संविधान द्वारा मौलिक अधिकार-
संविधान द्वारा मौलिक अधिकार- भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों की प्रमुख रूप से निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है
(1) अपवाद तथा प्रतिबन्धों की जरूरत
आलोचकों का कथन है कि भारतीय संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकारों के साथ इतने ज्यादा अपवाद तथा प्रतिबन्ध लगा दिये। गये हैं कि यह समझना भी मुश्किल है कि व्यक्ति को मौलिक अधिकारों से क्या मिला? इस वर्ग के आलोचक कहते है कि संविधान एक हाथ से मौलिक अधिकार प्रदान करता है तथा दूसरे हाथ से प्रतिबन्धों के द्वारा उन्हें ले लेता है।
परन्तु इस श्रेणी के आलोचक भूल जाते हैं कि असीमित स्वतन्त्रता तथा अधिकार प्रदान कराना न तो सम्भव है तथा न ही हितकर मालिक अधिकारों पर जो भी प्रतिबन्ध लगाये जायेंगे उनका औचित्यपूर्ण होना आवश्यक है और प्रतिबन्धों के औचित्य के निर्णय की शक्ति व्यवस्थापिका अथवा कार्यपालिका की नहीं, बल्कि न्यायपालिका को प्रदान की गयी है। न्यायपालिका के स्वतंत्र होने के कारण नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायपालिका पर विश्वास कर सकते हैं।
(2) कार्यपालिका की विशिष्ट शक्तियाँ –
संकटकालीन परिस्थितियों में कार्यपालिका को मौलिक अधिकारों के स्थगन का जो अधिकार दिया गया है तथा संकटकाल के अलावा सामान्य परिस्थितियों में भी निवारक निरोध की जो व्यवस्था की गई है, वह कटु आलोचना का विषय रही है। परन्तु यह ध्यान रखा जाना भी आवश्यक है कि राष्ट्र की सुरक्षा व्यक्ति की स्वतन्त्रता से कहीं ज्यादा मूल्यवान है। शासन को मौलिक अधिकारों के अतिक्रमण का अधिकार सिर्फ आकस्मिक परिस्थिति में ही प्राप्त होता है तथा ऐसी परिस्थिति अल्पकालिक ही होती हैं। इस दृष्टि से मौलिक अधिकारों के स्थगन की व्यवस्था स्वतन्त्रता तथा मौलिक अधिकारों के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए आवश्यक है।
(3) अपूर्णता
मौलिक अधिकारों की इस आधार पर आलोचना की गयी है कि इसमें – कुछ ऐसी बातों को छोड़ दिया गया है जिन्हें मौलिक अधिकार घोषित किया जाना चाहिये था। इस श्रेणी में काम करने का अधिकार, कुछ परिस्थितियों में राज्य से सहायता प्राप्त करने वाले का अधिकार तथा निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार इत्यादि को रखा जा सकता है।
सम्प्रेषण के घटकों की विवेचना कीजिए?
परन्तु उपर्युक्त आलोचना करने वाले व्यक्ति भूल जाते हैं कि किसी भी देश के संविधान से देश में विद्यमान साधनों के आधार पर ही अधिकार प्रदान किये जा सकते हैं तथा भारत राज्य के पास इतने आर्थिक साधन नहीं हैं कि अब तक भी इन अधिकारों को लागू किया जा सके। इतना होने पर भी भारतीय संविधान के निर्माता इन अधिकारों की तरफ से उदासीन नहीं थे, इसलिए उन्होंने इन अधिकारों को उन नीति निर्देशक तत्वों में स्थान दिया है, जिन्हें लागू करना शासकों का परम कर्त्तव्य समझा जायेगा।