तुर्कों के विरुद्ध राजपूतों के पराजय के कारण राजपूत यद्यपि वीर, पराक्रमी और बलिदानी होते थे तथापि तुकों के विरुद्ध उन्हें असफलता ही प्राप्त हुई। मुहम्मद गोरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज को पराजित कर दिया। इस पराजय ने उत्तर भारत में तुर्की की सत्ता की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। तुर्कों की इस सफलता और राजपूतों की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
(अ) सैनिक कारण
तुर्कों की सफलता और राजपूतों की असफलता के लिए निम्नलिखित प्रमुख सैनिक कारण उत्तरदायी थे
1.तुर्कों की उच्चकोटि की घुड़सवार सेना
राजपूतों की सेना से तुर्कों की घुड़सवार सेना उच्चकोटि की थी। घोड़ों की अधिक गतिशीलता का लाभ तुकों को मिला और वे राजपूतों को पराजित करने में सफल रहे।
2. तुर्की सेना स्थायी और निष्ठावान
राजपूत सैनिक अस्थायी थे और केवल युद्ध के समय भर्ती किये जाते थे अतः उनमें निष्ठा और स्वामीभक्ति किसी एक शासक के लिए नहीं होती थी। जबकि तुर्की सेना पेशेवर नहीं थी और वह अपने स्थायी स्वामी के प्रति निष्ठावान होती थी।
3. तुर्की सैनिकों की युद्ध नीति
राजपूतों में युद्ध प्रियता नहीं थी और उनके अन्दर आदर्शवाद विद्धमान था। वे शत्रुओं का पर्ण विनाश भी नहीं करते थे और भागते हुए सैनिकों पर हमला भी उनकी नीति में सम्मिलित नहीं था। उसके विपरीत तुर्क शत्रु से निर्णायक युद्ध की मानसिकता से युक्त रहते थे। वह यथार्थवादी और तिरेबाज भी थे। उनमें अपने एक ही जन्म में आस्था थी, अतः उसे सरलता से खोना नहीं चाहते थे। इसीलिए तुर्कों ने पलायन, नियोजन, कपटाचरण सबका समयानुकूल आश्रय लिया।
4.राजपूत सेनाओं की हाथियों पर निर्भरता
राजपूत सेनाओं द्वारा हाथियों का प्रयोग होता था। उनके द्वारा हाथियों को सेना के अग्रभाग के शत्रु पक्षकी अग्रिम पंक्तियों को रदि डालने के उद्देश्य से नियुक्त किया जाता था। प्रारम्भ में इस संव्यूहन से एक-दो बार तुर्क पराजित हो गये किन्तु जब उन्होंने हाथियों का कतार से दूर रहकर उन पर बाण वर्षा शुरू कर दी तो हाथियों ने अपनी ही सेना को रदिना प्रारम्भ किया। इस प्रक्रिया से राजपूत सेना में अफरा-तफरी मच जाती थी। इसके अतिरिक्त दीर्घकाय हाथियों की तुलना में तुर्की के तीव्रगामी फुर्तीले घोड़े इच्छित दिशा में घूमकर आक्रमण और बचाव भी कर सकते थे फिर भागते हुए शत्रु का पीछा भी हाथियों के द्वारा सफलतापूर्वक नहीं हो पाता था।
5. तुर्कों की श्रेष्ठ गुप्तचर व्यवस्था
तुर्कों की गुप्तचर व्यवस्था बहुत श्रेष्ठ थी। वहीं राजपूतों में इसका अभाव था। एक ओर जहाँ मुहम्मद गोरी के गुप्तचर जहाँ अपनी दक्षता से अपने स्वामी के लिए सफलतापूर्वक रास्ता बनाते गये, राजपूतों को भ्रमित, विलम्बित और असंतुलित बनाये रखने में सफल रहे, वहीं पृथ्वीराज चौहान के जासूसों ने अपने स्वामी की दाह स्थली तैयार कर दी। भारतीयों ने अनेक युद्धों में अपने लवर गुप्तचर के ही कारण पराजय के दर्शन किये हैं।
(ब) सामाजिक कारण
तुकों की विजय तथा राजपूतों के पराभव और पतन के लिएनिम्नलिखित सामाजिक कारण भी जिम्मेदार थे
1.वर्ण व्यवस्था
राजपूतकालीन समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र चार वर्गों में विभाजित था। जन्म के आधार पर ही वर्ण निर्धारित होते थे। इस कारण देश की सुरक्षा खतरे में पड़ने लगी थी, क्योंकि भारत पर विदेशी आक्रमण के समय सुरक्षा का दायित्व केवल क्षत्रियों को ही सौंपा गया। इस प्रकार देश की सुरक्षा का दायित्व भारत की जनसंख्या के एक-चौथाई भाग को ही करना पड़ा। जिसके निर्बल पड़ते ही भारत गुलामी और परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ गया।
2.जातियों में संघर्ष
