सात वाहन कौन थे? – विद्वानों में इस प्रश्न को लेकर मतभेद है कि सातवाहन कौन थे? जहाँ कुछ विद्वान उन्हें क्षत्रिय मानते हैं, वहीं कुछ विद्वान उन्हें ब्राह्मण मानते हैं। कथा सरितसागर में सातवाहन की उत्पत्ति साद नामक यक्ष से बतायी गई है जिस पर राजा सवारी करता था। अभिधम्मचिन्तामणि के अनुसार सातवाहन का अर्थ है, “जिसे सुखदायक वाहन प्राप्त हो”। इन उद्धरणों से सातवाहनों की व्युत्पत्ति पर तो प्रकाश पड़ता है, परन्तु उनकी जाति का नहीं। उनकी जाति का निर्धारण उनके अभिलेखों के आधार पर किया जा सकता है। नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णी को क्षत्रियों के झूठे मान और गौरव का दमन करने वाला कहा गया है। इसमें सातवाहनों के क्षत्रिय होने की बात निराधार प्रतीत होती है। पुनः गौतमीपुत्र को एक बम्हन्स अर्थात् अद्वितीय ब्राह्मण कहा गया है। ‘भण्डारकर महोदय इस शब्द का अर्थ ब्राह्मणों का एकमात्र रक्षक मानकर सातवाहनों को क्षत्रिय मानते हैं, परन्तु अनेक विद्वानों ने सातवाहनों को ब्राह्मण ही माना है। सातवाहनों ने ब्राह्मण धर्म की जो पुनर्स्थापना की उससे भी इस तर्क को बल मिलता है कि सातवाहन ब्राह्मण थे।
गौतमीपुत्र शातकर्णि सातवाहन वंश का सर्वाधिक महान शासक था। पुराणों में उसे सातवाहन वंश का तेइसव शासक बताया गया है। वह बड़ा ही पराक्रमी एवं महत्वाकांक्षी शासक था। उसके शासनकाल में सातवाहन सत्ता का पुनःस्थापन हुआ। दक्षिण भारत के इतिहास में उसके शासन का बड़ा ही महत्व है। उसके पुत्र वशिष्ठपुत्र पुलुमावी के नासिक अभिलेख में उसकी उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को सातवाहनकुलयसपतिथपनकरस (सातवाहन कुल के यश को फिर से स्थापित करने वाला), खतिय दपमान मदनस (क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन करने वाला), शक यवन पट्टव निसूदनस (शक, पट्टव और यवन का नाश करने वाला), खखरात वय निरवसेसकरस (क्षहरात वंश को निर्मूल करने वाला) कहा गया है।
इसी अभिलेख में उसे सर्वराजलोकमण्डलप्रतिगहीतशासनस्य त्रिसमुद्रतोय पीतवाहनस्य अपराजितविजयपताकः अनेकसमरविजितशत्रुसंधस्य कहा गया है, जिससे उसके पराक्रम का पता चलता है। उसने सातवाहन साम्राज्य का अभूतपूर्व विस्तार किया। उसके साम्राज्य के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रान्त थे
असिक- गोदावरी और कृष्णा के मध्य का प्रदेश ।
अश्मक- गोदावरी का तटीय प्रदशा
मूलक- पैठन के चतुर्दिक, का प्रदेश ।
सुराष्ट्र- दक्षिणी काठियावाड़
कुकुर- उत्तरी काठियावाड़। अपरांत महाराष्ट्र का उत्तरी प्रदेश ।
अनूप- नर्मदा नदी के तट पर स्थित माहिष्मती प्रदेश ।
विदर्भ- बरार |
आकर – पूर्वी मालवा।
अवन्ती- पश्चिमी मालवा।
