संविधान और शिक्षा
संविधान और शिक्षा – शिक्षा के क्षेत्र में संवैधानिक सिद्धांतों तथा मूल्यों का समावेश अभी कुछ समय पहले ही हुआ है। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन का श्रेय अमेरिका के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री जॉन डयूवी को है। उन्होंने बताया है कि एक संवैधानिक समाज में ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे हर व्यक्ति सामाजिक कार्यों तथा सम्बन्धों में निजी रूप से रूचि ले सके। इस शिक्षा को मनुष्य में प्रत्येक सामाजिक परिवर्तनों को दृढ़तापूर्वक स्वीकार करने की सामर्थ्य उत्पन्न करनी चाहिए। यूबी के इस कथन से संविधान के सिद्धांतों तथा मूल्यों का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में किया जाने लगा। फलस्वरूप अब दिन-प्रतिदिन जनसाधारण की शिक्षा का आंदोलन चारों ओर जोर पकड़ता जा रहा है। उचित भी है शिक्षित होने पर ही व्यक्ति अपने अधिकारों के सम्बन्ध से जागरुक हो सकता है तथा अपने कर्तव्यों को जनहित हेतु निभाने में तत्पर हो सकता है। अशिक्षित जनता अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों को नहीं समझ पाती। इससे देश में सत्ताधारियों का एक ऐसा वर्ग बन जाता है जो दूसरे व्यक्तियों के ऊपर अपनी इच्छाओं को थोपने लगता है। इससे संविधान का मुख्य लक्ष्य न हो जाता है। चूंकि संवैधानिक व्यवस्था में देश के सभी नागरिक शासन में भाग लेते हैं, इसीलिए उन सब में शिक्षा के द्वारा इतनी योग्यता जरूर उत्पन्न की जानी चाहिए कि वे मतदान के महत्त्व को समझते हुए अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों को सफलतापूर्वक निभा सकें। इसी दृष्टि से अब संविधान की रक्षा हेतु हर संवैधानिक देश में सर्वसाधारण को अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जा रही है।
1. संवैधानिक दृष्टि से शिक्षा का अर्थ-
संवैधानिक शिक्षा से अभिप्राय, शिक्षा पर संविधान का प्रभाव पड़ना है। एक प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री के अनुसार संविधान हेतु वास्तविक शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो कि शिक्षार्थियों को अनन्यतम आवश्यकताओं का ज्ञान प्राप्त करने की, सत्य एवं धाराओं में अन्तर ज्ञात करने के निष्कर्ष तक पहुँचने की और उन वस्तुओं को पहचानने की जो सामाजिक परिवर्तन या संकटों के समय आती है, सहायता प्रदान करें।
2. शैक्षणिक दृष्टि से संविधान का अर्थ
कुछ वर्षों से संवैधानिक भावना के साथ-साथ शैक्षणिक विचारों में पर्याप्त विकास हुआ। तब से संविधान की सफलता के लिए आधारभूत दशाओं को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाने लगा- (1) सम्पूर्ण जनता की आर्थिक स्थिति का अच्छा होना तथा (2) जनशिक्षा की व्यवस्था संवैधानिक व्यवस्था को सफलीभूत बनाने वाली दूसरी दशा ने ही शैक्षणिक दृष्टि से संविधान को परिभाषित करने वालों का ध्यान आकर्षित किया, “शैक्षणिक दृष्टि से संविधान का तात्पर्य उस व्यवस्था से हैं जिसमें सभी प्रकार के लोगों को ज्ञानार्जन करने तथा पढ़ने-लिखने का अवसर प्राप्त होता है।” संवैधानिक व्यवस्था में “शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है न कि कुछ लोगों का विशेष अधिकार है।” जार्ज वांशिगटन के अनुसार, “प्रत्येक देश में ज्ञान जन-सुख का एक निश्चित आधार है। एक तो सरकार के साधनों पर शिक्षा का वैसा ही तात्कालिक प्रभाव पड़ता है जैसा हमारे ऊपर दूसरे समुदाय के विचार से।”
संवैधानिक मूल्यों की सफलता हेतु आधारभूत सिद्धांत
संवैधानिक भावना की सफलता हेतु किलपैट्रिक ने निम्न सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं
1. व्यक्ति स्वातन्त्र्य का सिद्धांत-\
संवैधानिक मूल्यों की सफलता हेतु सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है हर व्यक्ति को शिक्षा ग्रहण करने, विचार प्रकट करने, मत देने, अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार करने इत्यादि की स्वतंत्रता देना।
2. समानता का सिद्धांत
संवैधानिक मूल्यों के अस्तित्व हेतु स्वतंत्रता के साथ साथ हर व्यक्ति को समान अधिकार देना जरूरी है। इससे व्यक्ति को वही करने का अधिकार प्राप्त होगा जो दूसरों की स्वतंत्रता में रुकावट न बन सके। इसलिए हर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु समानता मिलना जरूरी है।
