उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986
भारतीय उपभोक्ता की बढ़ती हुई क्रय-क्षमता के कारण तथा उन्हें भ्रामक सूचनाओं से बचाने एवं अन्याय तथा शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए भारतीय उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 बनाने की आवश्यकता पड़ी। जिस गति से भारतीय उपभोक्ता विश्व बाजार में उपभोक्ताओं की सर्वोच्य श्रेणी पर जा पहुंचा है, उस दृष्टिकोण से भी भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को विशेष महत्वपूर्ण समझा गया है।
इस अधिनियम में ‘उपभोक्ता’ को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है
(क) माल का उपभोक्ता
एक ऐसा व्यक्ति जो प्रतिफल के बदले माल खरीदता है तथा माल का उपयोग भी करता है। वह प्रतिफल का पूर्ण भुगतान करता है अथवा आंशिक भुगतान करता है अथवा भुगतान करने का वचन देता है तो ‘माल का उपभोक्ता’ कहलाता है।
जून 1993 में किए गए एक संशोधन के अनुसार ‘व्यापारिक उद्देश्य’ किसी भी उपभोक्ता के लिए तब नहीं माना जाता है, जबकि कोई व्यक्ति स्वरोजगार हेतु आजीविका चलाता है। जैसे, यदि कोई बेरोजगार व्यक्ति कम्प्यूटर जैरोक्स मशीन इत्यादि खरीदकर अपनी आजीविका चलाता हो तो भी वह ‘माल का उपभोक्ता’ ही कहलाएगा।
((धारा 2(i) (d) (i)]
माण्टेसरी पद्धति क्या है? डॉ. माण्टेसरी के शिक्षा सिद्धांत का उल्लेख कीजिए।
(ख) सेवाओं का उपभोक्ता
यह ऐसा उपभोक्ता है जो कि प्रतिफल के बदले किन्हीं सेवाओं को भाड़े पर उपयोग प्राप्त करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि उसने प्रतिफल का भुगतान कर दिया हो (चाहे पूर्ण भुगतान किया हो अथवा आंशिक) अथवा भुगतान करने का वचन दिया हो (पूर्ण अथवा आंशिक)।
(धारा 2(i) (d) (ii)]
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