गौतमीपुत्र शातकर्णि ने क्षहरात वंश को पराजित कर पुनः अपने वंश का राज्य स्थापित किया था। कतिपय मुद्राओं पर अंकित लेखों से ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि उसने नहपान को पराजित किया था। गौतमीपुत्र शातकर्णि ने अपने वंश की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की। नासिक-प्रशस्ति में उसे क्षहरात वंश का विनाशक तथा सातवाहन वंश की प्रतिष्ठा पुनः लाने वाला कहा गया है। नासिक जिले से प्राप्त मुद्राओं से सिद्ध हो जाता है कि नहपान को गौतमीपुत्र ने पराजित किया था। नहपान द्वारा चलाए गए सिक्कों पर गौतमीपुत्र ने अपना विरुद पुनः अंकित करवाया। परन्तु नहपान और गौतमीपुत्र शातकर्णि समसामयिक थे अथवा नहीं, इस पर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का मत है कि नहपान को पराजित करने के बाद ही गौतमीपुत्र शातकर्णि ने महाराष्ट्र पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसने गुजरात, सौराष्ट्र, मालवा, बरार, पूना, नासिक आदि के क्षेत्रों पर अपना अधिकार कायम किया और अपने शासन के अठारहवें वर्ष नासिक के पास पांडुलेनि में एक गुफागृह बनवाकर उसका दान किया। अपने शासन के 24वें वर्ष उसने कुछ साधुओं को भूमिदान किया,
जिसका विवरण एक अभिलेख में उसने खुदवाया। इस लेख से प्रमाणित होता है कि उसने 24 वर्ष तक राज्य किया था। नासिक गुहाभिलेख में लिखा है कि “उसके घोड़ा ने तीन समुद्रों का पानी पिया था।” गौतमीपुत्र की सैनिक विजय का परिणाम यह हुआ कि नहपान की मुद्राओं को उसने फिर से अपने नाम से अंकित कराया। अपने साम्राज्यवादी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने एक विशाल एवं सुसंगठित सेना का निर्माण किया।
गौतमीपुत्र शातकर्णि एक विजेता के साथ-साथ एक कुशल प्रशासक भी था। वह अपने राज्य में धर्म के अनुसार कर लगाता था और अपराधियों के साथ भी वह उदारता का व्यवहार करता था। उसकी न्याय तथा शासन की व्यवस्था कठोर नहीं थी। वह वैदिक धर्म का अनुयायी था। उसने वर्णाश्रम को बनाए रखने की यथेष्ट चेष्टा की। वह अत्यन्त दयावान था। प्रजा के सुख-दुःख को वह अपना सुख-दुःख समझता था और अपनी प्रजा के आनन्द के लिए वह उत्सव और समाज का प्रबन्ध करता था। वह समस्त आगमों का ज्ञाता था। वह एक महान निर्माता भी था और नासिक जिले में उसने बेनकटक नामक नगर का निर्माण कराया।
डॉ० दिनश चन्द्र सरकार का मत है कि अपने जीवन के अन्तिम समय गौतमीपुत्र शातकर्णि को कर्दमक शकों के हाथ हार खानी पड़ी। शातकर्णि ने नहपान से जो कुछ जीता था, उसे शकों ने उससे छीन लिया। अपने इस सम्बन्ध को ठीक करने के लिए शातकर्णि ने महाक्षत्रप रुद्रदामन के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। उस समय पश्चिमी भारत में क्षत्रपों का बोलबाला था। गौतमीपुत्र ने लगभग 24 वर्ष तक शासन किया (106 ई. से 130 ई. तक) प्रो. डबेल का मत है. कि उसकी मृत्यु पर उसकी माता गौतमी बलश्री ने नासिक अभिलेख खुदवाया, इसलिए इस अभिलेख को ‘फ्यूनरल ओरेशन’ कहा गया है।
सातवाहन शासकों ने लगभग 300 वर्षों तक दक्षिण भारत के अधिकांश भाग पर शासन किया। उन्होंने सत्ता को केन्द्रीकृत करने के लिए राजतन्त्र में देवी तत्वों का समावेश किया। वशिष्ठीपुत्र पुलुमावि के नासिक गुहालेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि की तुलना राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम आदि प्राचीन पौराणिक एवं दिव्य विभूतियों से की गई है। सातवाहन शासक राजा अथवा महाराज की उपाधियाँ ही धारण करते थे। सातवाहन लेखों में राजाओं के नाम मातृप्रधान है तथा रानियों के लिए देवी व महादेवी पदवियाँ मिलती है। राजाओं के नामों में भी मातृ प्रधानता झलकती है जैसे गौतमीपुत्र शातकर्णि व वशिष्ठीपुत्र पुलुमावि आदि ।
