वाकाटक राजवंश का इतिहास प्रवरसेन द्वितीय तक संक्षेप में वर्णन कीजिए।

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वाकाटक राजवंश का इतिहास – वाकाटकों की उत्पत्ति एवं आरम्भिक इतिहास के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। कुछ विद्वान इनका सम्बन्ध बुन्देलखण्ड में बागर या वाकट नामक क्षेत्र से जोड़ते हैं दो कुछ अन्य इनकी उत्पत्ति आन्ध्रों से मानते हैं वाकाटकों का उदय भारतीय राजनैतिक में उस समय हुआ जब सातवाहनों की सत्ता मध्य प्रदेश से समाप्त हो चुकी थी। तीसरी शतब्दी ई. से छठी शताब्दी ई. तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित तथा सुसंस्कृत था। प्रसिद्ध विद्वान जे इन्त्रीत ने एनशियन्ट हिस्ट्री आफ डेकन के पृष्ठ संख्या 71 में कहा है कि “दक्षिण के उन समस्त राजवंशों में जिन्होंने तीसरी शताब्दी ई. से छठी शताब्दी ई. तक राज्य किया। सबसे अधिक गौरवपूर्ण एवं आदरणीय स्थान का पात्र तथा सबसे अद्वितीय तथा सम्पूर्ण दक्षिण के राज्यों में श्रेष्ठतम सभ्यतावाला निश्चय ही वाकाटकों का यशस्वी राजवंश था।” इस यशस्वी राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिणी भारत के ऊपरी भाग में शासन किया और यह मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश का समकालीन था। इस राजवंश के लोग विष्णुबुद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे तथा उनका मूल निवास स्थान बरार (विदर्भ) में था। पुराणों के अनुसार विन्ध्यशक्ति वाकाटक राज्य का संस्थापक था। उसकी आरम्भिक राजधानी पुरिका (बरार में) थी।

विन्ध्यशक्ति (255-275 ई.)

वाकाटक राज्य का संस्थापक विन्ध्यशक्ति था। सम्भवतः यह सातवाहनों का धीनस्थ कोई पदाधिकारी या महत्वपूर्ण सरदार था। उसने पूर्वी मालवा में अपनी शक्ति स्थापित की तथा बाद में विन्ध्य के पार सातवाहनों के प्रदेशों पर अधिकार किया। वह विष्णुवृद्धि गोत्रीय ब्राह्मण था। पुराणों के अतिरिक्त अजन्ता के अभिलेखों में भी उसे वाकाटक शक्ति का संस्थापक माना गया है तथा उसकी तुलना इंद्र और विष्णु से की गई है। इससे प्रतीत होता है कि यह ब्राह्मण धर्म को मानने वाला था। उसने कोई विशिष्ट राजकीय उपाधि धारण नहीं की। विन्ध्यशक्ति ने सम्भवत 255-275 ई. के मध्य शासन किया।

प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.)

वाकाटकों की शक्ति का विस्तार विन्ध्यशक्ति के पुत्र प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.) ने किया। उसने सभी दिशाओं में विजय अभियान किए। वाकाटकों में एकमात्र वही ऐसा शासक था जिसने महाराजा की उपाधि धारण की थी। प्रवरसेन ने ब्राह्मण धर्म की महत्ता स्थापित की तथा चार अश्वमेध यज्ञ किए। जिस समय वाकाटकों का उदय हो रहा था उसी समय मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में नाग वंश का भी उत्थान हो रहा था। दोनों वंशों का समान राजनैतिक परिस्थितियों में उदय हुआ था तथा दोनों की समान धार्मिक मान्यताएँ थीं। अतः दोनों में सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध होना स्वाभाविक था। सम्भवतः इसे ध्यान में रखते हुए ही प्रवरसेन ने अपनी पुत्री का विवाह नागवंशी शासक भवनाग से किया। इससे उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ गई। प्रवरसेन के समय में वाकाटक शक्ति का विस्तार मध्य भारत में बुन्देलखण्ड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक था। प्रवरसेन ने शकों के अनेक क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया। ऐसा प्रतीत होता है। प्रवरसेन ने अपना राज्य अपने पुत्रों में प्रशासनिक सुविधा के लिए विभक्त कर दिया था। इसमें दो भाग मुख्य थे। एक भाग प्रवरसेन के बड़े पुत्र गौतमीपुत्र की अध्यक्षता में जिसका केन्द्र नागपुर निकट नंदिवर्धन था और दूसरा सर्वसेन के अधीन जिसका केन्द्र बरार में वत्सगुल्म था। आगे इसी से बेसिम की शाखा का उदय हुआ।

