संस्कार क्या है? विविध संस्कारों का वर्णन करते हुए हिन्दू सामाजिक जीवन में संस्कारों के महत्व की विवेचना कीजिए।

संस्कार क्या है?- संस्कार यह क्रिया है जिसके करने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य योग्य हो जाता है। मुख्य रूप से जन्म के पूर्व से मृत्यु के बाद तक कुल सोलह संस्कार माने जाते हैं जो निम्नांकित है

(1) गर्भाधान संस्कार

हिन्दू संस्कारों में सर्वप्रथम गर्भाधान का संस्कार होता है। यह मनुष्य के जीवन का प्रथम संस्कार माना जाता है। इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति अपनी पत्नी के गर्भ में बीज स्थापित करता है। जब वीर्य गर्भाशय में स्थिर हो जाता है, उस क्रिया को गर्भाधान कहते हैं। धर्मशास्त्रों में गर्भाधान के लिए कन्या की आयु 16 वर्ष एवं पुरुष की आयु 25 वर्ष बतायी जाती है।

(2) पुंसवन संस्कार

गर्भाधान संस्कार के बाद जब स्त्री गर्भ धारण करती थी, उसके दो या तीन माह के पश्चात् पुंसवन संस्कार को किया जाता था। इस संस्कार के द्वारा पुत्र या पुत्री प्राप्ति की कामना की जाती थी।

(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार

गर्भाधान के 6वें या 8वें महीने में होने वाले संस्कार को सीमन्तोन्नयन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार में गर्भवती स्त्री के पीठ पर एक विशेष प्रकार का चिह्न बना दिया जाता था, जिससे भूत-पिशाच उससे दूर रहें।

(4) जातकर्म संस्कार

शिशु के जन्म के समय, या जन्म लेने के तुरन्त पश्चात् ही जातकर्म संस्कार होता है। बच्चे का नारा काटने से पूर्व पिता बालक के पास जाता था त मन्त्रोच्चारण के बीच उसके दीर्घ आयु होने की कामना करता था। जातकर्म द्वारा बालक की लम्बी आयु तथा दुष्प्रभाव से दूर रखने की भगवान से प्रार्थना की जाती थी।

(5) नामकरण संस्कार

नामकरण संस्कार शिशु के जन्म के दसवें दिन होता है, इसमें बच्चे का नाम रख जाता था।

(6) निष्क्रमण संस्कार

पहली बार घर से बाहर बालक को निकालने का संस्कार निष्क्रमण के नाम से जाना जाता था। घर के आँगन में सफाई के बाद स्वास्तिक चिह्न बनाया जाता था तथा पहली बार उसके ऊपर से बालक को लेकर बाहर निकाला जाता था।

(7) अन्नप्राशन संस्कार

शिशु को प्रथम बार जब अन्न चखाया जाता है तो उसे अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है। अन्नप्राशन संस्कार बालक के जन्म के 6वें महीने में किया जाता है।

(8) चूड़ाकर्म संस्कार

चूड़ा का तात्पर्य शिखा से है अर्थात् शिखाकर्म या मुंडन कार्य को चूड़ाकर्म कहा जाता है अत: यह संस्कार बाल काटने का संस्कार था। पहली बार इस संस्कार के द्वारा बालक का मुडन किया जाता था।

(9) कर्णभेद संस्कार

कर्ष-भेद जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि कर्ज अर्थात् कान का छेदन है। इस कर्ण-छेदन क्रिया को कर्णभेद संस्कार कहा जाता है। इसका उद्देश्य सौन्दर्य वर्द्धता एवं बालक की रक्षा था। यह संस्कर बालक के तीन अथवा पाँच वर्ष के मध्य में होता है।

(10) अक्षराम्भ संस्कार

इसमें बालक को पहली बार शिक्षा तथा अक्षर का ज्ञान करवाया जाता था।

(11) उपनयन संस्कार

उपनयन संस्कार सभी संस्कारों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण था, उपनयन का अभिप्राय होता है, गुरु के समीप ले जाना। उपनयन संस्कार को दीक्षा संस्कार भी कहा जाता है। बालक जब शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाता था तो उपनयन संस्कार के विधान को किया जाता था। उपनयन संस्कार के पश्चात् ही बालक ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता था एवं शिक्षा ग्रहण करने हेतु गुरु के समीप जाता था। इसे यज्ञोपवीत संस्कार भी कहा जाता है। हिन्दुओं में बिना उपनयन के व्यक्ति शूद्र माना जाता था, उपनयन होने के पश्चात् वह द्विज कहलाता था। इससे उसको समाज में विशेषाधिकार तथा सुविधाएँ मिल जाती थीं।

