सल्तनत कालीन फारसी भाषा एवं साहित्य पर एक निबन्ध लिखिए।

सल्तनत कालीन फारसी भाषा एवं साहित्य – 1206 ई. से बलबन के शासनकाल के अन्त तक दिल्ली इस्लामी साहित्य एवं संस्कृति के महान केन्द्र के रूप में विकसित होता रहा। यहां गद्य एवं पद्य का सुप्रसिद्ध विद्वान वहाउदीन ओशी, खुरासान निवासी अपने समय का महान ईरानी कवि नसीरी, बुखारा निवासी अमीर रुहानी, जिसने सुल्तान इत्तुमिश की प्रशंसा में अनेक कसीदों की रचना की थी, ताजुद्दीन रेजा, मुवायद जजारभी, जो कि महान ईरानी विद्वान था तथा जिसने इमाम गज्जाली की कृति अध्याउल उलूम का फारसी में अनुवाद कर इल्तुतमिश को समर्पित किया था, बदायूँ के शिहाव मेहमारा इत्यादि थे।

इल्तुमिश के पुत्र सुल्तान रूकनुद्दीन फिरोज के दरबार में सुप्रसिद्ध ईरानी कवि शिहाब मेहमारा था, जो कि बदायूँ का रहने वाला था। वह अमीर खुसरों का शिक्षक था। सुल्तान नासिरुदीन महमूद के शासनकाल में सुप्रसिद्ध इतिहासकार मिनहाज उस सिराज ने तबकात-ए- नासिरी की रचना की। इसी काल में मलिक उतकलाम फखरूद्दीन आमिद सुनामी नामक कवि सुल्तान नासिरूदीन महमूद का दरबारी कवि हुआ।

13वीं शताब्दी के अन्त में बलबन या शाहजादा मुहम्मद के अन्तर्गत शम्सुद्दीन दबीर सुनामी प्रख्यात कवि था। शहजादा मुहम्मद ने अनेक कवियों को अपने दरबार में प्रश्रय दे रखा था। इन कवियों में अमीर खुसरो तथा अमीर हसन देहलवी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। बलबन के काल में दिल्ली निवासी मौलाना बुरहानउद्दीन बलवली जी सुविख्यात विद्वान व विधिशास्त्री थे।

13वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में न केवल दिल्ली के सुल्तानों तथा अमीरों के संरक्षण में फारसी साहित्य का विकास हुआ, अपितु उसके बाहर भी साहित्य का सृजन बराबर होता रहा। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती न केवल सुप्रसिद्ध चिश्ती संत थे वरन उच्च कोटि के कवि भी थे। फखरूद्दीन मुदब्बिर, जिन्हें राजनीति तथा सैन्य विद्या का पूर्ण ज्ञान था ने ‘नस्व नामा’ तथ ‘शुजाव उल हर्व या शुजा की रचना 13वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में की शेख हामिद उद्दीन सूफी (मू. 1274) जो कि अजमेर के ख्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती के शिष्य थे, न केवल सूफी रहस्यवादी थे वरन् कवि भी थे।

बरनी ने ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ में सुल्तान जलालुद्दीन फिरोज शाह खिलजी के कुछ दरबारी कवियों के नाम उल्लिखित किए हैं। उनके अनुसार ताजुद्दीन ईराकी, अमीर खुसरो दि जाजमीह जिसरे ऐबक, दजागी, सईद दीवाना, सद्रआली, अमीर अरसलान कुलाही, इख्तयारबाग तथा ताज खतीब का मुकाबला, गद्य रचना, कविता व इतिहास के ज्ञान, कला व विद्वता में कोई भी नहीं कर सकता था। अमीर खास्त, हामिद राजा व अमीर खुसरो अपनी गजलें दरबार में पढ़ते थे। उनके अतिरिक्त अलाई राज्य काल में सद्रदुद्दीन आली, फखरुद्दीन कवास, हमीदुद्दीन राजा, मौलाना आरिफ शिहादुद्दीन अंसारी व सद्र विस्ती प्रमुख कवियों में थे।

