सहशिक्षा का क्या संकल्पना है?

सह-शिक्षा

स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में सह-शिक्षा की समस्या भी उत्पन्न होती है। जब आर्थिक कारणों से स्त्रियों के लिए आरंभ से ही अलग विद्यालयों या शिक्षण संस्थाओं को खोलने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा तो शिक्षाविदों का ध्यान सहशिक्षा की ओर गया। किंतु हमारे देश की परंपराओं और मान्यताओं और सामाजिक नियंत्रण के कारण सहशिक्षा का प्रश्न विवाद का विषय बन गया। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क प्रस्तुत किये जाने लगे।

सह शिक्षा क्या है?

सहशिक्षा का साधारण अर्थ है बालक और बालिकाओं का एक ही शिक्षा संस्था में एक ही स्थान पर समान विधि से समान विषयों का एक ही अध्यापक द्वारा पढ़ाया जाना।

इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनका के अनुसार- ‘सह-शिक्षा’ एक ऐसी शैक्षिक स्थिति है जिसमें छात्र-छात्राओं को एक ही समय एक ही स्थान पर एक ही विधि से एक ही अनुशासन में समान पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि सह-शिक्षा में पूरी तरह समान पाठ्यक्रम का होना आवश्यक नहीं है। बालक और बालिकाओं की रुचियों एवं अभिक्षमताओं में कुछ अंतर होता है। इसीलिए उनके पाठयक्रम में भी अंतर होना आवश्यक हो जाता है, जैसे सह-शिक्षण संस्थाओं में बालकों के लिए कृषि तकनीकी, सैन्यविज्ञान आदि विषयों और बालिकाओं के लिए गृह-विज्ञान सिलाई, चित्रकारी और संगीति आदि विषय रखे जा सकते हैं।

सहशिक्षा की वर्तमान स्थिति

आज सहशिक्षा के पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिये जाते हैं। भारत में सहशिक्षा का वर्णन वैदिककाल में मिलता है, गुरुकुलों और बौद्ध बिहारों में सहशिक्षा का उल्लेख किया गया है। मध्यकाल में पर्दाप्रथा के कारण सहशिक्षा का प्रश्न ही नहीं उठा। आधुनिककाल में सहशिक्षा के प्रश्न को लेकर रूढ़िवादी अभिभावकों ने इसके विरोध में विचार प्रकट किये। श्री-शिक्षा की राष्ट्रीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक स्तर और उच्च स्तर पर सांग सहशिक्षा का विरोध नहीं करते, किंतु माध्यमिक शिक्षा स्तर पर इसका विरोध किया गया।

सहशिक्षा के पक्ष और विपक्ष में तर्क-

सह-शिक्षा एक विवादग्रस्त विषय है। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिये जा सकते हैं। संक्षेप में उनका उल्लेख निम्नांकित है।

पक्ष में तर्क-

शिक्षाविदों ने सहशिक्षा के पक्ष में शैक्षणिक, सामाजिक आर्थिक और मनोवैज्ञानिक आधारों पर प्रस्तुत किये हैं।

शैक्षिक आधार पर उनका कहना है कि एक ही संस्था में बालक-बालिकाओं के पढ़ने से उनमें स्पर्द्धा की भावना बढ़ती है, जो कि उन्हें प्रेरणा प्रदान करती है और इस प्रकार दोनों की ही कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। सामाजिक आधार पर उन्हें साथ-साथ कार्य करने और सामाजिक जीवन व्यतीत करने की शिक्षा मिलती है और उन्हें सफल भावी जीवन व्यतीत करने के लिए व्यावहारिक अनुभव भी प्राप्त होता रहता है। सहशिक्षा अनुशासन स्थापित करने में भी सहायक होती है।

आर्थिक आधार पर कहा जा सकता है कि “नारी शिक्षा के प्रसार का तात्कालिक हल सहशिक्षा है।” दोनों के लिए अलग-अलग विद्यालयों की स्थापना एवं संचालन में अधिक खर्च पड़ता है। सहशिक्षा के माध्यम से अनावश्यक खर्च नहीं होता और धन का सदुपयोग अन्य शिक्षण

सामग्रियों या सुविधा पर किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक आधार पर कहा जाता है कि साथ-साथ पढ़ने पर बालक-बालिकाओं की एक दूसरे के प्रति विशसा वृति शांत रहती है। प्रो० बेडले का विचार है “केवल साथ रहकर ही उनमें विश्वास एवं अवरोध उत्पन्न होता है। सहसा की संस्थाओं में पढ़ने वाले लड़कों का दृष्टिकोण नारियों के प्रति मित्र होता है। ये नारी को मित्र एवं सहकारिणी के रूप में देखते हैं।

विपक्ष में तर्क-

भारतीय समाज की रूढ़िवादी परंपराओं के अनुसार पुरुष और सियों के कार्य-क्षेत्र पृथक-पृथक रहे हैं। कुछ सर्वेक्षणों में भी ज्ञात हुआ है कि नगरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में लोकमत सहशिक्षा के पक्ष में नहीं है। कुछ लोगों के अनुसार युवा लड़के-लड़कियों के परस्पर संपर्क में आने पर यौन संबंध स्थापित होने की संभावना हो जाती है, जिसे सामाजिक दृष्टि से कई कारणों से अच्छा नहीं समझा जाता है। यह शिक्षा संस्थाओं में एक दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करते हैं, जिसमें अधिकांश समय व्यर्थ नष्ट होता है, जिसका प्रभाव पढाई पर पड़ता है। इसके अलावा एक दूसरे की उपस्थिति में संकोचवश उचित आत्म प्रकार व नेतृत्व के गुणों का विकास भी नहीं हो पाता। एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि सहशिक्षा पाश्चात्य संस्कृति की देन है। भरत की मर्यादामय संस्कृति में यह उचित नहीं प्रतीत होती ।

नागरिकों के अधिकार और कर्त्तव्यों के बीच सम्बंध स्थापितं कीजिये।

सह शिक्षा को सफल बनाने के लिए सुझाव-

शिक्षा के क्षेत्र में यह एवं विवादग्रस्त प्रश्न है कि क्या बालक और बालिकाओं को एक संस्था में साथ-साथ शिक्षा प्रदान की जाये? इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व भारत में स्त्रियों को समाज में जो स्थान प्राप्त था उस पर भी विचार करना चाहिए। समाज में पर्दा प्रथा, बालविवाह, सीमित सामाजिक अधिकार, सामाजिक नियंत्रण एवं स्वतंत्रता का अभाव था। इस स्थिति में स्त्री-शिक्षा पर भी नियंत्रण होना स्वाभाविक था। धीरे-धीरे श्री-शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया जाने लगा। सहशिक्षा के पक्ष एवं विपक्ष में दिये गये तक के उपरांत कहा जा सकता है कि प्रत्येक विषय में कुछ गुणों एवं दोषों का होना स्वाभाविक है। सहशिक्षा से संबंधित दोषों को दूर करने के लिए कुछ बातों पर ध्यान देकर इसे उपयोगी बनाया जा सकता है। सहशिक्षा की सफलता के लिए विद्यालयों की कुछ आवश्यकताएँ होती है जिसके लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जाते हैं, जैसे- विद्यालय का वातावरण एवं शिक्षण सामग्री, उपयुक्त पाठ्यक्रम आदि।

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