रूद्रसेन प्रथम (335-360 ई.)

प्रवरसेन के बाद रूद्रसेन प्रथम (335-360 ई.) वाकाटक राजा बना। वह प्रवरसेन के बड़े पुत्र गौतमीपुत्र का पुत्र था। शासक बनते ही उसे अपने विरोधियों और प्रतिद्वन्द्रियों से जूझना पड़ा। प्रवरसेन की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में प्रतिस्पर्द्धा आरम्भ हुई। गौतमीपुत्र की मृत्यु पहले ही हो गई थी। उसी का पुत्र रुद्रसेन प्रवरसेन का उत्तराधिकारी बना। अन्य तीन पुत्र जो वस्तुतः गवर्नर या प्रशासक के रूप में राज्य के तीन भागों पर राज्य कर रहे थे, स्वतन्त्र शासक बन गए। रुद्रसेन ने अपने नाना भवनाग की सहायता से अपने दो चाचाओं के राज्य पर विजय प्राप्त कर उनका राज्य समाप्त कर दिया, परन्तु सर्वसेन अपनी स्वतन सत्ता बनाए रखने में सफल हुआ। रुद्रसेन ने वाकाटकों की शक्ति को बनाए रखने का प्रयास किया। उसने सम्भवतः गुप्तों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लिया जिससे समद्रगुप्त ने उसके राज्य को छोड़ दिया। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में दक्षिण के जिन राज्यों का उल्लेख हुआ है उस सूची में वाकाटकों का नाम नहीं मिलता। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है। रुद्रसेन शैव मतावलम्बी था।

पृथ्वीसेन प्रथम (360-385 ई.)

वाकाटकों की मुख्य शाखा में रुद्रसेन का उत्तराधिकारी पृथ्वीसेन प्रथम (360-385 ई.) बना। उसने बेसिम की शाखा के शासक विन्ध्यमेन या विध्यशक्ति से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखा तथा उसे कुंतल पर अधिकार करने में सहायता प्रदान की। उसके शासनकाल की सबसे प्रमुख घटना थी गुप्तों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना। गुप्तों का प्रभाव अपनी पराकाष्ठा पर था। अतः उनकी मैत्री प्राप्त करना वाकाटकों के लिए आवश्यक था। सम्भवतः पहले की मैत्री को सुदृढ़ करने के लिए पृथ्वीसेन ने अपने पुत्र रुद्रसेन द्वितीय का विवाह गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता से कर दिया। इस वैवाहिक सम्बन्ध से दोनों राजवंशों को लाभ हुआ, परन्तु अधिक लाभ गुप्तों को ही हुआ।

रूद्रसेन द्वितीय (385-390 ई.)

