सभ्यता का अर्थ-
मानव एक सामाजिक प्राणी है। एक सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य सामाजिक सीख की प्रक्रिया के द्वारा जहाँ अनेक आदर्श नियमों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है, वहीं दूसरी ओर वह अतीत में किए गए आविष्कारों और स्वयं अपने अनुभवों के द्वारा अनेक ऐसी वस्तुओं का भी उपयोग करता है जिनके द्वारा वह अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा कर सके। भौतिक और अभौतिक ऐसे सभी तत्वों की सम्पूर्णता का नाम ही ‘संस्कृति’ है। इसी आधार पर हर्सकोविट्स ने संस्कृति को ‘पर्यावरण का मानव-निर्मित भाग’ कहा है। संस्कृति की विभिन्न परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो चुका है कि संस्कृति को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-भौतिक संस्कृति तथा अभौतिक संस्कृति सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि सभ्यता का तात्पर्य भौतिक संस्कृति में होने वाले विकास से है। मॉर्गेन का कथन है कि मानव का विकास तीन स्तरों में से गुजरकर हुआ है। इन्हें हम जंगली स्तर, बर्बरता का स्तर तथा सभ्यता ” का स्तर कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति तरह-तरह के उपकरणों, कलात्मक वस्तुओं – तथा विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने वाले साधनों के आविष्कार में जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, वह पहले की तुलना में अधिक सभ्य होता गया।
इससे पुनः यह स्पष्ट होता है कि सभ्यता का सम्बन्ध संस्कृति के भौतिक पक्ष से है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि एक सामाजिक प्राणी के रूप में मानव जितने भी भौतिक पदार्थों का आविष्कार करके उन्हें उपयोग में लाता है, उन सभी की सम्पूर्णता को हम सभ्यता कहते हैं। इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि सभ्यता की अवधारणा को स्पष्ट करके संस्कृति से उसके अन्तर तथा सम्बन्ध की विवेचना की जाए। प्रस्तुत अध्याय इसी दिशा में किया जाने वाला एक सरल प्रयास है।
साधारणतया ‘सभ्यता’ तथा ‘संस्कृति’ शब्द का प्रयोग समान अर्थ में ही कर लिया जाता है। यह सच है कि उन्नीसवीं शताब्दी के कुछ विद्वानों ने सभ्यता और संस्कृति को एक-दूसरे से भिन्न अवधारणाओं के रूप में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया, लेकिन उनके विचार मुख्यतः दर्शन पर आधारित थे। उनके अनुसार संस्कृति का सम्बन्ध शिष्टाचार और मानसिक प्रशिक्षण से था, जबकि सभ्यता को कला और विज्ञान की विकसित अवस्था के रूप में स्पष्ट किया गया। बाद में अनेक समाजशास्त्रियों ने संस्कृति और सभ्यता को एक-दूसरे का पूरक मानने के बाद भी इनके बीच एक स्पष्ट अंतर का उल्लेख किया। इस सम्बन्ध में बाँटोमोर ने लिखा कि “संस्कृति का सम्बन्ध सामाजिक जीवन के विचारात्मक पक्ष से है जबकि सभ्यता सामाजिक जीवन के भौतिक पक्ष को स्पष्ट करती है।” इसका तात्पर्य यह है कि सभ्यता का अर्थ भौतिक साधनों में होने वाली वृद्धि से है, जबकि संस्कृति का सम्बन्ध उन सभी नियमों और विचारों से हैं जिनके बीच रहकर हमारा जीवन व्यतीत होता है। इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्ययक है कि सभ्यता के अन्तर्गत हम केवल उन्हीं भौतिक पदार्थों को सम्मिलित करते हैं, जो एक साधन के रूप में हमारी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। उदाहरण के लिए, विभिन्न प्रकार की
मशीनें, उपकरण, बर्तन, सजावट के सामान, परिवहन के साधन तथा औषधियाँ आदि ऐसे साधन हैं जिनके द्वारा हम अपनी तरह-तरह की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। इस प्रकार आवश्यकता पूर्ति के यह सभी साधन सभ्यता के अंग है। दूसरी बात यह है कि किसी समाज में आवश्यकताओं को पूरा करने वाले इन भौतिक साधनों का रूप जितना अधिक विकसित होता है, वहाँ की सभ्यता तुलनात्मक रूप से उतनी ही उच्च अथवा विकसित कही जाती है। इसी तथ्य के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने सभ्यता को परिभाषित किया है
मैकाइवर ने लिखा है, “मनुष्य ने अपने जीवन की विभिन्न दशाओं को नियंत्रित करने के लिए जिन पदार्थों का निर्माण किया है, उन्हीं के संगठन अथवा विन्यास को हम सभ्यता कहते हैं।” इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य ने अपनी जैविकीय, प्राकृतिक तथा सामाजिक-आर्थिक दशाओं को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न प्रकार की जिन औषधियों, पुलों, बाँधों, नहरों, उर्वरक पदार्थों, उपकरणों, मशीनों वस्त्रों तथा कलात्मक वस्तुओं का निर्माण किया है, उन सभी के संगठन को सभ्यता कहा जाता है।
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कान्त के शब्दों में, “सभ्यता मनुष्य के बाह्य आचरणों की वह व्यवस्था है जिसे अनेक भौतिक पदार्थों के द्वारा एक मूर्त रूप प्राप्त हो जाता है।” स्पष्ट है कि संस्कृति की प्रकृति जहाँ अमूर्त होती है, वहीं सभ्यता का रूप मूर्त होता है। सभ्यता से सम्बन्धित पदार्थों को देखा जा सकता है तथा उनकी उपयोगिता की माप की जा सकती है।
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