शासन व्यवस्था
प्रशासन की सुविधा के लिए साम्राज्य को अनेक विभागों में विभक्त किया गया था, उन्हें ‘आहार’ कहते थे। प्रत्येक आहार में एक निगम तथा कई गाँव होते थे। आहार का प्रशासन अमात्य के अधीन होता था। नगरों का प्रशासन निगम सभा द्वारा चलाया जाता था। निगम सभा में जनता के प्रतिनिधि होते थे। ग्राम और निगमों को स्वशासन की स्वतन्त्रता थी।
सामाजिक जीवन
सातवाहन काल में दक्षिण का समाज वर्णाश्रम पर आधारित था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में ब्राह्मण को सर्वोच्च तथा शूद्रों को निम्नतर स्थान प्रदान था। व्यवसाय के आधार पर भी समाज का वर्गीकरण किया जाता था। सर्वोच्च वर्ग में राजकीय पदाधिकारी, सामन्त एवं महासेनापति आदि थे। दूसरे वर्ग में कर्मचारी, व्यापारी, वणिकपति और बेचिन आदि सम्मिलित थे। तृतीय वर्ग में लेखक वैद्य, स्वर्णकार, गन्धक, हालाकीय आदि थे। चतुर्थ वर्ग में मालाकार कृषक आदि थे।
समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार था। परिवार का प्रधान गृहपति कहलाता था। उसकी आशा का पालन परिवार का प्रत्येक सदस्य करता था। समाज में नारी को सम्मान प्राप्त था। इस समय की नारियाँ धार्मिक कार्यों में अपने पतियों के साथ भाग लेती थी। शातकर्णि के अश्वमेध यज्ञ में उसकी पत्नी नामनिका ने भाग लिया था। आवश्यकता पड़ने पर नारियां शासन प्रबन्ध भी करती थी और अपने बच्चों की संरक्षिका बनकर राज्य भी करती थीं।
धार्मिक दशा
यद्यपि सातवाहन ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे तथापि वे अन्य धर्मो के प्र सहिष्णु थे। सातवाहन शासकों ने बौद्ध धर्म को भी सरंक्षण प्रदान किया। उन्होंने अनेक बौद्ध विहारों का भी निर्माण कराया जिनमें नासिक व कार्ले में निर्मित अनेक गुहा चैत्य व गुहा विहार सम्मिलित है। इस समय दक्षिण में हीनयान सम्प्रदाय उन्नति कर रहा था और इनमें महात्मा बुद्ध के प्रतीकों
स्तूपों, पैरों के चिन्हों, पवित्र वृक्ष, धर्मचक्र आदि की पूजा की जाती थी बाद में बुद्ध की मूर्तिपूजा भी की जाने लगी। इस समय दक्षिण के प्रमुख बौद्ध केन्द्र अमरावती, नागार्जुनकाण्ड, रामतीर्थतम्, कोडावली, अल्लरू आदि थे। इस काल में धार्मिक सहिष्णुता व्याप्त थी। सभी धर्म के लोग एक दूसरे का सम्मान करते थे।
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स्थापत्य कला
सातवाहन काल में स्थापत्य कला का भी विकास हुआ। इस काल की स्थापत्य कला के दो रूप दिखायी पड़ते हैं- पहला लौकिक तथा दूसरा धार्मिक। लौकिक स्थापत्य कला में राजप्रासाद, नगर, भवन आदि आते हैं। धार्मिक स्थापत्य कला में स्तूप, चैत्य, बिहार आदि शामिल है। सातवाहन कालीन स्तूपों में अमरावती, नागार्जुन कोण्ड, पेडुगंजम, पण्टशाल, अल्लक गुण्डुल पल्ली आदि स्तुप विशेष उल्लेखनीय है जिनमें अमरावती का स्तूप सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
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