शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों की विवेचना शिक्षा एक संयोजक तथा नैतिक क्रिया है का विचार है कि जीविकोपार्जन का प्रश्न ही मानव जीवन का सबसे बड़ा प्रश्न है। इस प्रश्न के समुचित हल पर ही जीवन का सुखी और उन्नत होना निर्भर है। इसलिए शिक्षा मनुष्य को जीवन यापन के योग्य बनाती है। शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य अथवा कार्य निम्नलिखित है:
शिक्षा के कार्य
(1) समाज का बौद्धिक
विकास इस उद्देश्य के निम्नलिखित दो पहलू है
(क) शिक्षा के लिए शिक्षा
“कमेनियस आदि कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि शिक्षा का उद्देश्य शिक्षा ही होना चाहिए। जिस शिक्षा द्वारा मनुष्य ज्ञान संचय न कर सके यह निरर्थक है। इन लोगों के विचार से ज्ञान प्राप्त करना और प्राप्त किए हुए ज्ञान को दूसरों तक पहुँचाना यही शिक्षा का मुख्य कार्य है।
(ख) बौद्धिक विकास-
बुद्धि के महत्व से प्रभावित होकर कुछ शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को कोरे ज्ञानार्जन के स्थान पर मानसिक विकास का उद्देश्य अधिक उपयोगी माना है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की विचार-शक्ति को पुष्ट बनाना तथा उसकी बुद्धि को तीव्रता व क्रियात्मकता प्रदान करना है। शिक्षा का यह उद्देश्य कोरे ज्ञानार्जन की अपेक्षा, अधिक मान्य है क्योंकि मानसिक विकास होने पर मनुष्य अपनी शिक्षा तथा ज्ञान का समुचित उपयोग कर सकता है। इस प्रकार से मनुष्य समाज का उपयोगी सदस्य बन सकता है।
(2) शारीरिक विकास
स्वस्थ्य शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क वास करता है। अस्वस्थ शरीर मानसिक व्याधियों का घर है। शक्तिशाली शिक्षा की सार्थकता इसी में है वह शिक्षार्थियों का शारीरिक विकास करे। प्लेटो ने शारीरिक शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया है और रूसो भी शारीरिक विकास के पक्ष में था।
(3) सांस्कृतिक विकास-
कुछ लोगों का विचार है कि शिक्षा मनुष्य को सुसंस्कृत बनाती है। अच्छे संस्कारों के प्रभाव से व्यक्ति का स्वभाव, रहन-सहन और व्यवहार भी एक विशेष रूप ग्रहण कर लेते हैं। बालक पर जितने अच्छे संस्कार पड़ते हैं उसका जीवन भी उतना ही अधिक तेजस्वी और दिव्य बनता है। शिक्षा प्राचीन व्यवस्था एवं सांस्कृतिक परम्परा को सुरक्षित रखती है और उसे पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित करती है। बालक की संस्कृति के विभिन्न उपादानों से सम्बन्धित शिक्षा विद्यालय में अवश्व और प्रमुख रूप से दी जानी चाहिए तभी राष्ट्र की सांस्कृतिक परम्परा और जातिगत विशिष्टताओं की सुरक्षा हो सकती है। जे. एस. मिल का कथन है- “शिक्षा संस्कृति है, जो प्रत्येक पीढ़ी सोद्देश्यपूर्वक उन्हें देती है, जो इसके उत्तराधिकारी होते हैं।
(4) चरित्र निर्माण
अनेक शिक्षाशास्त्रियों का कथन है कि शिक्षा बालक में सच्चरित्रता का विकास करती है। चरित्र-निर्माण के कारण ही मनुष्य पशु से ऊँचा समझा जाता है। प्राचीन तथा अर्वाचीन, सभी कालों में चरित्र की यह महत्ता अक्षुण्ण रही है। शिक्षा के क्षेत्र में चरित्र की अपरिसीम महत्ता प्रशंसा करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। वृल्जे के कथनानुसार, “संसार, में न तो धन का प्रभुत्व है और न बुद्धि का, प्रभुत्व होता है, चरित्र और बुद्धि के साथ पवित्रता का। बारतोल (लगभग 1500 ई.) ने कहा – “चरित्र ही वह हीरा है जो पत्थरों से अधिक मूल्यवान है। बाल्तेयर के अनुसार- “सब धर्म परस्पर भिन्न हैं, क्योंकि उनका निर्माता मनुष्य है, किन्तु चरित्र की महत्ता सर्वत्र एक समान है, क्योंकि चरित्र ईश्वर बनाता है। इस प्रकार शिक्षा चरित्र के निर्माण द्वारा सामाजिक नियंत्रण की स्थापना को सुगम बनाती है।
(5) जीवन की पूर्णता
प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य जीवन की पूर्णता प्रदान करना है। इस उद्देश्य का तात्पर्य यह है- “मनुष्य की शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उसके जीवन के सभी अंगों का विकास कर सके, अर्थात् उसके जीवन को पूर्णता की ओर ले जाये।
