शुंग कौन थे? और शुंग किस जाति से सम्बन्धित थे? इस विषय में निश्चित जानकारी का अभाव है। कुछ विद्वानों ने शुंगो को ब्राह्मण, कुछ ने पारसीक तथा कुछ ने क्षत्रिय बताया है। दिव्यावदान में पुष्यमित्र को मौर्य वंशीय बताया गया जो तर्क संगत नहीं है क्योंकि यदि यह मौर्य वंश का ही होता, तो उसे साम्राज्य का विनाशक नहीं कहा जाता। कुछ विद्वानों की धारणा है कि शुंग या तो ईरानी थे या उनका सम्बन्ध ईरान के साथ था। ऐसा इस आधार पर माना जाता है कि शुंगवंशीय शासकों के नामों से मित्र और ईरान में प्रचलित मित्र (सूर्य) की पूजा में सम्बन्ध था।
परन्तु इस तर्क में भी दम नहीं है। इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल के विचारानुसार पुष्यमित्र मौर्य वंश के राजपुरोहित का पुत्र था। अशोक की धार्मिक नीति से क्षुब्ध होकर राजपुरोहित एवं उनके वंशज धार्मिक क्रियाकलाप में अलग हो गए एवं सेना में नौकरी कर ली। इसी क्रम में पुष्यमित्र भी सेनापति बन गया। अतः शुंग ब्राह्मण थे। जायसवाल की यह दलील सही हो या नहीं, परन्तु अन्य उपलब्ध प्रमाण भी शुंगी को ब्राह्मण ही बताते हैं। पाणिनि उन्हें भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मण बताता है। कालिदास ने मालविकाग्निमित्रम में पुष्यमित्र के पुत्र को किवंशीय और कश्यप गोत्र से सम्बद्ध माना है। तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ भी शुंगों को ब्राह्मण मानता है तथा पुष्यमित को ब्राह्मण राजा कहता है। इसके अतिरिक्त रोगों की वैदिक धर्म के प्रति अनुरक्ति एवं बौद्धों की शुंगों के प्रति विरक्ति देखकर भी यह अंदाज लगाया जा सकता है कि शुंग ब्राह्मण ही थे, जिन्होंने बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए वैदिक या ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान किया।
पुष्यमित्र शुंग
अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ के काल में ही मौर्य साम्राज्य के कई प्रान्त अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर चुके थे। सत्ता के हस्तान्तरण एवं केन्द्रीय शक्ति के कमजोर पड़ जाने के कारण साम्राज्य के विभिन्न भाग स्वतन्त्र हो रहे थे। अतः, नए शासक के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह थी कि किस प्रकार वह साम्राज्य के विभिन्न भागों पर अपना नियन्त्रण स्थापित करे। पुष्यमित्र साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र पर अधिकार कायम करते हुए इस दिशा में प्रयत्नशील हो गया। कोशल, वत्स और अवन्ति पर पुनः उसने अपनी पकड़ मजबूत की अवन्ति राज्य में स्थित विदिशा नगर (पूर्वी मालवा, मध्यप्रदेश में बेसनगर) में साम्राज्य की दूसरी राजधानी स्थापित की गई, जिससे कि दूरस्य प्रदेशों पर सुगमतापूर्वक नियन्त्रण रखा जा सके। विदिशा में अग्निमित्र को उपराजा के रूप में नियुक्त किया गया। अयोध्या-अभिलेख से विदित होता है कि राजा का एक प्रतिनिधि कोशल में भी नियुक्त किया गया। सम्भवतः नर्मदा के तटवर्ती प्रदेश में भी एक उपराजा बहाल किया गया। इस प्रकार, साम्राज्य के विभिन्न भागों पर अपने प्रतिनिधियों को नियुक्त कर पुष्यमित्र ने केन्द्रीय नियन्त्रण स्थापित किया। वह स्वयं पाटलिपुत्र से शासन करता था।
