उच्च शिक्षा की समस्या
उच्च शिक्षा की समस्या- यद्यपि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के 50 वर्षों में विश्वविद्यालयों तथा छात्रों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है किन्तु शिक्षा में गुणात्मक सुधार सम्भव नहीं हो पाया है। कुछ विश्वविद्यालयों को छोड़कर अन्य विश्वविद्यालयों में आज भी शिक्षा का स्तर बुहत निम्न है। आज भारत की विश्वविद्यालयीय शिक्षा में अनेक दोष या कमियां विद्यमान है। कुछ प्रमुख दोषों का उल्लेख हम यहाँ कर रहे हैं।
भारत में विश्वविद्यालयीय (उच्च) शिक्षा के दोष अथवा समस्याऐं
1.उद्देश्यहीनता-
भारत में विश्वविद्यालय शिक्षा का कोई उद्देश्य नहीं है। विश्वविद्यालयों का एकमात्र उद्देश्य छात्रों को उपाधियां वितरित करना मात्र बन गया है। हमारे देश की उच्च शिक्षा सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पा रही है। उद्देश्यहीनता के कारण भारत की उच्च शिक्षा का भविष्य अनिश्चित है। इस समस्या का समाधान किया जाना बहुत आवश्यक है।
(2) निम्न स्तर
विश्वविद्यालयों द्वारा दी जा रही शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है। बड़े से बड़े विश्वविद्यालय से परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले सामान्य खत्रों का शैक्षिक स्तर बहुत निम्न है। वह सामान्य ज्ञान के प्रश्नों का उत्तर देने की स्थिति में भी नहीं होते।
(3) दूषित पाठ्यक्रम-
माध्यमिक शिक्षा की तरह ही विश्वविद्यालयीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी अनेक दोष विद्यमान है। सभी विश्वविद्यालयों के विषय एवं पाठ्यक्रम संकीर्ण, सैद्धान्तिक, सामान्य जीवन से अलग तथा अव्यावहारिक हैं। वे बालक की रुचियों, क्षमताओं तथा समाज एवं राष्ट्र की आवश्यकताओं से बिल्कुल पृथक है। पाठ्यक्रम को देश व समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने के लिए उन्हें शीघ्र ही बदलने की आवश्यकता है।
(4) अपव्यय एवं अवरोधन
प्राथमिक शिक्षा की ही भांति उच्च शिक्षा में भी अवरोधन पाया जाता है। उचित पाठ्यक्रम तथा परीक्षा का स्तर उचित न होने के कारण 50 प्रतिशत छात्र अनुत्तीर्ण होते हैं, जिससे अपार धन की हानि होती है।
(5) अनुशासनहीनता
माध्यमिक स्तर की शिक्षा की तुलना में विश्वविद्यालय स्तर पर अनुशासन की समस्या अधिक गम्भीर एवं जटिल है। विश्वविद्यालयों में यह देखा गया है कि छात्र संगठित होकर अनुशासनहीनता का प्रदर्शन करते हैं। राजनीतिज्ञों द्वारा भी विश्वविद्यालय के छात्रों को अपना मोहरा बनाकर अनुशासनहीनता को जन्म दिया जा रहा है।
(6) दूषित परीक्षा प्रणाली
विश्वविद्यालयों में प्रचलित परीक्षा प्रणाली बहुत दूषित एवं संकीर्ण है। यह प्रणाली छात्रों की शैक्षिक योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं कर पाती। छात्रों का उद्देश्य मात्र कुछ महत्वपूर्ण विषयवस्तु को याद कर परीक्षा में पास होना ही रहता है। परीक्षा प्रणाली में वस्तुनिष्ठ प्रश्नों पर अधिक बल नहीं दिया जाता।
(7) निर्देशन और अनुमोदन
माध्यमिक शिक्षा की ही भाँति विश्वविद्यालय स्तर पर भी निर्देशन एवं मार्गदर्शन की कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। बिना सोचे समझे अपने विषयों का चुनाव कर लेते हैं और डिग्री प्राप्त कर लेने के बाद उसका कोई लाभ नहीं उठा पाते।
(8) शिक्षा में सर्वांगीणता की उपेक्षा-
