भारत में स्त्री-शिक्षा की ऐतिहासिक विवरण
प्राचीन भारत में सियों को समाज में गौरवमय स्थान प्राप्त था। पुरुषों के समान ही स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार प्राप्त था। लड़कों की भाँति लड़कियों का भी उपनयन संस्कार किया जाता था। प्राचीन युग में अनेक विदुषी महिलाएँ, जैसे- विश्वतारा, घोषा, लोप मुद्रा, अपाला, उर्वशी, गार्गी, मैत्रेयी आदि के नामों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद की कुछ संहिताओं की रचना तो विदुषी स्त्रियों द्वारा ही की गयी थी। बौद्धकाल में भी स्त्रियों के लिए शिक्षा प्रदान करने के लिए पृथक संघ स्थापित किये गये थे, यद्यपि कालांतर में स्त्री-शिक्षा में कुछ अवनति प्रारंभ हो गयी थी।
मुस्लिम युग में पर्दा प्रथा मुसलमानों के साथ-साथ हिंदू समाज में भी प्रचलित हो गयी। इसके साथ ही बाल-विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियाँ भी समाज में प्रवेश कर गयीं। परिणामतः मुस्लिम काल में स्त्री-शिक्षा की स्थिति में अत्यंत हास हुआ। अल्प आयु की कुछ बालिकाएँ बालकों के साथ मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करती थी। राज परिवारों की सियों के लिए घर पर ही शिक्षा दी जाती थी। हाँ, इस काल में भी दक्षिण भारत में स्त्री-शिक्षा की अच्छी व्यवस्था थी। 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में मद्रास, बम्बई तथा पंजाब में कुछ बालिकाएँ देशी पाठशालाओं में अथवा पर पर पढ़ती थी।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रारंभ में सी-शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की, परंतु ईसाई मिशनियों ने बालिकाओं की शिक्षा के लिए स्कूल खोले। इस क्षेत्र में किये गये व्यक्तिगत प्रयत्नों का भी महत्त्व है। डेविड हेयर नामक अंग्रेज ने 1820 ई0 में बालिकाओं के लिए एक स्कूल की स्थापना कलकता में की श्री ‘बेथ्यूब’ ने भी ऐसा ही एक और स्कूल कलकत्ता में स्थापित किया। राजा राममोहन राय एवं पं०ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक स्कूल स्थापित किये। 1854 ई0 से पूर्व मद्रास में बालिकाओं के लिए 256 स्कूल थे, जिनमें 8,000 लड़कियाँ पढ़ती थीं। बंबई में लड़कियों के 65 स्कूल थे, जिसमें 650 लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण करती थीं, बंगाल में 288 स्कूलों में 6869 लड़कियाँ पढ़ती थीं। संयुक्त प्रान्त में मिशनरी द्वारा संचालित 17 स्कूल बालिकाओं के लिए थे।
1854 ई0 में वुड घोषणा-पत्र में स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन देने का सुझाव दिया गया, परंतु शिक्षा विभाग में स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। 1882 ई० में जबकि 42 में एक लड़के की शिक्षा दी जा रही थी, बालिकाओं में यह अनुपात 858 में से केवल का था। 1882 ई० में भारतीय शिक्षा आयोग ने स्त्री-शिक्षा की पिछड़ी हुई दशा की ओर संकेत किया। आयोग ने स्त्री-शिक्षा के प्रसार के लिए अधिक धन व्यय करने एवं बालिकाओं की शिक्षा की सुविधाओं का विस्तार करने के संबंध में सुझाव दिये। 1902 ई० में महिलाओं के लिए 12 महाविद्यालय, 467 माध्यमिक विद्यालय तथा 5,628 प्राथमिक पाठशालाएँ थीं। बालिकाओं की उच्च शिक्षा पारसी, ईसाई एवं ऊँचे भारतीय कर्मचारियों तक ही सीमित थी।
20वीं शताब्दी के प्रारंभ में राष्ट्रीय आंदोलन का वेग बढ़ता जा रहा था। राष्ट्रीय जागरण के कारण अब बालिकाओं की शिक्षा के महत्व को समाज में समझा जाने लगा था। सरकार ने भी स्त्री शिक्षा के प्रसार के लिए सक्रिय कदम उठाये। 1903 ई0 में श्रीमती एनी बेसेण्ट ने बनारस में केंद्रीय हिंदू बालिका विद्यालय की स्थापना की। 1916 ई० में लेडी हार्डिंग चिकित्सा विद्यालय दिल्ली में स्वापित किया गया। महर्षि कर्वे द्वारा इसी वर्ष महिला विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी। 1921 ई0 में बालिकाओं के लिए 19 महाविद्यालय, 675 माध्यमिक विद्यालय एवं 21.956 पाठशालाएँ थी।
द्वैध शासन की स्थापना के पश्चात् स्त्री-शिक्षा के कार्य में संतोषजनक प्रगति हुई, इसके कई कारण थे। स्त्री-समाज में जागृति हो रही थी। राष्ट्रीय नेता सामाजिक सुधार एवं महिला वर्ग की उथति पर जोर दे रहे थे। 1921 ई. एवं 1937 ई. के नये विधान के अनुसार शिक्षा का प्रबंध भारतीय मंत्रियों के हाथ में आ गया। 1946-47 ईo में बालिकाओं के लिए कुल 28.196 शिक्षा संस्थाएँ थीं। इनमें 59 महाविद्यालय, 2,370 माध्यमिक विद्यालय तथा 21,479 प्राथमिक पाठशालाएँ तथा 4,288 व्यावसायिक शिक्षा संस्थाएं भी इन शिक्षा संस्थाओं के अतिरिक्त अनेक बालिकाएँ लड़कों के स्कूल एवं कॉलेजों में भी शिक्षा ग्रहण करती थीं। उस समय उच्च शिक्षा पाने वाली छात्राओं की कुछ संख्या 20,304 थी। माध्यमिक स्कूलों में यह संख्या 6,00,280 तथा प्राथमिक स्कूलों में 34,75,165 थी।
स्वतंत्र भारत में स्त्री-शिक्षा
स्वतंत्र भारत में नारी की सामाजिक स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहा है। आज वह जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समकक्ष द्रुतगति से आगे बढ़ रही है। नारी को समकक्षता प्रदान करते हुए भारतीय संविधान में घोषित किया गया है. “राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।” वस्तुतः नारी आज अपनी यथार्थ स्थिति के प्रति अत्यंत सजग है तथा नवीनता एवं परिवर्तन के प्रति यह अत्यंत सचेष्ट भी है। सच तो यह है कि स्वतंत्र भारत नारी जागरण का युग बन गया है। हम इस परिवर्तन से संबंधित तथ्यों एवं परिणामों का निम्न शीर्षकों के अंतर्गत वर्णन कर रहे हैं।
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