वानप्रस्थ आश्रम के बाद यदि व्यक्ति जीवित बचता है तो वह संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है। यह 75 वर्ष से 100 वर्ष तक रहता है। संन्यास आश्रम में मनुष्य को अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना पड़ता है। इस आश्रम में रहने पर वह गाँव में एक दिन तथा शहर में पाँच दिन से अधिक नहीं रुक सकता था। संन्यास आश्रम में मनुष्य अन्य सांसारिक वातावरण से पूर्णतया विरक्त हो जाता है। सूत्र साहित्य में संन्यासी को भिक्षु परिव्राजक, पती, मौन आदि नाम से पुकारा गया है। संयासी मनुष्य चरित्र से ब्रह्मचारी, अहिंसकवृत्ति, निरद्वन्द, सत्यनिष्ठ, क्रोधहीन और क्षमतासीन होता था।
वस्त्रों के नाम पर भी वह वृक्ष की छाल, अथवा फेंके हुए फटे पुराने कपड़े पहना करता था। अगर यह भी न हो तो नम्र भी रहता था। भोजन की दृष्टि से संन्यासी अल्पाहारी होते थे। एक समय की भिक्षा में मिला पदार्थ ही उनका भोजन होता था। शेष समय संन्यासी तपस्या तथा अपने इष्ट के ध्यान में व्यतीत करता था। महाकाव्यों के अनुसार स्त्रियाँ भी संन्यास आश्रम में प्रवेश करती थीं परन्तु कालान्तर में उनका प्रवेश निषेध समझा जाने लगा।
निर्देशन एवं परामर्श केन्द्रों के कार्यों का वर्णन कीजिए।
सामान्यतः ब्राह्मण वर्ग ही संन्यास को ग्रहण करते थे परन्तु कहीं-कहीं क्षत्रिय सन्यासियों के उदाहरण मिले हैं। वैश्य इसे उपयुक्त नहीं समझते थे तथा शूद्रों का संन्यास ग्रहण करना निषेध था। महाकाव्य काल में अपवाद स्वरूप विदुर ने संन्यास ग्रहण किया था।
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