समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।

समाजीकरण की अवधारणा – प्रत्येक मानव शिशु अपने जन्म के समय रक्त, मांस-मज्जा से निर्मित एक असहाय, किन्तु जीवित पुतला मात्र होता है। इस समय न तो वह सामाजिक होता है, न असामाजिक ही वह न तो समाज के रीति-रिवाजों, प्रथाओं, मूल्यों से परिचित होता है, न संस्कृति से ही। इस अवस्था में वह यह भी नहीं जानता कि किसके प्रति क्या व्यवहार करना चाहिये और क्या नहीं। परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमताओं के कारण मनुष्य बहुत शीघ्र अधिगम करने लगता है। यह समाज का क्रियाशील सदस्य बन जाता है और अपनी संस्कृति को ग्रहण कर लेता है। सामाजिक सम्पर्क के ही कारण वह भाषा का प्रयोग करना सीखता है। सामाजिक सम्पर्क के ही कारण वह समाज के रीति-रिवाज, प्रथाओं, विश्वासों, मूल्यों संस्कृति एवं विभिन्न सामाजिक गुणों को सीखता है। इस प्रकार वह एक पशु से सामाजिक प्राणी बनता है। सपष्ट है कि सामाजिक सीख की इसी प्रक्रिया को ‘समाजीकरण’ (Socialization) कहा जाता है।

समाजीकरण की परिभाषा

समाजीकरण एक प्रक्रिया है। इसके द्वारा बालकों में सामाजिक गुणों का विकास होता है। सामाजिक समाजीकरण की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

  1. जॉनसन “समाजीकरण एक प्रकार की सीख है, जो सीखने वाले को कार्य करने के योग्य बनाती है।”
  2. ग्रीन “समाजीकरण यह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक सांस्कृतिक विशेषताएँ,अपनत्व तथा व्यक्तित्व प्राप्त करता है।”
  3. बोगाईस “साथ काम करने, सामूहिक उत्तरादायित्व की भावना विकसित करने तथा दूसरों की कल्याण सम्बन्धी आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर कार्य करने की प्रक्रिया को समाजीकरण कहते हैं।

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि समाजीकरण एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा जैवकीय व्यक्ति सामाजिक प्राणी बन जाता है।

समाजीकरण की विशेषताएँ

(1) सीखने की प्रक्रिया

समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है, किन्तु सभी प्रकार की बातें सीखना समाजीकरण नहीं है वरन् उन व्यवहारों को जो सामाजिक प्रतिमानों, मूल्यों एवं समाज द्वारा स्वीकृत हैं, को सीखना ही समाजीकरण है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति चोरी करना, कक्षा से भाग जाना व गाली देना, आदि सीखता है तो उसे हम समाजीकरण नहीं कहेंगे क्योंकि ये क्रियाएँ समाज द्वारा स्वीकृत नहीं है।

(2) ‘आत्म’ का विकास

समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति के ‘आत्म’ का विकास होता है, व्यक्ति में अपने प्रति जागरूकता आती है वह यह जानने लगता है कि दूसरे व्यक्ति उसके बारे में क्या सोचते हैं।

(3) आजन्म प्रक्रिया –

समाजीकरण की प्रक्रिया बच्चे के जन्म से लेकर मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है। बचपन में वह पुत्र, भाई, मित्र आदि के रूप में अन्य लोगों से व्यवहार करना सीखता है। युवावस्था में वह पति, पिता, व्यवसायी, किसी संगठन में पदाधिकारी एवं अन्य अनेक पदों को ग्रहण करता है। वृद्धावस्था में दादा, नाना, श्वसुर आदि पद धारण करता है और इन सभी पदों के अनुरूप भूमिका निर्वाह करना सीखता है। इस प्रकार व्यक्ति के सामने नयी-नयी प्रस्थितियाँ एवं पद आते हैं और यह उनके अनुसार समाज द्वारा मान्य व्यवहारों को सीखता जाता है। इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया आजीवन चलती रहती है।

(4) सांस्कृतिक हस्तान्तरण

समाजीकरण के द्वारा समूह अथवा समाज अपनी संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाता है। नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से संस्कृति ग्रहण करती है। डेविस कहते हैं कि हस्तान्तरण की इस प्रक्रिया के बिना समाज अपनी निरन्तरता बनाये नहीं रख सकता और न ही संस्कृति जीवित रह सकती है।

(5) संस्कृति को आत्मसात् करने की प्रक्रिया

इस प्रक्रिया के द्वारा एक व्यक्ति सांस्कृतिक मूल्यों मानकों एवं स्वीकृतव्यवहारों को सीखता है तथा संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक तत्वों को आत्मसात् करता है। धीरे-धीरे संस्कृति व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंग बन जाती है।

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(6) समय व स्थान सापेक्ष

समय सापेक्ष का अर्थ है कि दो मित्र समयों में समाजीकरण को अन्तर्वस्तु (Content) अलग-अलग हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, प्राचीन भारत में स्त्रियों को पर्दा व घूंघट रखना सिखाया जाता था, किन्तु वर्तमान समय में ये व्यवहार अपेक्षित नहीं है।

समाजीकरण स्थान सापेक्ष भी है। इसका अर्थ यह है कि एक स्थान पर एक समाज में जो व्यवहार प्रशंसनीय माना जाता है, वही दूसरे समाज में निन्दनीय भी माना जा सकता है। अफ्रीका की मसाई जनजाति में एक-दूसरे के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए एक-दूसरे पर चूकना सिखाया जाता है, किन्तु यह व्यवहार भारत में अनुचित एवं निन्दनीय माना जाता है।

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