शिक्षा और संस्कृति के सम्बन्ध सामान्यतः बालक का जन्म दोहरी विरासत के साथ होता है। जैवकीय और सांस्कृति अपनी जैवकीय विरासत से उसे अपनी शरीरिक विशेषताएं मानसिक क्षमता और आधारभूत आवश्यकताएँ प्राप्त होती है। उसे अपनी सांस्कृतिक विरासत, उस समाज से प्राप्त होती है, जिसमें उसका जन्म और पालन होषण होता है। बालक की शिक्षा में उसकी सांस्कृतिक विरासत का पतन ही महत्वपूर्ण स्थान है जितना की उसकी जैवकीय विरासत था। इस प्रकार प्रकाश डालते. हुए बेस्कों ने लिखा है
“यद्यपि सामजशास्त्रियों की खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि संस्कृति जन्मजात न होकर सीखी जाती है फिर भी इसके सीखने को इतना अधिक महत्व दिया जाता है कि उसकी अवहेलना की जा सकती है
उपरोक्त कथन का विवेचन करने से पूर्व संस्कृति के अर्थ, अंगों आदि का थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त कर लेना आवश्यक है अतः हम अग्रलिखित पंक्तियों में इन पर विचार कर रहे हैं
संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा
यद्यपि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने संस्कृति शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ लगाये हैं परन्तु सामान्य रूप से संस्कृति शब्द का तात्पर्य मानव निर्मित उस भावात्मक संगठन या व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत सामाजिक रीति-रिवाज, रहन-सहन, आचार-विचार, वेश-भूषा, कला, विज्ञान, मशीन उपकरण, राजनीतिक एवं धार्मिक व्यवस्था तथा अन्य सभी वस्तुएँ आती है। जो मनुष्यों की आवश्यकताओं को पूर्ण करती है। दूसरे शब्दों में समाज में रहने के सम्पूर्ण ढंग को हम संस्कृति कहते हैं । सदरलैण्ड के कथनानुसार “संस्कृति में वे सभी वस्तुएँ निहित है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जा सकती है ।
संस्कृति शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने के दृष्टि से अनेकों विद्वानों ने इस शब्द को परिभाषित किया है। हम यहाँ पर इसकी कुछ चुनी हुई परिभाषाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
(1) रोसेक “किसी विशेष समय तक तथा एक स्थान में निवास करने वाले व्यक्तियों के जीवन बिताने के सामूहिक ढंग को संस्कृति कहते हैं।
(2) मैकाइवर “संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य धर्म, मनोरंजन में पाये जाने वाले हमारे विचार एवं रहन-सहन के तौर-तरीके में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति हैं”
(3) टाइलर-“संस्कृति यह जटिल पूर्णता है जिसमें ज्ञान, विश्वास कला नैतिकता, नियम रीति-रिवाज तथा अन्य आदतें एवं योग्यताएँ जिन्हें मनुष्य समाज के सदस्य के रूप में प्राप्त कराता है, सम्मिलित है।”
(4) वीरस्टड “संस्कृति यह जटिल पूर्णता है जिसमें यह सब निहित है जो हम समाज के रूप में सोचते करते और रखते हैं।”
संस्कृति उपकरण व सांस्कृतिक संकुल
प्रायः संस्कृति की सबसे छोटी और सरल इकाई को उपकरण कहते हैं। यह संस्कृति का लघुत्तम भाग है जो पुनः विभाजित नहीं किया जा सकता है। उपकरण भौतिक और अभौतिक- दोनों प्रकार के हो सकते हैं। हम भौतिक और अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत भौतिक और अभौतिक उपकरणों का उल्लेख कर चुके हैं यहां इतना कह देना आवश्यक है कि प्रत्येक भौतिक उपकरण के साथ कोई न कोई अभौतिक उपकरण अवश्य सम्बद्ध रहता है। विभिन्न संस्कृतियों के विभिन्न उपकरण होते हैं। इसलिए उनमें विभिन्नता पाई जाती है।
शिक्षा एवं संस्कृति
शिक्षा पर संस्कृति का प्रभाव-