प्रत्येक वर्ग के लोगों के लिए उपनयन की आयु अलग होती थी। ब्राह्मण के लिए आठ वर्ष, क्षत्रिय के लिए ग्यारह वर्ष तथा वैश्य के लिए उपनयन की उम्र 12 वर्ष मानी जाती थी। उपनयन संस्कार 16 वर्ष से अधिक की आयु में नहीं किया जा सकता था क्योंकि इसके बाद वह अध्ययन के योग्य नहीं रह जाता था।

उपनयन संस्कार पर बालक अपने माता-पिता से अन्तिम बार मिलता था तथा उनके साथ भोजन करता था। इस कार्य का प्रमुख उद्देश्य यह था कि बालक अब दायित्वहीन नहीं रह गया बल्कि अब उसे व्यवस्थित जीवन व्यतीत करना है। यह माता और पुत्र की विदाई का भोज भी हो सकता है। इसके पश्चात् बालक को स्नान कराया जाता था, जिससे उसके मन और देह दोनों शुद्ध हो जाते थे। स्नान समाप्त होने पर बालक को अपने अंगों को ढकने के लिए एक कौपीन दिया जाता था। अब उसे सामाजिक शिष्टाचार का पालन तथा आत्म सम्मान का निर्वाह करना था। इसके पश्चात् आचार्य बालक की कटि के चारों ओर मन्त्र के साथ मेखला बाँध देता था। मेखला धारण करने के पश्चात् ब्रह्मचारी को उपवीत सूत्र दिया जाता था जो परवर्ती लेखकों के अनुसार उपनयन संस्कार का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। तत्पश्चात् आचार्य विद्यार्थी को सूर्य का दर्शन कराता था। विद्यार्थी अपने कर्त्तव्य तथा अनुशासन के अविचलित पालन की शिक्षा सूर्य से ग्रहण करता था। बाद में गुरु और शिष्य हृदय स्पर्श करते थे।

इसका अर्थ यह था कि विद्यार्थी तथा आचार्य के बीच हार्दिक सम्बन्ध हो गए। इस प्रकार बालक और गुरु में स्नेहपूर्ण सम्बन्ध बन जाता था जिससे बालक अपने उम्र के 25 साल वहाँ रहकर शिक्षा ग्रहण करता था। बालक गुरु के यहाँ अनुशासनमय जीवन बिताकर साहित्य और संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त करता था। यहाँ उस बालक को योग्य नागरिक बनाया जाता था तथा उसे अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों का बोध भी कराया जाता था।

(12) वेदारम्भ संस्कार

उपनयन के बाद गायत्री मन्त्र की शिक्षा बालकों को दी र जाती थी, तभी वेदारम्भ संस्कार होता था। यह संस्कार उपनयन के दूसरे ही दिन होता था। बालक ना गुरु के समीप बैठकर वेदों का उच्चारण करता था।

(13) केशान्त संस्कार

गुरु के समीप रहते हुए शिष्य के बालों को पहली बार 16 वर्ष की आयु में बनाया जाता था। यह उप-संस्कार केशान्त कहलाता था। इसमें गुरु को एक गाय दक्षिणा में दिए जाने का विधान था, इसलिए इसे गोदान संस्कार भी कहा जाता था।

(14) समावर्तन संस्कार

समावर्तन का शाब्दिक अर्थ है लौटाना, अर्थात् बालक न ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करने के पश्चात् अपने घर लौटता था, तब समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार में स्नान का बड़ा महत्व है। स्नान करने के पश्चात् बालक स्नातक हो जाता था। प्राचीन ग्रन्थों में तीन प्रकार के स्नातकों का उल्लेख है

  • वेद स्नातक- अर्थात् जिसने वेद का अध्ययन पूरा कर लिया हो।
  • व्रत स्नातक- अर्थात् जिसने वेद का पूरा अध्ययन समाप्त न किया हो।
  • वेद व्रत स्नातक- अर्थात् जिसने वेद का अध्ययन एवं सम्पूर्ण व्रत पूरा कर न लिया हो।

(15) विवाह संस्कार

मानव जीवन का यह संस्कार सबसे महत्वपूर्ण था। धर्मशास्त्रों के अनुसार ब्रह्मचर्य जीवन के पश्चात् व्यक्ति को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहिए और किसी पुण्य नक्षत्र में विवाह करना चाहिए।

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(16) अन्त्येष्टि संस्कार

मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् के क्रिया-कलापों को अन्त्येष्टि संस्कार के नाम से पुकारा जाता है। यजुर्वेद में वर्णन मिलता है कि जब मनुष्य के प्राण निकलने लगे उसे पृथ्वी पर लिटा देना चाहिए। इसके पश्चात् उसे चिता पर लिटा कर, धृत डालकर अग्नि लगा देना चाहिए। अग्नि लगाने के साथ ही मन्त्रोच्चारण करना चाहिए। मृत्यु के दसवें दिन पिण्डदान एवं तेरहवें दिन ब्राह्मण भोज कराना चाहिए। इस संस्कार का बड़ा महत्व है, क्योंकि अन्त्येष्टि संस्कार के पश्चात् ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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