तुगलक काल में भी फारसी साहित्य की प्रगति हुई। मुहम्मद तुगलक स्वयं उच्च कोटि का विद्वान तथा विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके आश्रय में सुप्रसिद्ध इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी 17 वर्षों तक रहा। बरनी की प्रसिद्ध रचनाएं तारीख-ए-फिरोज शाही, फतवाए-जहाँगीरी, सनाए महामदी, सलाते कबीर, इनायत नामाए इलाही मासीरे सादात, हसरत नापा, तारीखे यमकियान इत्यादि हैं। बरनी ने तारीख-ए-फिरोज शाही में बलवन के राज्यारोहण से लेकर फिरोजशाह तुगलक के राज्यकाल के 6वें वर्ष तक का इतिहास लिखा है।

पूर्व मध्य कालीन भारत में सूफी रहस्यवाद का उत्कर्ष हुआ। यहां विभिन्न सूफी सम्प्रदायों की स्थापना हुई। मुसलमानों में उनके प्रति आस्था उत्पन्न हुई। सूफी सन्त की वाणियों एवं उनके उपदेशों से जनता की ज्ञान क्षुधा की पूर्ति करने की आवश्यकता की पूर्वि उनके योग्य शिष्यों ने की मलपूजों (आख्यानों) का लिपिबद्ध किया जाना इस काल की सबसे बड़ी साहित्यिक देन है। अमीर हसन सीजी ने फवायद-उल-फौद, जिसमें सूफी सन्त शेख निजामउद्दीन औलिया की अपने शिष्यों से की गयी बातचीत व उनके द्वारा दिये गये उपदेशों का विवरण है, की रचना 1307-8 ई. के लगभग की। इस भांति हामिद कलन्दर ने शेख हामिद उद्दीन नागौरी ने उपदेशों का संकलन ‘सरूर उस सुदूर’ में किया। इसी प्रकार की अन्य कृतियाँ शेख अब्दुल हक मौदिस देहलवी द्वारा रचित अखबार-उल- अखियार, शेख नासिर उद्दीन चिराग देहलवी द्वारा रचित खेरडल मजलिस, अमीर खुर्द द्वारा रचित सियार-उल-औलिया इत्यादि है। यद्यपि यह ‘मलफूजात’ धार्मिक साहित्य का विशेष अंग है परन्तु उसका फारसी साहित्य में भी उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है।

सिकन्दर स्वयं महान विद्वान था। उसे विद्वानों की सभा में ही बैठने का आनन्द आता था। उसे साहित्य और काव्य में विशेष रुचि थी। वह गुलरुख के उपनाम से कविताएँ लिखा करता था। विद्वानों के प्रति उदारता की चर्चाएं सुनकर अरब, फ़ारस मध्य एशिया से अनेक साहित्यकार, कवि एवं दार्शनिक उसकी राजधानी आगरा आये और उन सभी को उसने प्राश्रय दिया। उसने निमंत्रण पत्र भेजकर शेख जमालुद्दीन को अपने दरबार में बुलाया। शेख जमालुद्दीन ने उसकी प्रशंसा में कुछ पद्य लिखे इसी काल में हिन्दुओं ने पारसी सीखना प्रारम्भ किया। उसी के आदेश से चिकित्सा शास्त्र के ग्रन्थ महावैधक का फारसी में तिल-ए-सिकन्दरी शीर्षक के अंतर्गत अनुवाद किया गया। उसके दरबार में सुप्रसिद्ध कवियों व विद्वानों में दिल्ली के अब्दुल्लाह तलम्बी साह सम्भल के अजीज इस्ला तलम्बी, कमीज के मौलाना सदुद्दीन, सीकरी के मौलाना अब्दुल रहमान आदि थे परन्तु इस काल के सुप्रसिद्ध कवि शेख जमालुद्दीन थे, जिन्होंने मेहरुमाद तथा ‘सियार-उल-अरफीन’ नामक ग्रंथों की रचनाएं की।

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फारसी भाषा एवं साहित्य का विकास केवल दिल्ली व आगरा के शासकों व उनके अमीरों के संरक्षण में ही नहीं हुआ। दिल्ली सल्तनत के विघटन के उपरान्त जब बंगाल, जौनपुर, मालवा, गुजरात तथा दक्षिण में बहमनी तथा खानदेश के स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हुई तो उन राज्यों में भी कवियों तथा साहित्यकारों को फारसी साहित्य में अपना योगदान देने का अवसर मिला। इन स्वतंत्र राज्यों के शासकों ने विदेशों से व देश के विभिन्न भागों से विद्वानों को आकर्षित किया और उन्हें दरबार में प्रश्रय देकर उनके लिए ऐसा वातावरण उत्पन्न किया कि ये उन्मुक्त होकर साहित्य का सृजन कर सकें।

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