शिक्षा और संस्कृति में घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाज की जैसी संस्कृति होती है उसी के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। दूसरे शब्दों में शिक्षा की रूपरेखा का निर्माण समाज की संस्कृति के अनुसार होता है। उदाहरण स्वरूप यदि समाज की संस्कृति में धर्म और आध्यात्मिक भावना प्रदान होती है। तो शिक्षा शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति पर बल देती है। इसके विपरीत यदि समाज की संस्कृति का स्वरूप भौतिक होता है तो शिक्षा द्वारा भौतिक उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास किया जाता है। इसके अतिरिक्त जिस समाज की कोई संस्कृति नहीं होती उसकी शिक्षा का स्वरूप भी अनिश्चित होता है। स्पष्ट है कि शिक्षा संस्कृति से प्रभावित होती है। शिक्षा के सभी अंगों, जैसे उद्देश्य, पाठ्यक्रम, अनुशासन आदि पर संस्कृति का प्रभाव पड़ता है। इस प्रभाव की चर्चा अधोलिखित रूप से की जाती है।
(1) शिक्षा के उद्देश्यों पर संस्कृति का प्रभाव-
शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्य समाज के खान पान, रहन-सहन, आचार-विचार, दर्शनिक धाराओं, विश्वासों, आवश्यकताओं के आधार पर निर्मित होते हैं। इस प्रकार समाज की संस्कृति के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य का निर्धारण होता है।
(2) शिक्षा के पाठ्यक्रम पर संस्कृति का प्रभाव-
शिक्षा के पाठ्यक्रम को भी संस्कृति प्रभावित करती है। चूंकि समाज की संस्कृति शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण करती है और पाठ्यक्रम उन उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन है। अतः पाठ्यक्रम समाज की संस्कृति पर आधारित होता है। समाज के विचार, विश्वास, मूल्य आदि को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण होता है।
(3) शिक्षण विधि पर संस्कृति का प्रभाव
शिक्षण विधि का तात्पर्य अध्यापक एवं छात्र के परस्पर सम्बन्ध की प्रक्रिया से है। दोनों के बीच के सम्बन्ध समाज की विचारधाओं के अनुसार बदलते हैं। अतएव शिक्षण प्रक्रिया अथवा विधि भी बदलती है। उदाहरण स्वरूप शिक्षा में पहले शिक्षण का स्थान प्रमुख था और बालक का कोई महत्व नहीं था। उस समय शिक्षक छात्र सम्बन्ध की कोई शिकायत नहीं थी। शिक्षण विधि के अनुशासन, आदेश, पालन, अनुकरण तथा रटने की क्रिया को महत्व दिया जाता है। छात्रों की रूचि का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है। आज की शिक्षा बालक की ओर उसकी रूचि पर विशेष ध्यान देती है और उसे सामाजिक जीवन के लिए तैयार करती है। अतः आज की शिक्षण विधि में, सामाजिक क्रियाओं सामूहिक शिक्षण तथा व्यक्तिगत प्रयासों पर बल दिया जाता है और उसी शिक्षण विधि को उत्तम समझा जाता है जो बालकों के सामुदायिक जीवन के विकास में सहायक हो स्पष्ट है कि समाज की संस्कृति के अनुसार शिक्षण विधियों में परिवर्तन होता है।
(4) अनुशासन पर संस्कृति का प्रभाव
समाज के विचार, रहन-सहन, फैशन, मूल्य, भौतिक सम्पन्नता आदि का अनुशासन पर प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में अनुशासन पर समाज की संस्कृति की छाप पड़ती है। आज समाज में जो प्रवृत्तियाँ फैली हुई हैं उनका अनुशासन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है यह सबकों विदित है।
(5) अध्यापक पर संस्कृति का प्रभाव
अध्यापक समाज की संस्कृति को अपनाकर चलता है। इस प्रकार वह स्वयं संस्कृति का एक क्रियाशील उदाहरण होता है और अपनी संस्कृति को अपने शिक्षण की युक्तियों द्वारा फैलाता है। उसके विचारों के प्रभाव से ही बालक उसकी संस्कृति को अपनाते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षा में शिक्षक के स्थान के बारे में मत भित्रता है। यह मतभिन्नता विभिन्न संस्कृतियों के कारण पाई जाती है।
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(6) विद्यालय पर संस्कृति का प्रभाव
चूँकि विद्यालय समाज के लघु रूप है। इसलिए समाज में फैली संस्कृति विद्यालयों में दिखलाई पड़ती है। इस दृष्टि से विद्यालय समाज की संस्कृति के केन्द्र होते हैं। विद्यालय के समस्त कार्य समाज की प्रमुख विचारधाराओं के अनुकूल चलते हैं। समाज के नये-नये रहने-सहने के ढंग फैशन, प्रवृत्तियों, रीति-रिवाज यहीं पर फलते-फूलते हैं।
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