विदर्भ युद्ध-
पुष्यमित्र शुंग के शासन काल की सर्वप्रमुख घटना विदर्भ युद्ध की है। विदर्भ के स्वायत्त राज्य की स्थापना मौर्य साम्राज्य के अवशेष पर ही हुई थी। अन्तिम मौर्य शासक वृहद्रय के समय से ही मगध दरबार में दो गुट शक्तिशाली थे- मन्त्री या अमात्य वर्ग और सेनापति वर्ग यज्ञसेन मंत्रिगुट के समर्थन से विदर्भ का शासक बन बैठा। बाद में बृहद्रथ की हत्या के पश्चात् उसने अपने आपको स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। सेनापति (पुष्यमित्र) और यज्ञसेन में शत्रुता उन गई। मालविकाग्निमित्रम् से पुष्यमित्र और यज्ञसेन के बीच हुए संघर्ष का विवरण प्राप्त होता है। कहा जाता है कि यज्ञसेन का चचेरा भाई माधवसेन पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र का मित्र था। जब माघवसेन अग्निमित्र से मिलने विदिशा की तरफ जा रहा था, तब यज्ञसेन के एक सैनिक ने उसे गिरफ्तार कर लिया। अग्निमित्र इस घटना से कुपित हो उठा। उसने माधवसेन को रिहा करने की माँग की, परन्तु उसके बदले में यज्ञसेन ने शुंगों को कैद में पड़े अपने साले को छोड़ने की मांग रखी। अग्निमित्र ने उसके उत्तर में वीरसेन को विदर्भ पर आक्रमण करने का आदेश दिया। युद्ध में यज्ञसेन की पराजय हुई। माधवसेन को रिहा कर दिया गया। विदर्भ का राज्य माधवसेन और यज्ञसेन में विभक्त हो गया। दोनों राज्यों की सीमा वरदा (वरधा) नदी निश्चित की गई। दोनों शासकों ने पुष्यमित्र को अपना अधिपति स्वीकार कर लिया। इससे पुष्यमित्र की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।
यवन आक्रमण
पुष्यमित्र शुंग के शासन काल की दूसरी महत्वपूर्ण घटना भारत पर यवनों के आक्रमण की है। यवनों के आक्रमण के विषय में जानकारी महाभारत, गार्गी संहिता तथा मालविकाग्निमित्र से मिलती है। गार्गी संहिता से पता चलता है कि यवनों ने साकेत, पांचाल भी मथुरा (उत्तर प्रदेश) पर विजय हासिल कर ली। पतंजलि के महाभाष्य और कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् में भी यवन आक्रमण का उल्लेख हुआ है। पांचाल और मित्र शासकों के सिक्को तथा यूनानी इतिहासकार स्ट्रैबो के विवरण से भी यूनानी आक्रमण की पुष्टि होती है। कालिदास के अनुसार, जब वसुमित्र (पुष्यमित्र का पौत्र और अग्निमित्र का पुत्र) अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की रक्षा के लिए घूम रहा था, तभी सिन्धु नदी के किनारे यवनों ने उसे पकड़ लिया। फलतः युद्ध अनिवार्य हो गया। वसुमित्र ने यवनों को परास्त कर यज्ञ का अश्व वापस लिया। यवन आक्रमण सम्भवतः डेमेट्रिओस के नेतृत्व में हुआ था, यद्यपि कुछ विद्वान मानते हैं कि यवनों का नेता मिनांडर या मिलिन्द था। यह पुष्यमित्र की पवनों से दूसरी मुठभेड़ थी। अधिक सम्भावना है दमित्र प्रथम ने ही पुष्यमित्र के समय में दोनों बार भारत पर आक्रमण किया। इस विजय के उपलक्ष्य में शुंग शासक ने ‘अश्वमेध यज्ञ किया। जो भी हो, शुंगों ने वचनों को मगध तक बढ़ने से सफलतापूर्वक एक दि
