प्रस्तावना – भारतभूमि योगियों, ऋषियों, मुनियों तथा त्यागियों की भूमि है, तभी तो हमारे देश की धरती का गौरव सर्वत्र हैं। महापुरुषों का उदय अपने देश को ही गौरान्वित नहीं करता, अपितु पूरे विश्व को अपने प्रकाश से प्रकाशवान कर देता है। देश को प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुँचाने वाले महापुरुषों में स्वामी विवेकानन्द का नाम बड़े आदर से लिया जाता है।
जन्म परिचय एवं शिक्षा
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 फरवरी सन् 1863 ई. को कलकत्ता में हुआ था। आपके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। आपके पिता श्री विश्वनाथ दत्त, पाश्चात्य सभ्यता तथा संस्कृति के पुजारी थे। आपकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी संस्कारवान महिला थी, जिनका प्रभाव किशोर नरेन्द्रनाथ दत्त पर पड़ा था।
स्वामी विवेकानन्द बचपन से ही प्रतिभाशाली तथा विवेकी थे। आपको पाँच वर्ष की आयु में अध्ययनार्थ ‘मेट्रोपोलिटन इन्स्टीट्यूट’ विद्यालय भेजा गया, लेकिन पढ़ाई में अधिक रुचि न होने के कारण बालक नरेन्द्रनाथ का अधिकतर समय खेलने-कूदने में ही बीतता था। सन् 1879 में आपने ‘जनरल असेम्बली कॉलेज’ में प्रवेश लिया।
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व्यक्तित्व की विशेषताएँ
स्वामी जी पर अपने पिता के पश्चिमी संस्कारों का प्रभाव न पड़कर अपनी माता के धार्मिक आचार-विचारों का प्रभाव पड़ा था। यही कारण था कि स्वामी जी अपने आरम्भिक जीवन से ही धार्मिक प्रवृत्ति में ढलते गए तथा धर्म के प्रति आश्वस्त होते रहे। उनका जिज्ञासु मन सदैव ही ईश्वरीय ज्ञान की खोज में लगा रहता था। जब उनकी जिज्ञासा का प्रवाह अति तीव्र हो गया, तो वे अपने अशांत मन की शान्ति के लिए तत्कालीन सन्त रामकृष्ण परमहंस की छत्रछाया में चले गये। परमहंस जी पहली दृष्टि में ही विवेकानन्द की योग्यता और कार्यक्षमता को पहचान गए तथा उनसे बोले, “तू कोई साधारण मानव नहीं है। ईश्वर ने तुझे समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए ही इस धरती पर भेजा है।” नरेन्द्रनाथ भी स्वामी परमहंस जी के उत्साहवर्द्धक भाषण से बहुत प्रभावित हुए तथा उनकी आज्ञा का पालन करना अपना परम कर्त्तव्य समझने लगे।
पिताजी की मृत्यु के पश्चात् विवेकानन्द घर-गृहस्थी को छोड़कर संन्यास लेना चाहते थे, किन्तु स्वामी परमहंस ने उन्हें समझाते हुए कहा, “नरेन्द्र। तू भी स्वार्थी मनुष्यों की भाँति केवल अपनी मुक्ति की कामना करते हुए संन्यास चाहता है। संसार तो दुखी इन्सानों से भरा पड़ा है। उनका दुख दूर करने यदि तेरे जैसा व्यक्ति नहीं जाएगा, तो और कौन जाएगा। इसलिए निराशा से बाहर निकलकर मानव जाति के कल्याण के बारे में सोचना तेरा कर्त्तव्य है।” इन उपदेशों का नरेन्द्र के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने मानव जाति को यह उपदेश दिया- “संन्यास का वास्तविक अर्थ मुक्त होकर लोक सेवा करना है। अपने