संगम युगीन प्रशासनिक व्यवस्था – संगम युगीन राज्य कुल संघ प्रतीत होते हैं। इस प्रकार के राज्य उत्तरी भारत में भी थे जिन्हें कौटिल्य ने कुल संघ कहा है। ऐसे राज्य में कुल के विभिन्न परिवारों के वयस्क पुरुष कार्य में भाग लेते हैं।
इस युग में वंशानुगत राजतंत्र का प्रचलन था राजा बहुत सी उपाधियाँ धारण करते थे, जैसे-को, मन्नम, वेन्दन, कारवेन, इरैयन, अधिराज, आदि। ‘की’ उपाधि देवताओं एवं राजा दोनों के लिए प्रयुक्त की जाती थी। राजा का जन्म दिवस प्रतिवर्ष मनाया जाता था और इस दिन को पेरूनल (महान दिवस) कहा जाता था। राजा के बाद युवराज का स्थान था। तमिल ग्रंथों में युवराज को कोमहन तथा अन्य पुत्रों को इलैगो कहा गया है।
पुरुनानक नामक ग्रंथ में चक्रवर्ती राजा की चर्चा की गई है। राजा प्रतिदिन अपनी सभा (नाल) में प्रजा के कष्टों को सुनता था और न्याय कार्य सम्पन्न करता था। राज्य का सर्वोच्च न्यायालय, राजा की सभा (मन्रम) थी। सभा के लिए मन्दम् के साथ पोडियाल शब्द का भी उल्लेख मिलता है। मन्दम का शाब्दिक अर्थ है नगर जबकि पोडियाल का शाब्दिक
अर्थ है-सार्वजनिक स्थल | राजा की शक्ति पर पाँच परिषदों का नियंत्रण होता था, जिन्हें पाँच महासभाओं के नाम से जाना जाता था। इनमें शामिल थे।
- मंत्री (अमैच्चार)
- पुरोहित (पुरोहितार)
- सेनापति (सेनापतियार)
- दूत या राजदूत (दूतार)
- गुप्तचर (ओरि).
नगर प्रशासन
सम्पूर्ण राज्य को मण्डलम् कहा जाता था, जैसे-चोल मण्डलम्, चेरमण्डलम् आदि। मण्डलम् के बाद नाडु, नाडु के बाद उर होता था। उर नगर होता था जिसमें एक बड़ा ग्राम (पेरूर) एक छोटा ग्राम (शिरूर) अथवा एक प्राचीन ग्राम (मुदूर) आदि का विभिन्न रूपों में वर्णन मिलता है। पतिनम् तटीय नगर का नाम था और पुहार बन्दरगाह क्षेत्र था। चेरि किसी नगर का उपनगर या गाँव का नाम होता था जबकि पड़ोसी क्षेत्र को पक्कम् कहा जाता था। सलाई मुख्य मार्ग था और तेरू किसी नगर की एक गली होती थी।
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राजस्व प्रशासन
राजस्व का सबसे प्रमुख स्रोत भूमिकर था। इसे कुडमै या इरय कहा जाता था। भूमि की माप की इकाइयों मा तथा बेलि थी। पथकर और सीमा शुल्क को उल्गू या शुंगम कहा जाता था। सामान्यतया राजा को दिया जाने वाला शुल्क कुड़र्म या पाद या पादुबाहु के नाम से जाना जाता था। बलपूर्वक प्राप्त किए जाने वाले उपहार को ईरादू कहा जाता था। कर अदा करने वाला क्षेत्र बरियमवारि नाम से जाना जाता था। इस क्षेत्र से कर वसूलने वाला अधिकारी वरियार कहलाता था। भू-राजस्व कृषि उत्पादन का 6ठा भाग होता था। प्रो. नीलकण्ठ शास्त्री ने कुम्बकोनम में चोलों के कोषागार का भी वर्णन किया है।
न्याय प्रशासन
संगम युग में राजा ही न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था। राजा के न्यायालय के मन्दम कहा जाता था। दण्ड विधान अत्यन्त कठोर थे। चोरों के हाथ तथा झूठी गवाही देने वालों की जीभ काट ली जाती थी
सैन्य प्रशासन
संगम युग में चतुरंगिणी सेना-पैदल, हस्ति, अश्व एवं रथ का उल्लेख है। लेकिन रथ में घोड़े की जगह बैल जाते जाते थे। नौ-सेना का भी उल्लेख मिलता है। सेनापति की उपाधि एनाडि थी। युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त सैनिकों के सम्मान में एक स्तम्भ बनाया जाता था जिसमें उनके नाम एवं उनकी उपलब्धियाँ लिखी जाती थीं। इन स्तम्भों को वीरगल या वीरक्कल कहा जाता था। सैनिक मामलों की अनेक दिलचस्प सूचनों कल्लिवल्लि नामक ग्रंथ में मिलती हैं। मरवा नामक जनजाति अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण सेना में विशेष स्थान पाती थी।