अश्वमेध यज्ञ की घोषणा
पुष्यमित्र ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में दो अश्वमेध यज्ञ किए। सम्भवतः पहला अश्वमेधयज्ञ मगध का शासक बनने के बाद तथा दूसरा यवनों पर विजय के उपलक्ष्य में अपनी सम्पूर्ण विजयों के समापन के बाद किया।
साम्राज्य विस्तार
विदर्भ तथा यवनों पर विजय पाने के अतिरिक्त भारत के अन्य भागों को भी विजित किया। दिव्यावदान तथा तारानाथ के विवरणों से पता चलता है कि पुष्यमित्र ने पंजाब में जालन्धर तथा स्यालकोट पर भी विजय प्राप्त की थी। ये दोनों नगर (जालंधर और साकल (स्यालकोट) उसके साम्राज्य के अन्तर्गत थे। बी.ए. स्मिथ का विचार था कि पुष्यमित्र को कलिंग के शासक खारवेल का भी सामना करना पड़ा था, जिसने मगध पर आक्रमण किया था, परन्तु आधुनिक विद्वान इस मत को स्वीकार नहीं करते। प्रो. एच.सी. राय चौधरी के अनुसार किसी भी हालत में खारवेल पुष्यमित्र का समकालीन नहीं हो सकता। खारवेल की तिथि प्रथम शताब्दी ई.पू. मानी गई है। साथ ही खारवेल के अभिलेख में उल्लिखित मगधराज बहसतिनित्र पुष्यमित्र से भिन्न था। रेप्सन महोदय की धारणा थी कि पुष्यमित्र के समय में आन्ध्रों ने उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया, परन्तु यह धारणा निराधार सिद्ध हो चुकी है। मेरुतुंग के विवरण से भी स्पष्ट होता है कि पुष्यमित्र का आवंति (उज्जयिनी) पर अधिकार था। अपने 36 वर्षों के शासन की अवधि में पुष्यमित्र ने बिखरते मौर्य साम्राज्य को संगठित कर शुंग साम्राज्य का रूप दे दिया। उसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य था विदेशी आक्रमणकारियों पर अंकुश लगाना। उसने अपने साम्राज्य की सीमा दक्षिण में नर्मदा नदी तक बढ़ा ली तथा पंजाब के महत्वपूर्ण भागों पर अधिकार कायम कर लिया।
मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश तक इसका राज्य विस्तृत था मगध, कोशल, शाकल उसके अधीन थे। मालवा और बरार भी पुष्यमित्र के नियन्त्रण में थे। इस विस्तृत राज्य पर सफलतापूर्वक नियन्त्रण रखने के लिए ही दूसरी राजधानी विदिशा में स्थापित की गई अनेक विद्वान इस तर्क को स्वीकार नहीं करते हैं कि विदिशा पुष्यमित्र शुंग की राजधानी थी। इसका कारण यह है कि अगर विदिशा राजधानी रही होती तो पुष्यमित्र अग्निमित्र को विदिशा में पत्र लिखकर सुमित्र द्वारा यवनों पर विजय की सूचना नहीं देता। विदिशा एक प्रमुख नगरी थी जहाँ अग्निमित्र उपराजी अथवा प्रान्तीय गवर्नर के रूप में रहता था।
पुष्पमित्र शुंग की धार्मिक नीति
पुष्यमित्र धार्मिक दृष्टि से ब्राह्मण मत का पोषक था। उसका काल ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल था। मौर्यकाल में ब्रह्मण धर्म की जो क्षति हुई थी, पुष्यमित्र ने न केवल उसको पूरा करने का प्रयत्न किया अपितु ब्राह्मण धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करने का प्रयास किया पूजा, यज्ञ एवं बति की प्रथा, जिसे अशोक ने बंद करवा दिया था, पुनर्जीवित हो उठी। स्वयं पुष्यमित्र ने बरार-युद्ध (विदर्भ) एवं यवनों पर विजय के उपलक्ष्य में अश्वमेध यज्ञ करवाए। यह सम्भावना भी व्यक्त की गई है कि पुष्यमित्र ने पहला अश्वमेघ यज्ञ मगध का शासक बनने के बाद और दूसरा यवनों पर विजय के उपलब्ध में किया। अश्वमेघ यज्ञ कराने का पहला अभिलेखीय प्रमाण घनदेव के अयोध्या अभिलेख से ही मिलता है। एक यश के दौरान पतंजलि ने पुरोहित का काम किया।