पृथ्वीसेन का उत्तराधिकारी रुद्रसेन द्वितीय हुआ (385-390 ई.)। वह चन्द्रगुप्त द्वितीय का दामाद था। वह एक शक्तिशाली शासक था। उसने अपनी पत्नी के प्रभाव में आकर बौद्ध धर्म त्याग दिया और वैष्णव धर्म को अपना लिया। दुर्भाग्यवश शासक बनने के कुछ समय बाद ही रुद्रसेन की अकालमृत्यु हो गई।

रुद्रसेन की मृत्यु | के पश्चात उसकी पत्नी प्रभावती गुप्ता अपने बड़े नाबालिग पुत्र दिवाकरसेन की संरक्षिका बनी। उसके संरक्षिका के रूप में प्रभावती गुप्ता ने 13 वर्षों तक राज्य किया। प्रभावती गुप्त ने चन्द्रगुप्त द्वितीय को गुजरात और काठियावाड़ पर विजय प्राप्त करने में सहायता पहुंचायी। करीब 403 ई. में दिवाकरसेन की भी मृत्यु हो गई। अब प्रभावती गुप्ता ने अपने दूसरे पुत्र दामोदरसेन की संरक्षिका के रूप में राज्य करना आरम्भ किया। इस पद पर वह करीब 410 ई. तक रही। प्रभावती गुप्त ने वाकाटकों की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा। उसके भय से बेसिम शाखा के शासकों ने भी उसके राज्य पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं की।

प्रवरसेन द्वितीय (410440 ई.)

वाकाटक वंश की मूल शाखा का अन्तिम शक्तिशाली शासक प्रवरसेन द्वितीय या (410-440 ई.)। उसका आरम्भिक नाम दामोदरसेन था। वह एक कुशल प्रशासक था, लेकिन उसकी अभिरूचि युद्ध से अधिक शान्ति के कार्यों, विशेषतया साहित्य और कला के विकास में थी। उसने सेतुबन्ध नामक काव्य की रचना की। उसे नयी राजधानी प्रवरपुर बनाने का श्रेय भी दिया जाता है। शान्ति के कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी उसने साम्राज्य की एकता को बनाए रखा। उसने कुन्तलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। उसने अपने पुत्र नरेंद्र का विवाह कुंतल नरेश की पुत्री अजित भट्टारिका से किया। इस वैवाहिक सम्बन्ध से वाकाटकों की स्थिति मजबूत हुई। प्रवरसेन वैष्णव धर्म को मानने वाला था। वाकाटकों की शक्ति का पतन भी प्रवरसेन द्वितीय के पश्चात् प्रारम्भ हो गया। प्रवरसेन द्वितीय के बाद नरेन्द्रसेन (440-460 ई.) तथा पृथ्वीसेन द्वितीय (460-480 ई.) ही थोडे प्रभावशाली शासक हुए। परन्तु वे भी वाकाटकों की मुख्य शाखा का पतन होने से नहीं बचा पाए। अन्ततोगत्वा बेसिम वंश के शासकों ने इनका उन्मूलन कर वाकाटकों की मुख्य शाखा का अन्त कर दिया।

वाकाटकों की उपलब्धियाँ

लगभग 3.6 शतब्दी ई. के मध्य भारतीय राजनीति में वाकाटकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके अभिलेखों से तत्कालीन शासन व्यवस्था पर थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है। वाकाटकों ने आनुवंशिक राजतन्त्र का विकास किया। राजा शासन का प्रधान होता था। कुछ वाकाटक शासक भी चक्रवतीं राजा के अनुरूप अश्वमेध यज्ञ करते थे। प्रवरसेन ने चार अश्वमेध यज्ञ किए थे वाकाटकों में सिर्फ प्रवरसेन प्रथम ने ही महाराज की उपाधि धारण की। वाकाटकों ने अपने प्रशासन एवं राज्य में स्त्रियों को भी स्थान दिया। प्रभावती गुप्ता ने दिवाकरसेन और दामोदरसेन की संरक्षिका के रूप में करीब बीस वर्षों तक राज्य पर शासन किया। वाकाटक राजा मंत्रियों की से शासन चलाते थे। कुछ मंत्रियों के पद वंशानुगत भी थे। प्रशासन में राजा के पुत्रों और सम्बन्धियों को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। प्रवरसेन ने अपने चारों पुरों को साम्राज्य के विभिन्न भागों का प्रशासक नियुक्त किया था यह व्यवस्था हानिकारक सिद्ध हुई।