उच्च शिक्षा की एक अन्य महत्वपूर्ण कमी छात्रों का सर्वांगीण विकास न करना है। उपाधि प्राप्त कर लेने के पश्चात् छात्र अपनी पाठ्य विषय वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं जानते क्योंकि उनमें व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
विश्वविद्यालयीय शिक्षा के दोषों के निवारण हेतु उपाय
विश्वविद्यालय शिक्षा के उत्थान, विस्तार तथा उसके स्तर में सुधार करने के लिए सन् 1949 के राधाकृष्णन आयोग ने बहुत ही विस्तृत ढंग से सुझाव प्रस्तुत किये हैं।
विश्वविद्यालय शिक्षा के उद्देश्य से सम्बन्धित सुझाव
- राधाकृष्णन आयोग ने शिक्षा के उद्देश्य के विषय में सबसे पहला सुझाव यह दिया है कि विश्वविद्यालय का कर्त्तव्य ऐसे विद्वान एवं साहसी छात्रों को उत्पन्न करना होना चाहिए जो वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति करने में तो सक्षम हों ही साथ ही साथ प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व ग्रहण करने की क्षमता भी रखते हों
- आयोग का मानना था कि सांस्कृतिक विकास किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। अतः विश्वविद्यालयों को चाहिए कि छात्रों में वे प्रगतिशील चेतना उत्पन्न करने का प्रयास करें जिससे कि वे प्राचीन अन्धी परम्पराओं को छोड़कर विकास के मार्ग पर विश्व के दूसरे देशों की भाँति दृढ़ता से आगे बढ़ सकें
- पत्रों को जीवन के वास्तविक उद्देश्यों, मानव जीवन के वास्तविक अर्थ आदि का ज्ञान कराय जाना विश्वविद्यालयों का उद्देश्य होना चाहिए।
- ज्ञान के विभिन्न स्वरूपों का समन्वय करते हुए उन्हें छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
- मानसिक विकास करना तो विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा का उद्देश्य होना ही चाहिए लेकिन इसके साथ-साथ खत्रों का आध्यात्मिक विकास करना भी विश्वविद्यालयों का उत्तरदायित्व होना चाहिए।
शिक्षकों से सम्बन्धित सुगाव
- आयोग ने कहा कि शिक्षा के स्तर गिरने का प्रमुख कारण अध्यापकों को अपने विषयों का पूर्ण ज्ञान न होना है। उन्हें अपने ज्ञान का विस्तार करने के लिए विश्वविद्यालयों की ओर से सुविधाएं प्राप्त नहीं होतीं।
- विश्वविद्यालयों के अध्यापक शिक्षण कार्य की उपेक्षा करते हैं और प्रशासनिक कार्यों में अधिक रुचि लेने लगे हैं।
- अध्यापकों के निवास स्थानों की व्यवस्था विश्वविद्यालय के समीप होनी चाहिए।
- अध्यापकों का कार्यकाल ठ वर्ष का होना चाहिए। केवल प्रोफेसर्स के लिए यह आयु 64 वर्ष होनी चाहिए।
- जूनियर तथा सीनियर अध्यापकों का अनुपात 2:1 का होना चाहिए।
- अध्यापकों की पदोन्नति उनकी योग्यता के आधार पर की जानी चाहिए।
शिक्षण स्तर से सम्बन्धित सुझाव
आयोग का मानना था कि वर्तमान समय में शिक्षा स्तर उठाया जाना चाहिए और इस कार्य के लिए आयोग ने निम्न सुझाव दिये
- विश्वविद्यालयों में केवल इन्टरमीडिएट परीक्षा पास कर चुके विद्यार्थियों को ही प्रवेश दिया जाना चाहिए।
- इन्टरमीडिएट कक्षाओं के शिक्षा स्तर को भी उठाया जाना चाहिए।
- व्यापक पैमाने पर व्यावसायिक और टेक्निकल स्कूलों की स्थापना की जानी चाहिए और माध्यमिक तथा इण्टर शिक्षा पूर्ण कर लेने के पश्चात् छात्रों को इन स्कूलों में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित’ किया जाना चाहिए।
पाठ्यक्रम से सम्बन्धित सुझाव
पाठ्यक्रम को व्यापक बनाने के लिए आयोग ने निम्न सुझाव दिये थे
- माध्यमिक तथा विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में कला और विज्ञान के साथ-साथ सामान्य शिक्षा की भी व्यवस्था की जानी चाहिए। आयोग का मानना था कि ऐसा करने से सामान्य शिक्षा और विशेषीकृत शिक्षा के बीच सामंजस्य स्थापित हो सकेगा।
