समाज दर्शन और समाजशास्त्र – समाज दर्शन और समाजशास्त्र दोनों का सम्बन्ध समाज के अध्ययन से है। परन्तु आधुनिक युग में आते-आते समाज दर्शन का क्षेत्र समाजशास्त्र से पर्याप्त रूप से पृथक हो गया। समाज शास्त्र ने समाज दार्शनिक को एक राष्ट्र या समाज का निरीक्षक व द्रष्टा माना है। समाजशास्त्रियों का प्रयास रहा है कि समाज दर्शन के अन्तर्गत वैज्ञानिकता का समावेश किया जा सके। सिम्मेल का मत है कि समाज शास ने समाज दर्शन के मुख्य विषयों को निम्नलिखित तीन प्रकार से अपना लिया है सामान्य समाज विज्ञान समाज के विविध विशिष्ट विज्ञानों-अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीतिशास्त्र, आदि का समन्वित अध्ययन करता है और इस प्रकार विशिष्ट विज्ञानों के समन्वय के द्वारा समाज आकारिक दर्शन का काम करता है। आकारिक समाजविज्ञान समूह जीवन की सामान्य विशेषताओं का विश्लेषण करके समाज दर्शन के सामान्य विश्लेषण को अपना लेता है। दार्शनिक समाज विज्ञान को सामाजिक विज्ञान की तत्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा बताता है।
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विचारकों का मत है कि समाजशास्त्र द्वारा उपरोक्त लक्ष्यों को पूरा करने का प्रयास करने के कारण समाजदर्शन का अस्तित्व संकट में पड़ जाता है परन्तु ऐसा कथन युक्तिसंगत नहीं है। वास्तव में समाजशास्त्र के इस प्रकार विकसित होने से समाज दर्शन को अपने विश्लेषण में विशेष लाभ हुआ। समाजशास्त्र और समाज दर्शन के अध्ययन क्षेत्र अलग-अलग हैं, दोनों की विधियां अलग-अलग हैं और दोनों के लक्ष्य भी अलग-अलग हैं। समाज शास्त्र मुख्य रूप से ‘समाज क्या है’ की विवेचना करता है, जबकि समाज दर्शन की विवेचना का विषय है, ‘समाज को क्या होना चाहिए।’ समाजशास्त्र सामाजिक या सामूहिक जीवन के विभिन्न घटकों के सह सम्बन्ध का अध्ययन करता है, जबकि समाज दर्शन इनके आदर्श रूपों का विवेचन करता है।