दूसरे असीरियन साम्राज्य की स्थापना को समझाइये।

वाकाटकों की प्रशासनिक व्यवस्था की समुचित उनके अभिलेखों से प्राप्त नहीं होती है। मंत्रिपरिषद में वियों के अतिरिक्त राजा कुछ अन्य पदाधिकारियों को नियुक्त करता था। इनमें प्रमुख पदाधिकारी चाह, भाट सन्तक एवं निरीक्षक थे। चाटमाट पुलिस अधिकारी होते थे इनके मुख्य कार्य शान्ति व्यवस्था बनाए रखना था। सन्तक सम्भवतः जिलाधिकारी था। निरीक्षक गुप्तचर के समान थे। लिपिक या रज्जाक भी प्रशासन में सहायता देते थे। यद्यपि अभिलेखों में भुक्ति, राष्ट्र और राज्य का उल्लेख मिलता है, परन्तु उनके विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। ग्राम शासन में महत्तर और सभा की प्रमुख भूमिका थी। वाकाटकों ने सैन्यबल के गठन पर भी ध्यान दिया। सेनापति राज्य में प्रभावशाली होता था। राज्य की आमदनी का मुख्य स्रोत विभिन्न प्रकार का लगान या भूमि- कर था, जैसे भाग, भोग, उग्रम इत्यादि। आयात शुल्क से भी कुछ आमदनी होती थी। बेगार लेन की प्रथा भी प्रचलित थी। राज्य जमीन की माप करवाता था सरकारी कर्मचारियों का खर्च बहुधा, ग्रामवासी उठाते थे। ब्राह्मणों को तथा सरकारी पदाधिकारियों को भी राज्य भूमि दान देता था। दान पाने वाले व्यक्ति का मुख्य कर्तव्य अपने क्षेत्र में राजा की सत्ता बनाए रखने का प्रयास करना तथा अपराधी तत्त्वों पर निगरानी रखना था।

वाकाटकों के शासन काल में समाज वर्ण व्यवस्था एवं जाति प्रथा पर आधारित थी। लोग अपना स्वतन्त्र व्यवसाय अपना सकते थे। अन्तर्जातीय विवाह भी प्रचलित थे। समाज में स्थियों का स्थान सम्मानजनक था। वाकाटकों का शासनकाल धार्मिक सहिष्णुता का काल था। यद्यपि अधिकांश वाकाटक शासक ब्राह्मण धर्मावलम्बी थे। वे शिव अथवा विष्णु की आराधना करते थे तथा कुछ। ने अश्वमेध यज्ञ भी करवाए, तथापि बौद्धधर्म का भी प्रभाव अच्छा था। ब्राह्मण धर्म का समर्थक होते हुए भी वाकाटकों ने बौद्धों पर अंकुश नहीं लगाया। अजन्ता की कुछ बौद्ध गुफाओं का निर्माण वाकाटकों के शासनकाल में भी हुआ। मन्दिर निर्माण की नागर शैली का विकास भी इसी समय हुआ। गंगा-: -यमुना । की मूर्तियों इसी समय बनाई गई। ये वाकाटकों का राज्य चिन्ह थीं राज्य ने शिक्ष के विकास को भी प्रोत्साहन दिया। नासिक, प्रवरपुर, वत्सगुल्म उच्च शैक्षणिक केन्द्र थे। गाँवों में शिक्षा के प्रसार के लिए भूमि अनुदान दिए गए। इस समय कुछ साहित्यिक रचनाएँ भी हुई। इनमें सबसे विख्यात प्रवरसेन द्वितीय रचित सेतुबन्ध महाकव्य है। कुछ आलोचकों का मानना है कि कवि कालिदास ने अपने प्रन्थ रघुवंश की प्रेरणा सेतुबन्ध से ही ली थी।

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