राजपूत काल का समाज अनेक उपजातियों में विभक्त हो गया था। प्रत्येक जाति स्वयं को एक पूर्ण समाज समझती थी व अन्य जातियों के साथ खान-पान, विवाह और आचार-विचार सम्बन्धी कोई भी सम्बन्ध नहीं रखती थी। जाति प्रथा की जटिलता के कारण हिन्दू समाज में छुआ-छूत, ऊंच-नीच आदि भावनायें पनप चुकी थीं। स्पष्ट है कि राजपूतकालीन समाज में आपसी प्रेम व स्नेह का स्थान ईर्ष्या, वैर और घृणा ने ले लिया था। इसके विपरीत आक्रमणकारी मुसलमान अपने धर्म के प्रचार-प्रसार एवं प्रसिद्धि हेतु एक साथ अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर रहते थे।
(स) राजनीतिक कारण
राजपूतों की असफलता के लिए निम्नलिखित राजनीतिक कारण भी उत्तरदायी थे
1.राष्ट्रीयता की भावना का अभाव
तुर्क आक्रमण के समय तक देश में राष्ट्रीयता की भावना निर्बल हो गयी थी, क्योंकि भारत को राजनीतिक विश्रृंखलन जर्जर बना रहा था। व्यक्तिगत हित-अहित और स्वार्थ पूर्ति तथा आपसी झगड़ों के सम्मुख राष्ट्रीय हित की परवाह न तो प्रजा को थी और न शासकों को ही थी। राष्ट्रीय भावना और संगठन की कमी के कारण राजपूत तुर्कों के खिलाफ अपने शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन नहीं कर सकें
2. सीमान्त प्रदेशों की रक्षा के उपाय न करना
राजपूत काल के शासकों ने भारत के सीमान्त प्रदेशों की सुरक्षा हेतु कोई विशेष प्रबन्ध भी नहीं किया। यदि उन्होंने ऐसा किया होता तो विदेशी आक्रमणकारियों को भारत के प्रवेश द्वार पर ही रोका जा सकता था।
3. राजपूत शासकों में आपसी संघर्ष
राजपूत राजाओं की अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग ने भारतीय जनसाधारण को राजनीतिक जागरूकता से विमुख कर दिया था। प्रत्येक शासक अपने राज्य का अधिकाधिक विस्तार करने के लिए तत्पर रहता था। अतः प्रत्येक शासक अपने निकटवर्ती राज्यों पर आक्रमण करके उसे पराजित करने का प्रयास करता था। राजपूत शासक पारस्परिक संघर्षो में इतना व्यस्त रहे कि उन्होंने जनहित सम्बन्धी कार्यों और वैदेशिक नीति की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
(द) धार्मिक कारण
राजपूतों की पराजय में धार्मिक कारण भी समान रूप से उत्तरदायी थे। ये धार्मिक कारण निम्न थ
1.राजपूतों में धार्मिक अंधविश्वास
राजपूतकालीन समाज में धार्मिक अन्धविश्वास और पाखण्डवाद उत्पन्न हो गया था। भारतीय विदेशियों को अपवित्र मानकर उनसे दूर रहते थे। मध्य एशिया में होने वाले नवीन आविष्कारों से वे सर्वथा अनभिज्ञ थे। जनता तंत्र-मंत्र और जादू टोने में बहुत विश्वास रखती थी। उसे राजनीतिक विषयों में कोई भी रूचि नहीं थी। जैन एवं बौद्ध धर्म ने अहिंसा व्रत का प्रचार-प्रसार करके देश की अधिकांश जनता को अहिंसावादी बना दिया था।
2. तुर्कों का धार्मिक विश्वास
राजपूतों के विपरीत तुर्कों में अन्धविश्वास नहीं था। वे जीवन के सुख के लिए स्वयं ही प्रयत्न करने में विश्वास रखते थे। यद्यपि वे भी भाग्यवादी थे, किन्तु युद्ध में अल्लाह का फरमान देखते थे। उन्होंने भारत के खिलाफ युद्धों में ‘जेहाद’ का नारा लगाकर तथा शारीरिक कष्टों की उपेक्षा करके पराक्रम का प्रदर्शन किया। वह समझ चुके थे कि युद्ध में विजयी होकर ही भारत की प्रचुर धन-सम्पत्ति और विस्तृत उर्वरा भूमि का लाभ उठायेंगे। और यदि मर गये तो शहीदों में गिने जायेंगे।
भारत पर हूण आक्रमाण के विषय में आप क्या जानतें हैं संक्षेप में लिखिए?
इस प्रकार उपरोक्त कारणों ने जहाँ तुर्कों को भारत में सफलता प्रदान करायी और भारत में तुर्क सत्ता की स्थापना हुई वहीं दूसरी ओर राजपूतों की भयंकर पराजय। इस पराजय ने उनका हौसला व विश्वास तोड़ दिया वे लम्बे समय तक अपने आपको तुर्कों के विरुद्ध असहाय महसूस करते रहे।
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