सविनय अवज्ञा आंदोलन
साइमन कमीशन की असफलता, नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकार किया जाना, कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन एवं अधिवेशन में पारित किये गये पूर्ण स्वराज्य के प्रस्ताव से घटनाओं का क्रम काफी तेज हो गया था। गाँधीजी द्वारा वायसराय के सम्मुख रखे गये ग्याहर सूत्री मांगपत्र पर विचार न करने के कारण सविनय अवज्ञा आंदोलन आवश्यक हो गया था। गाँधीजी ने उस आंदोलन के दौरान अहिंसात्मक ढंग से सरकार के प्रति असहयोग का रवैया अपनाया कालान्तर में इसे ही सविनय अवज्ञा आंदोलन कहा गया।
आंदोलन का कार्यक्रम
सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत चलाये जाने वाले कार्यक्रम थे-
- नमक कानून का उल्लंघन कर स्वयं से नमक बनाया जाय।
- सरकारी सेवाओं, अदालतों, शिक्षा केन्द्रों एवं उपाधियों का बहिष्कार किया जाए।
- महिलायें स्वयं शराब, अफीम एवं विदेशी कपड़े की दुकानों पर जाकर धरना दें।
- समस्त विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करते हुए उन्हें जला दिया जाए।
- कर अदायगी को रोका जाए।
डाण्डी यात्रा
12 मार्च, 1930 को गाँधीजी अपने 79 समर्थकों के साथ साबरमती आश्रम से 385 किमी0 दूर स्थित डाण्डी के लिए प्रस्थान किया। लगभग 24 दिन बाद 6 अप्रैल 1930 को डाण्डी पहुँचकर गाँधीजी ने समुद्र तट पर नमक कानून को तोड़ा। नमक कानून देश के कई भागों में तोड़ा गया। राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से वेदारण्यम् तक की यात्रा की। असम के लोगों ने सिलहट से मोआखली तक की यात्रा की वायकूम सत्याग्रह के नेताओं ने के. केलप्पन एवं टी0 के0 माधवन के साथ कालीकट से पयान्नूर तक की यात्रा की। इन सभी ने नमक कानून को तोड़ा। उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में खुदाई खिदमतगार संगठन के सदस्यों ने सरकार का विरोध किया। नमक कानून के भंग होने के साथ ही सारे भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन प्ररम्भ हो गया। गाँधीजी के डाण्डी यात्रा के बारे में सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा-‘महात्माजी के डाण्डी मार्च की तुलना ‘इल्या’ से लौटने पर नेपोलियन के पेरिस मार्च और ● राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए मुसोलिनी के रोम मार्च से की जा सकती है।”
आंदोलन क्रमशः व्यापक रूप से पूरे भारत में फैल गया। महिलायें पर्दे से बाहर आकर सत्याग्रह सक्रिय रूप से हिस्सा लिया, विदेशी कपड़ों की अनेक स्थानों पर होलियां जलाई गई, महिला. न वर्ग ने शराब की दुकानों पर धरना दिया, कृषकों ने कर अदायगी से इंकार कर दिया चारों तरफ फैली इस असहयोग की नीति से ब्रिटिश हुकूमत झल्ला गयी। 5 मई, 1930 को गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। एक महीने के अन्दर लगभग एक लाख लोगों को हिरासत में लिया गया। आंदोलन की न प्रचण्डता का अहसास कर तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन को गाँधीजी से समझौता करना पड़ा।
गाँधी-इरविन समझौता-इरविन ने भारत सचिव के सहयोग से इंग्लैंड में 12 सितम्बर, 1930 को प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन करने का फैसला किया। कांग्रेस ने अपने को इस सम्मेलन से अलग रखने का निर्णय किया। इरविन ने 26 जनवरी 1931 को गाँधीजी को जेल से रिहा कर देश में सौहार्द का वातावरण उत्पन्न करना चाहा। तेज बहादुर सप्रू एवं जयकर के प्रयासों से गाँधी एवं इरविन के मध्य 17 फरवरी से दिल्ली में वार्ता आरम्भ हुई। 5 मार्च 1931 को अन्ततः एक समझौते पर हस्ताक्षर हुआ, समझौते को गाँधी-इरविन समझौता कहा गया। समझौते की शर्तें इस प्रकार थीं-
- कांग्रेस व उसके कार्यकर्ताओं की जब्त सम्पत्ति वापस की जाय।
- सरकार सभी अध्यादेशों एवं अपूर्ण अभियोगों के मामले को वापस लिया जाए।
- हिंसात्मक कार्यों में लिप्त अभियुक्तों के अतिरिक्त सभी राजनैतिक कैदियों को मुक्त किया जाए।
- हे अफीम, शराब एवं विदेशी वस्त्र की दुकानों पर शांतिपूर्ण ढंग से धरने की अनुमति दी जाए।
- समुद्र के किनारे बसने वाले लोगों को नमक बनाने व उसे एकत्रित करने की छूट दी जाए।
गाँधीजी ने कांग्रेस की ओर से अग्रलिखित शर्तें स्वीकार की-
- सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया जायेगा।
- द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस के प्रतिनिधि भाग लेंगे।
- पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ न्यायिक जांच की मांग वापस ले ली जायेगी।
- नमक कानून उन्मूलन की मांग एवं बहिष्कार की मांग को वापस ले लिया जाएगा।
इस समझौते को गाँधीजी ने अत्यन्त महत्व दिया परन्तु नेहरू एवं सुभाष चन्द्र बोस ने मृदु आलोचना यह कह कर की कि गाँधीजी ने पूर्ण स्वतन्त्रता के लक्ष्य को बिना ध्यान में रखे ही समझौता कर लिया। युवा कांग्रेसी इस समझौते से इसलिए असंतुष्ट थे क्योंकि गाँधीजी तीन क्रान्तिकारी भागत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फाँसी के फन्दे से नहीं बचा सके थे। इन तीनों को 31 मार्च, 1931 को फाँसी पर लटका दिया गया। गांधीजी को कांग्रेस में वामपंथी युवाओं की तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ा। बड़ी कठिनाई से इस समझौते को कांग्रेस ने स्वीकार किया। कांग्रेस के कराची अधिवेशन में युवाओं ने गाँधीजी को ‘काले झण्डे ‘ दिखाये।
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सविनय अवज्ञा आंदोलन की पुनरावृत्ति
गाँधीजी के इंग्लैण्ड प्रवास के समय इस आंदोलन को सरकार ने बर्बरता से दबाना चाहा। बंगाल एवं उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में आंदोलन को बुरी तरह दबाया गया। भारत आते ही गाँधीजी ने पुनः आंदोलन की बागडोर संभाली। सरकार ने कांग्रेस को अवैध घोषित कर गाँधीजी एवं सरदार पटेल सहित लगभग एक लाख बीस हजार लोगों को जेल में भर दिया। दूसरी बार यह आंदोलन 3 जनवरी, 1932 को प्रारम्भ हुआ था। लोगों में आंदोलन के प्रति उत्साह में कमी देखकर गाँधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को 7 अप्रैल, 1934 को स्थगित कर दिया। सुभाष चन्द्र बोस एवं सरदार पटेल जैसे नेताओं ने गाँधीजी की उनके इस कृत्य के लिए आलोचना की उन्होंने कहा- “गाँधीजी ने पिछले 13 वर्ष की मेहनत तथा कुर्बानियों पर पानी फेर दिया।” गांधी कुछ दिन के लिए कांग्रेस से अलग हो गये थे।
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