद के संदर्भ में कोई चर्चा नहीं करना

जतिगत भेद व धर्म ● आधारित भेद को पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से बताया गया है, परन्तु लैंगिक भेद के संदर्भ में इस प्रकार की कोई चर्चा नहीं की गई। जबकि लैंगिक भेद एक ऐसा मसला है जिससे संबंधित कई अनुभव छात्र-छात्राओं को पता हो सकते हैं।

(4) पाठ्यपुस्तकों में सामाजिक लिंग आधारित वास्तविकता की अभिव्यक्ति

विशेष तौर पर पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान (जिसे विद्यालयों में ‘अधिकारिक ज्ञान’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है) का विश्लेषण इस संदर्भ में करना आवश्यक हो जाता है कि किस तरह से। पाठ्यपुस्तके सामाजिक लिंग आधारित वास्तविकता को अभिव्यक्त करती है? व वे कौन-सी विशेषताएँ हैं जो पुस्तकेंों में अभिव्यक्त होती है तथा नारीत्व व पुरुषत्य आधारित व्यवहार को मजबूत करती हैं।

(5) महिलाओं को निर्धारित भूमिका में डालने के उद्देश्य की पूर्ति

भारतीय शिक्षा की अवधारणा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए करुणा जानना कहती हैं कि “हालांकि महिलाओं की शिक्षा ने 19वीं सदी के पूर्व में भी समाज सुधारकों को अपनी ओर आकर्षित किया, लेकिन 19वीं सदी के अन्त में ये आवाजें तेज हो गई। इस समय शिक्षित लोग विवाह के लिए शिक्षित लड़कियों को तरजीह देने लगे। अन्य तथ्यों के साथ इस तथ्य ने भी लड़कियों की शिक्षा पर बल दिया और अभिभावकों को अपनी बेटियों को स्कूल भेजने को प्रेरित किया। अंततः पूना स्थिति सेवा सदन जैसे स्वयं सेवी संगठनों द्वारा संचालित विद्यालय लड़कियों को भाषण की शिक्षा देने के अलावा संगीत, गृह विज्ञान, प्राथमिक उपचार, नर्सिंग और मिडवाइफरी आदि में भी शिक्षा देने लगे। यहाँ मुख्य विचार यह था कि क्योंकि एक लड़की को पत्नी और माँ बनाना है अंततः स्कूली शिक्षा ऐसी हो जो उन्हें अपनी भूमिका प्रभावी ढंग से अवा करने के लिए प्रशिक्षित करे।

(6) लैंगिक भेद को दर्शाती पाठ्यपुस्तकें

पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान को विद्यालयों में अधिकारिक ज्ञान के रूप में देखा जाता है। इनमें जो ज्ञान/ सूचना/ भाषा/ चित्र आदि प्रयुक्त किये। गये है। यह लैंगिक भेद को दर्शाते हैं।

(7) पाठ्यपुस्तकों में पुरुष नेताओं को ही दर्शाना

राज्य शासन पर आधारित पाठों में पाठ्यपुस्तकों में समझ विकसित करने के लिए जिस शखसियत को बहुत दमदार रूप में दिखाया जाता है जो शासन के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के विरोध पर ऊँची बुलन्द आवाज में मांग करता है वह एक पुरुष नेता होता है, क्या यहाँ पर भी जेण्डर भेद नजर नहीं आता? क्या राजनीतिक सम्मेलनों, सरकार विरोधी प्रदर्शनों या नेता के रूप में महिला को दिखाकर छात्र छात्राओं की अलग तस्वीर नहीं दिखाई जा सकती थी? यह प्रश्न चिंतनीय है।

(5) पुरुषवादी विचारधारा की अधिकता

अधिकतर पाठ्यपुस्तकों का विश्लेषण यह दर्शाता है कि औपचारिक विद्यालय पाठ्यक्रम में पुरुषवादी विचारधारा अधिक पाई जाती है। व महिला पक्ष की उपेक्षा की गई है।

(9) जेण्डर अनुसार विषयों का विभाजन

यह पाया गया है कि वह विद्यालयों में लड़कियों को 11 वीं कक्षा में अतिरिक्त विषय के रूप में सौन्दर्य कला, सिलाई-कढ़ाई, पेंटिग व पाक कला में से एक को चुनना होता है जो कि लड़कों को बेसिक कंप्यूटर, टाइपिंग, पेटिंग में से एक का चयन करना होता है। कुछ विद्यालयों में गृह विज्ञान बालिकाओं के लिए अनिवार्य है। जबकि बालक उसके बदले शारीरिक शिक्षा का चयन कर सकते हैं। विषयों के चयन व अवसर को लेकर इस प्रकार के दोहरेपन से यह सवाल उठता है कि क्यूँ बालिकाओं को ही ऐसे विषयों में प्रशिक्षण देने पर बल दिया जा रहा है जो जेण्डर विभक्त समाज में उनकी भूमिका का निर्धारण करते हैं। यहाँ यह कहना गलत न होगा कि विषयों का यह विभाजन मात्र ज्ञान के वितरण का मसला नहीं है बल्कि ये भविष्य की भूमिका के निर्धारण का भी मामला है।