बौद्ध ग्रन्थों में पुष्यमित्र का उल्लेख बौद्ध धर्म के उत्पीड़क के रूप में हुआ है। उसे बौद्ध धर्म का कट्टर विरोधी तथा संहारक बताया गया है। दिव्यावदान के अनुसार उसने बौद्ध विहारों को नष्ट करवाया और भिक्षुओं की हत्याएँ करवायी। साकल का प्रसिद्ध बौद्ध विहार उसकी आशा से नष्ट कर दिया गया। तारानाथ भी पुष्यमित्र द्वारा बौद्धों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन करता है परन्तु ये वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण है। स्वयं बौद्ध ग्रन्थ यह स्वीकार करते हैं कि “उसका धर्मविरोध किसी धार्मिक
भावना के कारण नहीं, वरन व्यक्तिगत ऐश्वर्य के निमित्त ही अधिक था।” उदाहरणस्वरूप, बौद्ध मंत्रियों को नौकरी से अलग नहीं किया गया। महावंश से ज्ञात होता है कि शुंग काल में अनेक बौद्ध विहार अच्छी अवस्था में थे, जिनमें हजारों भिक्षु निवास करते थे। इतना ही नहीं, भरहुत के प्रसिद्ध स्तूप का निर्माण एवं साँची, बोधगया स्तूप की वेदिकाएँ भी शुंगकाल में ही बनीं। यह सम्भावना है। कि भरहुत और सांची स्तूप का निर्माण पुष्यमित्र के बाद हुआ हो। अतः शुंगों पर धार्मिक कट्टरपन का आरोप लगाना उचित नहीं है। उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में बौद्धों पर जो भी अत्याचार हुए, वे इसलिए कि बौद्धभिक्षु राजनैतिक षडयन्त्रों में भाग ले रहे थे एवं यूनानियों की सहायता कर रहे थे। राज्य की सुरक्षा के लिए उनकी गतिविधियों पर नियन्त्रण आवश्यक था। मगध या मध्यभारत में बौद्धों पर अत्याचार के प्रमाण नहीं मिलते।
उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि पुष्पमित्र शुंग एक योग्य शासक था।
पुण्यमित्र के उत्तराधिकारी
अग्नि मित्र पुण्य मित्र के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र अग्नि मित्र शुंग वंश का शासक बना इसके विषय में अधिक जानकारी का अभाव है। इसने कुल आठ वर्ष शासन किया। वसुज्येष्ठ अग्निमित्र के बाद उसका भाई बज्येष्ठ गद्दी पर बैठा उसका एक नाम ज्येष्ठमित्र भी मिलता है। इस शासक के विषय में भी अधिक जानकारी नहीं मिलती है। इसने सात वर्षों तक शासन किया।
वसुमित्र वसुज्येष्ठ के बाद वसुमित्र शासक बना। पुराणों के अनुसार यह वसुज्येष्ठ का पुत्र था वसुमित्र ने यवन आक्रमणकारियों को सिन्धु नदी के तट पर पराजित किया था।
पृथ्वीराज तृतीय (चाहमान) कौन था?
अन्य शासक वसुमित्र के बाद आन्ध्रक, पुलिन्दक, घोष, वज्रमित्र तथा भागवत हुए। इनमें से भागवत् एक शक्तिशाली शासक सिद्ध हुआ। उसने 32 वर्ष तक शासन किया। शुंग वंश का अन्तिम शासक देवभूति (देवभूमि था। इसके अमात्य वसुदेव ने इसकी हत्याकार वंश का अन्त कर दिया और कण्ववंश की स्थापना की।
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