(6) शक्तियों का सन्तुलित विकास
कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि शिक्षा द्वारा व्यक्तिगत शक्तियों का संतुलित विकास होता है। इस उद्देश्य के समर्थकों के अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे समस्त प्रवृत्तियाँ समरूप में विकसित हो जाएँ अर्थात् केवल शारीरिक शक्ति, व्यवसायिक दक्षता अथवा सौन्दर्यानुभूति की शक्ति ही विकसित न हो वरन् समस्त शक्तियाँ समान रूप में विकसित हो। इस प्रकार की शिक्षा से एकांगीपन दूर हो जाता है और बालकों में सन्तुलित व्यक्तित्व का विकास होता है।
(7) व्यक्तित्व का विकास
शिक्षाशास्त्रियों की यह दृढ़ धारणा है कि व्यक्ति के उत्थान से समाज का उत्थान स्वतः होता है। अतः व्यक्ति की शिक्षा सामाजिक तथ्यों को सामने रखकर होनी चाहिए, अपितु स्वतंत्र ढंग से वैयक्तिक विकास को प्रोत्साहन मिलना चाहिए।
(8) परिस्थिति के अनुकूल विकास करना-
कुछ शिक्षा विशारदों का यह कहना है कि शिक्षा मनुष्य को अपनी परिस्थिति के अनुकूल बना लेने की क्षमता प्रदान करती है। अतः शिक्षा जो मानव निर्माण की प्रमुख सहायका है, विशेषतः इस उद्देश्य को लेकर दी जानी चाहिए कि मनुष्य अपने आपको परिस्थितियों के अनुकूल कर देने के लिए सक्षम हो जाय अथवा परिस्थितियों को स्वयं अपनी प्रकृति के अनुरूप परिवर्तित कर ले।
(9) अवकाश का उत्तम उपयोग करना-
कुछ शिक्षाविद् अवकाश के समय का उत्तम उपयोग करना ही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानते हैं। उनकी दृष्टि से शिक्षा इस उद्देश्य से दी जानी चाहिए कि मनुष्य अपने बचे हुए समय का अपव्यय न करे, उस समय भी वह सुरुचिपूर्ण कार्यों में संलग्न रहे। शिक्षा खाली समय काटने का एक सशक्त माध्यम है।
(10) आत्मबोध-
आत्मबोध को ही कुछ लोगों ने शिक्षा के मुख्य उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया है। प्राचीनकाल में भारत में शिक्षा का यहाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य था। आत्म-बोध का अर्थ- प्रकृति, पुरुष और ईश्वर को समझना है। आत्म-बोध से मनुष्य को सुख, शान्ति और आनन्द की उपलब्धि होती है। अतः आत्मबोध का उद्देश्य अत्यन्त ही उच्च और महान् उद्देश्य है।
(11) स्तरीकरण की नई व्याख्या एवं मापदण्ड की प्रस्तुति-
शिक्षा परिवर्तनशील समाज मैं संस्तरण की नवीन व्याख्या और मापदण्ड प्रस्तुत करती है। आदिम/बंद समाजों में प्रस्थिति-निर्धारण के जन्मजात आधार हैं, किन्तु खुले/प्रगतिशील समाजों में जहाँ नवीन मूल्यों का उदय हो रहा है, शिक्षा भी प्रस्थिति-निर्धारण का आधार है। आज भारत में ही अर्जित प्रस्थिति महत्वपूर्ण मानी जाने लगी है। स्तरीकरण के जन्मजात आधारों के संकटापन्न होने की दशा में संक्रमण की जो स्थिति पैदा हो गई है, उसका समाधान खोज कर शिक्षा ने सामाजिक नियंत्रण की एक गम्भीर समस्या को हल कर दिया है।
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(12) अभौतिक संस्कृति में आने वाले तनावों का हल खोजना-
अभौतिक संस्कृति मानव द्वारा निर्मित वह सब कुछ है, जिसे हम देख व स्पर्श नहीं कर सकते हैं, यथा-परम्पराएँ, जनरीतियाँ, धर्म, मानदण्ड आदि। एक ओर तो समाज में पुरानी परम्पराए अपने अस्तित्व को बनाए रखने हेतु नवीन विचारों से जूझती रहती हैं, दूसरी ओर इससे सामाजिक ढाँचा/संरचना भी डगमगा जाता है। शिक्षा इस स्थिति में अपने विवेक व तर्कों को प्रयुक्त करती है, जिससे हम पुरानी परम्पराओं और व्यवहार पद्धतियों के तर्कपूर्ण उपयोगी पक्ष को चुन लेते हैं तथा अतर्कपूर्ण अनुपयोगी पक्षों को अनुपयुक्त समझ लेते हैं। शिक्षा आधुनिक विचारों के अतार्किक तत्वों का बहिष्कार करने की प्रेरणा भी देती है और उनके तार्किक तत्वों को परम्परा से जोड़ने का प्रयास भी शिक्षित समुदाय परम्परा को नवीनता से तार्किक समायोजन कर लेते हैं।
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