- पाठ्यक्रम का स्वरूप इस प्रकार का होना चाहिए जिससे कि छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास सम्भव हो सके।
- बी० ए० की उपाधि 3 वर्ष में दी जानी चाहिए।
- स्नातकोत्तर की उपाधि स्नातक बनने के दो वर्ष बाद ही प्रदान की जानी चाहिए और आनर्स कोर्स की अवधि एक वर्ष की होनी चाहिए।
अनुसंधान कार्य से सम्बन्धित सुझाव
आयोग ने अनुसंधान पर विशेष बल दिया। आयोग का मानना था कि वर्तमान सभ्यता का स्वरूप निरन्तर किये गये आविष्कारों तथा अनुसंधानों का ही परिणाम है। अतः विश्वविद्यालयों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह अनुसंधान के कार्यों को महत्व दें और इसे करने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करें।
परीक्षा प्रणाली से सम्बन्धित सुझाव
- विश्वविद्यालयों तथा शिक्षा मंत्रालय द्वारा परीक्षा लेने के वैज्ञानिक ढंग पर अनुसंधान जाना चाहिए और अनुसंधान के परिणाओं का लाभ उठाया जाना चाहिए।
- प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक परीक्षक बोर्ड की स्थापना की जानी चाहिए।
- स्नातकोत्तर एवं व्यावसायिक परीक्षाओं के लिए मौखिक परीक्षा भी ली जानी चाहिए।
- परीक्षाओं को अत्यन्त सावधानी के साथ लिया जाना चाहिए और परीक्षा लेने वाले अध्यापक को कम से कम तीन वर्ष का अनुभव होना चाहिए।
- प्रथम श्रेणी के लिए 70 प्रतिशत, द्वितीय श्रेणी के लिए 40 प्रतिशत अंक निर्धारित किये जाने चाहिए। के लिए 55 प्रतिशत और तृतीय श्रेणी
- स्नातक की परीक्षा तीन वर्ष बाद लेने के स्थान पर प्रत्येक वर्ष ली जानी चाहिए और प्रत्येक वर्ष छात्र का परीक्षा में उत्तीर्ण होना अनिवार्य होना चाहिए।
व्यावसायिक शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
‘आयोग ने व्यावसायिक शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों के लिए निम्न सुझाव प्रस्तुत किये –
(1) कृषि शिक्षा
आयोग का मानना था कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाँ पर कृषि का विशेष महत्व है। अतः कृषि की समस्या एक राष्ट्रीय समस्या मानकर उसके समाधान का प्रयास किया जाना चाहिए।
(2) वाणिज्य शिक्षा
आयोग का सुझाव था कि व्यावसायिक शिक्षा को व्यवहारिक बनाया जाना चाहिए और वाणिज्य शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रत्येक छात्र के लिए 3 या 4 वर्ष विभिन्न वाणिज्य संस्थाओं में कार्य करने के अवसर प्रदान कराये जाने चाहिए।
(3) इन्जीनियरिंग और टैक्नालॉजी की शिक्षा-
देश के विभिन्न संस्थानों में शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों के लिए विभिन्न इन्जीनियरिंग तथा तकनीकी कल-कारखानों में उनके कार्य करने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(4) कानून की शिक्षा-
कानूनी शिक्षा प्रदान करने वाले कॉलेजों का उचित रूप से संगठन किया जाना चाहिए। कानून की शिक्षा केवल उन्हीं छात्रों को दी जानी चाहिए जिन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली हो। कानून विभाग में अध्यापकों की नियुक्तियां उसी आधार पर की जानी चाहिए जिस
(5) स्वास्थ्य शिक्षा-
जहाँ तक स्वास्थ्य शिक्षा का प्रश्न है प्रत्येक मेडिकल कॉलेज के साथ एक अस्पताल संलग्न होना चाहिए और किसी भी मेडिकल कॉलेज में 100 से अधिक छात्रों को प्रवेश आधार पर अन्य विभागों में की जा रही हों। नहीं दिया जाना चाहिए।