ही मोक्ष की चिन्ता करने वाला संन्यासी स्वार्थी होता है। साधारण संन्यासियों की भाँति एकान्त में केवल चिन्तन करते रहना जीवन नष्ट करना है। ईश्वर के साक्षात दर्शन तो मानव सेवा द्वारा ही हो सकते हैं।” नरेन्द्रनाथ ने स्वामी परमहंस जी की मृत्यु के उपरान्त शास्त्रों का विधिवत् गहन अध्ययन किया तथा ज्ञानोपदेश तथा ज्ञान प्रचारार्थ अमेरिका, ब्रिटेन आदि अनेक देशों का भ्रमण भी किया। सन् 1881 में नरेन्द्रनाथ संन्यास ग्रहण करके स्वामी विवेकानन्द बन गए।
31 मई सन् 1883 में अमेरिका के शिकागो शहर में हुए सर्वधर्म सम्मेलन में आपने भी भाग लिया तथा अपनी अद्भुत विवेक क्षमता से सबको चकित कर दिया। 11 सितम्बर सन् 1883 को आरम्भ हुए इस सम्मेलन में जब आपने सभी धर्माचार्यो को भाइयों तथा बहनों कह कर सम्बोधित किया तो वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से आपका जोरदार स्वागत किया। वहाँ पर स्वामी जी ने कहा- “पूरे विश्व का एक ही धर्म है-मानव धर्म। इसके प्रतिनिधि विश्व में समय-समय पर परमहंस, रहीम, राम, क्राइस्ट आदि नामों से जाने जाते रहे हैं। जब ये ईश्वरीय दूत मानव धर्म के संदेशवाहक बनकर धरती पर अवतरित है, तो आज पूरा संसार अलग-अलग धर्मो में विभक्त कर्यो है? धर्म का उद्गम तो प्राणी मात्र की शान्ति के लिए हुआ है, परन्तु आज चारों ओर अशान्ति के बादल मँडरा रहे हैं। अतः आज विश्व शान्ति के लिए सभी को मिलकर मानव-धर्म स्थापना कर उसे सुदृढ़ करने का प्रयत्न करना चाहिए।”
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स्वामी जी के इन व्याख्यानों से पूरा पश्चिमी विश्व अचम्भित भी हुआ तथा प्रभावित भी हुआ। इसके पश्चात् अमेरिकी धर्म संस्थानों ने स्वामी जी को कई बार अपने यहाँ आमन्त्रित किया। परिणामस्वरूप वहाँ अनेक स्थानों पर वेदान्त प्रचारार्थ संस्थान भी खुलते गए। आज इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि अनेक शहरों में वेदान्त प्रचारार्थ संस्थान निर्मित हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने अनेक आध्यात्मिक तथा धार्मिक ग्रन्थों की रचना की है, जो आठ भागों में संकलित है। जीवन के अन्तिम क्षणों में आप ‘बेलूर मठ’ में रहने लगे थे। आपका देहावसान 5 जुलाई, 1908 को रात 9 बजे हुआ था। आज भी स्वामी जी के दिए उपदेश हर किसी को याद हैं- “भारत का जीवन उनकी आध्यात्मिकता में अन्तर्निहित है। बाकी समस्त प्रश्न इसी के साथ जुड़े हैं। भारत की मुक्ति सेवा तथा त्याग द्वारा ही सम्भव है। दरिद्रों की उपेक्षा करना राष्ट्रीय पाप है तथा यही पतन का कारण है। ईश्वर तो इन दलितों में ही बसता है इसलिए ईश्वर के बदले इन्हीं की सेवा करना हमारा राष्ट्रीय धर्म है।”
उपसंहार
स्वामी विवेकानन्द इस देश की वह ज्योति है जो अनन्तकाल तक भारतीयों को प्रकाशवान करती रहेगी। स्वामी जी कहे ये शब्द- ‘उठो, जागो और अपने लक्ष्य प्राप्ति से पहले मत रुको’, आज भी अकर्मण्य मानव को पुरुषार्थी बनाने में सक्षम है।