3. अधिकारों में कर्त्तव्य निहित होने का सिद्धांत
इस सिद्धांत से अभिप्राय किसी व्यक्ति के अधिकारों में दूसरों के कर्तव्यों के निहित होने से है। उदाहरणार्थ, यदि मुझे शिक्षा पाने का अधिकार है तो दूसरों का कर्तव्य है कि वे मुझे शिक्षा ग्रहण करने का अवसर दें। अतः संवैधानिक मूल्यों को पनपाने हेतु यह जरूरी है कि हर व्यक्ति दूसरे के हित में अपना हित देखे।
4. लोक-कल्याण के पारस्परिक सहयोग द्वारा प्रयत्न का सिद्धांत-
संवैधानिक मूल्यों के विकास हेतु यह जरूरी है कि हर व्यक्ति की भलाई हेतु प्रत्येक व्यक्ति यह अपना कर्तव्य समझे कि वह सम्पूर्ण समाज की भलाई हेतु कोशिश करता रहे। यदि सभी अपनी ढपली अपना राग अलापेंगे तो ऐसी स्थिति में लोक-कल्याण का कोई महत्व न रहेगा और लोकतंत्र की भावना सपना हो जाएगी।
5. बौद्धिक स्वातन्त्र्य में विकास का सिद्धांत
इस सिद्धांत का तात्पर्य यह है कि संविधान की सफलता हेतु हर व्यक्ति को बल प्रयोग एवं हिंसा द्वारा नहीं बल्कि वाद-विवाद द्वारा, समझाने-बुझाने एवं वैधानिक और शांतिमय पद्धतियों द्वारा सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन के लिए निर्णय देने का अधिकार होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र की ‘मानव सर्वाधिकार सम्बन्धी घोषणा’ ने अपनी 19वीं धारा में बौद्धिक स्वातन्त्र अधिकार के सम्बन्ध में इस प्रकार प्रकाश डाला है, “प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सम्मतियों के देने और विचार व्यक्त करने का अधिकार है, इस अधिकार के तहत् मतदान करने, दूसरों के मत लेने और बिना प्रतिबंध के अपने विचार एवं आदर्शों को किसी माध्यम से व्यक्त करना है।”
6. विचार-विमर्श की स्वतंत्रता का सिद्धांत यह सिद्धांत
वास्तव में पाँचवे सिद्धांत का ही एक उप-सिद्धांत है जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की स्वतंत्रता प्राप्त चाहिए कि वह अपने लिए चिंतन करते हुए अपने विचारों एवं विश्वासों को दूसरों के सम्मुख व्यक्त कर सके। उसको इस बात की भी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह अपने विचारों से दूसरों को सहमत कर ले और अपने विचारों के अनुकूल कर ले। वास्तव में, संविधान में विचार-विमर्श ही एक ऐसा उत्कृष्ट साधन है, जिसके द्वारा संवैधानिक मूल्यों को सुदृढ़ रखने की सफल तथा आश्चर्यजनक कोशिश की जा सकती है।
शिक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि शिक्षा का अधिकार अब एक मौलिक अधिकार है। शिक्षा के लिए प्रमुख संवैधानिक प्रावधान निम्न हैं
1. अनुच्छेद-24- यह 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के कारखानों और खतरनाक रोजगार में नियोजन पर रोक लगाता है।
2. अनुच्छेद-25- यह प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की गारंटी देता है। लेकिन यह पूर्ण अधिकार नहीं है, सरकार निम्नलिखित के आधार पर प्रतिबंध लगा सकती है-सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य ।
3. अनुच्छेद-26- यह कहता है कि प्रत्येक धार्मिक संस्थाओं को प्रदर्शन करने, अपने धर्म को स्थापित करने, बनाए रखने, प्रबंधन करने और चल व अचल सम्पत्ति भी अर्जित करने का अधिकार है।
4. अनुच्छेद-29- यह राज्य सहायता प्राप्त संस्थानों में धार्मिक निर्देश, उपदेश और शिक्षाओं को प्रतिबंधित करता है।
5. अनुच्छेद-29 (2) – यह किसी भी नागरिक को यह अधिकार देता है कि उसेजाति, भाषा या धर्म के आधार पर किसी भी शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।
परामर्श में रूचि का महत्व बताइये ।
6. अनुच्छेद-30- यह अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद की शिक्षण संस्था की स्थापना और प्रबंधन के अधिकार की गारंटी देता है। राज्य ऐसे शिक्षण संस्थानों को सहायता / अनुदान देने से इंकार नहीं कर सकता चाहे वे किसी धर्म या भाषा के आधार पर अल्पसंख्यकों के प्रबंधन में हों।
7. अनुच्छेद-32 (1) यह कहता है कि जब भी किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है तो कोई भी व्यक्ति उचित समाधान के लिए अदालत का रुख कर सकता है।
8. अनुच्छेद- 45- संविधान राज्य को ‘संविधान के प्रारंभ से 10 वर्षों की अवधि के भीतर सभी बच्चों के लिए जब तक वे 40 वर्ष की आयु पूरी नहीं कर लेते निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की माँग करता है।
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