शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता
शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता वर्तमान समय में मनोवैज्ञानिक अनुसन्धान के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में पहले की अपेक्षा अधिक परिवर्तन हुए हैं। व्यक्ति तथा समाज की आवश्यताओं के आधार पर शिक्षा के उद्देश्य निश्चित होते हैं। समाज अधिक जटिल होता गया, विचारधारा में परिवर्तन हुए। इसके अनुसार ही शिक्षा के उद्देश्य तथा उन उद्देश्यों तक पहुँचने की विधि में भी परिवर्तन हुए। हमारे देश में भी प्राथमिक = तथा माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में सुधार तथा पुनसंगठन हो रहा हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली का प्रमुख दोष छात्रों की बुद्धि वैभव (Talents) पर ध्यान न देना हैं। शिक्षा छात्रों की अभिरूचि, योग्यता और रूचि के अनुसार नहीं दी जाती है। इसका परिणाम छात्रों की शक्ति, समय तथा धन का अपव्यय है। इस अपव्यय को कम करने का एक ही साधन शैक्षिक निर्देशन हैं निम्नलिखित दृष्टियों से भी शैक्षिक निर्देशन आवश्यक है जो निम्न है
(1 ) पाठ्य विषयों का चुनाव
सन् 1935 में ‘माध्यमिक शिक्षा आयोग ने अपने प्रतिवेदन में विविध, पाठ्यक्रम का सुझाव दिया है। छात्रों में जब व्यक्तिगत विभिन्नता पायी जाती है, उनकी क्षमताएँ, योग्यताएँ, रूचियाँ समान नहीं होती, तो उनको एक ही पाठ्यक्रम का अध्ययन कराना उचित नहीं है। उस प्रतिवेदन के अनुसार कुछ आन्तरिक विषय तथा इनके अतिरिक्त कुछ वैकल्पिक विषय रखे गये हैं, जिनको 7 वर्गों में विभाजित किया गया है इन वर्गों का चुना करना एक कठिन कार्य है। यहाँ विद्यालयों में छात्रों को विषयों के चयन करते समय किसी प्रकार का पथ-प्रदर्शन नहीं दिया जाता है। छात्रों को स्वयं के तथा पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में कोई जान नहीं होता हैं वे नहीं जानते हैं कि किस विषय का किस वृत्ति (Occupation) से सम्बन्ध है। ये छात्र अपने माता-पिता के परामर्श से या स्वयं उन विषयों को चुन लेते हैं, जो उनको रूचिकर या सरल दीखते हैं। इस प्रकार गलत पाठ्यक्रम का चुनाव करने से छात्र अवरोधन तथा अपव्यय की समस्या को बढ़ाते हैं।
(2) अग्रिम शिक्षा का निश्चय
हमारे देश में शैक्षिक निर्देशन के अभाव से छात्र अग्रिम शिक्षा का उचित निश्चय नहीं कर पाते। हाई-स्कूल परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के उपरान्त छात्रों के लिए यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि उनको व्यावसायिक विद्यालय में, औद्योगिक विद्यालय में या व्यापारिक विद्यालय में कहाँ जाना चाहिए। कभी-कभी छात्र गलत विद्यालयों में प्रवेश प्राप्त कर लेते है। ऐसे विद्यालयों के बाद में वे समायोजित (Adjust) नहीं हो पाते है। छात्रों को उचित अग्रिम शिक्षा का निर्णय लेने के लिए शैक्षिक पथ-प्रदर्शन अवश्य दिया जाए।
मैकाले विवरण-पत्र का तात्कालिक एवं दीर्घकालिक प्रभाव बताइए।
(3) अपव्यय तथा अवरोधन को दूर करना
भारत में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर अधिक अपव्यय होता हैं। भारतीय संविधान के अनुसार 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बालकों के लिए शिक्षा अनिवार्य की गयी है। लेकिन अधिकांश छात्र स्थायी साक्षरता प्राप्त किए बिना ही विद्यालय छोड़ देते है। बाह्य परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। यह अवरोधन भी दूसरे रूप में समय, धन तथा शक्ति का अपव्यय हैं अपव्यय को दूर करने के लिए आवश्यक है कि छात्रों को निर्देशन दिया जाय।
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