स्त्री शिक्षा से सम्बन्धित सुझाव
स्त्री शिक्षा के विषय में आयोग ने निम्न सुझाव प्रस्तुत किय
- विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाली स्त्रियों को हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए। पुरुषों को उनके साथ भद्रता का व्यवहार करना चाहिए।
- स्त्री शिक्षा की सुविधाओं को विकसित करना चाहिए।
- स्त्रियों की शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे वे सुमाता और सुग्रहिणी बन सकें। अ
- स्त्रियों के पाठ्यक्रम को उनके अनुकूल बनाया जाये तथा शिक्षा संस्थाओं को भी पाठ्यक्रम इस प्रकार रखना चाहिए जिससे स्त्रियां अपने आप को सामान्य समाज के अनुकूल ढाल सकें।
- स्त्रियों को गृह-अर्थशास्त्र तथा गृह प्रबन्ध की शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- अध्यापक तथा अध्यापिकाओं को एक समान कार्य के लिए एक समान ही वेतन दिया जाना चाहिए।
शिक्षा का माध्यम
- उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में, अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषा किया जाना चाहिए। को स्वीकार
- राष्ट्रभाषा को समृद्ध बनाने में, विभिन्न स्रोतों से आये हुए शब्दों का समन्वय किया जाना चाहिए।
- अन्तर्राष्ट्रीय टैक्नीकल तथा वैज्ञानिक पारिभाषिक शब्दों को आत्मसात करके अपनाया जाना चाहिए।
- विश्वविद्यालय तथा माध्यमिक स्तर पर छात्रों को मातृभाषा तथा अंग्रेजी भाषा का ज्ञान कराया जाना चाहिए।
- राष्ट्रभाषा के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाना चाहिए।
प्रशासन से सम्बन्धित सुझाव
- विश्वविद्यालय शिक्षा को संघ की समवर्ती सूची में रखा जाना चाहिए तथा विश्वविद्यालय शिक्षा का भार केन्द्र और राज्य सरकारों को उठाना चाहिए।
- एक केन्द्रीय अनुदान आयोग की स्थापना की जानी चाहिए जिसका कार्य विश्वविद्यालय को सहायता प्रदान करना हो।
- निर्धारित नियमों के अनुसार कॉलेजों को मान्यता प्रदान की जानी चाहिए।
- विश्वविद्यालय से सम्बन्धित कॉलेजों की संख्या सीमित रखी जानी चाहिए।
- कॉलेजों की प्रबन्ध समितियों का संगठन सुदृढ़ हो।
छात्र कल्याण से सम्बन्धित अन्य सुझाव
- निर्धन और प्रतिभाशाली छात्रों को ही छात्रवृत्तियां प्रदान की जानी चाहिए।
- विश्वविद्यालयों में प्रवेश योग्यता के आधार पर ही दिया जाना चाहिए।
- प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक चिकित्सालय की स्थापना की जानी चाहिए।
- विद्यालयों में छात्रावासों की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
- छात्र संघ को राजनीति से सम्भवतः दूर रखा जाये, परन्तु छात्र- प्रशासन को यथासम्भव महत्व दिया जाना चाहिए।
- विश्वविद्यालयों में छात्र कल्याण सलाहकार बोर्ड की स्थापना की जानी चाहिए।
वित्त से सम्बन्धित सुझाव
आयोग ने विश्वविद्यालयों के वित्त और अर्थ व्यवस्था के बारे में भी सुझाव प्रस्तुत किये जो निम्न है
- उच्च शिक्षा का सभी भार राज्य सरकारों को उठाना चाहिए।
- आय कर की धाराओं में परिवर्तन कर शिक्षा के कार्यों में दान करने वाले संस्थानों और व्यक्तियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- शिक्षा संस्थाओं को अतिरिक्त दान दिये जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे कि वे आयोग द्वारा सुझाये गये सुझावों को क्रियान्वित कर सकें।
- दस करोड़ रूपये की राशि प्रतिवर्ष विश्वविद्यालयों के विकास के लिए रखी जानी चाहिए।
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