विद्यालयों में आयोजित अनौपचारिक गतिविधियां एवं जेण्डर का समाजीकरण

विद्यालयों में आयोजित अनौपचारिक गतिविधियां जेण्डर का समाजीकरण करती हैं जो निम्नलिखित हैं

(1) कक्षाओं में दो मॉनीटर नियुक्त करना

सह विद्यालयों में सभी कक्षाओं में दे मॉनीटर नियुक्त किए जाते हैं। एक लड़का व एक लड़की ऊपरी तौर पर देखने पर यह बहुत अच्छा लगा कि दोनों लिंग को समान दर्जा व अवसर मिल रहे हैं। परन्तु नियम यह होता है कि छात्रा मॉनीटर लड़कों को किसी भी प्रकार का आदेश नहीं दे सकती है। इसी प्रकार छात्र मॉनिटर मात्र लड़कों की समस्याओं पर बोल सकता है। इस प्रकार का विभाजन सभी कक्षाओं में होता हैं। हालांकि किसी कक्षा में यह नियम सख्ती से लागू होता तो कहीं नरमी बरत दी जाती है।

(2) लड़के व लड़कियों का अलग-अलग पंक्ति एवं बेंच पर बैठना

सह विद्यालयों में लगभग सभी कक्षाओं में (छोटी कक्षाओं पहली से पाँचवी की छोड़ कर) लड़के व लड़कियों न केवल अलग-अलग बेंच पर बैठते हैं बल्कि लड़के लड़कियों को बेंच अलग अलग पंक्ति में लगी होती हैं लड़कियों की पंक्ति में कोई लड़का नहीं बैठता है न लड़कियों, लड़कों के साथ। इसके साथ ही विद्यालय में सजा के तौर एक तरीका जो सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है यह यह कि जब भी कोई छात्र (लड़का) अनुशासन में न रहे तो उन्हें लड़कियों की पंक्ति में बैठा देना। अधिकतर शिक्षकों द्वारा यह सजा लड़कों को अनुशासन में लाने के लिए राम बाण की तरह प्रयोग में लाई जाती हैं। इस प्रकार एक छात्र को छात्राओं के साथ बैठाकर उसे अपमानित महसूस करवाया जाता है। इसी प्रकार कई विद्यालयों में लड़के-लड़कियां कक्षा कक्ष में अलग अलग तो बैठते ही हैं, प्रार्थना सभा व अन्य गतिविधियों में भी लड़के-लड़कियों को अलग अलग खड़ा किया जाता है, इसके अलावा लड़के लड़कियों के रोल नंबर न केवल अलग अलग लिखे व बोले जाते हैं। इस प्रकार के विभाजन हालांकि कई बार प्रत्यक्ष नहीं होते, परन्तु इन विभाजनों से एक बालक पर जो प्रभाव पड़ता है वह उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है।

(3) प्रार्थना सभा में लड़के व लड़कियों की अलग-

अलग पंक्तियाँ प्रार्थना सभा में भी लड़कों की पंक्ति लड़कियों से अलग बनवाई जाती हैं। समय-समय पर अध्यापिकाओं द्वारा यह हिदायत दी जाती हैं कि लड़के व लड़कियाँ अलग बैठें व पढ़ें।

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(4) किशोरी नेपकिन के बंटवारे का आयोजन

कुछ विद्यालयों में किशोरी नेपकिन का बंटवारा किया जाता है, वह विद्यालय जहाँ मात्र बालिकाएँ पढ़ती है वहाँ किशोरी नेपकिन का बंटवारा कक्षा में ही होता है। सह विद्यालयों में किशोरी नेपकिन का बंटवारा गुप चुप तरीके से किया जाता है। छात्रा मॉनीटर एक-एक लड़की को कान में बोलकर मैडम के पास भेजती है। जब किसी लड़के को यह पता चल जाता तो कक्षा में लड़कियों का मजाक बनाया जाता। लड़के दबी किशोरी किशोरी शब्द को बुदबुदाते हैं। यह समय लड़कियों के लिए शर्म वाला होता है। जुवान से

(5) बालक बालिकाओं का अलग खेलना

यह विद्यालयों में खेल के समय बालक बालिकाओं से अलग मैदान में खेलना पंसद करते हैं। वहीं बालिकाएँ अधिकतर समय कक्षा में ही बिताती । बालिका विद्यालयों में लड़कियाँ भाग-दौड़ वाले खेलों में रुचि लेने में कोई कमी नहीं करतीं। हालांकि फुटबॉल, क्रिकेट जैसे खेलों की सुविधाओं की कमी होती है। परन्तु लंगडी टांग, ऊंची छलांग, बैडमिंटन जैसे खेल खूब खेले जाते हैं।

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