सांस्कृतिक सापेक्षवाद
सांस्कृतिक सापेक्षवाद की अवधारणा का सम्बन्ध इस तथ्य से है कि विश्व की किसी भी संस्कृति की श्रेष्ठता या निम्नता का मूल्यांकन किसी दूसरी संस्कृति के मानदण्डों के आधार पर नहीं किया जा सकता। इसका कारण यह है कि प्रत्येक संस्कृति का विकास एक विशेष स्थान, की आवश्यकताओं, समुदाय के मूल्यों तथा सामाजिक पर्यावरण के अनुसार होता है। साधारण रूप से हम एक संस्कृति की अनेक विशेषताओं, जैसे बहुपति विवाह की परम्परा या सम्मान प्रदर्शन के ढंगों को बहुत पिछड़ा हुआ और कभी-कभी बुरा समझ लेते हैं, लेकिन सम्भव है कि वे विशेषताएँ उस समुदाय के लिए उपयोगी और हितकर हों। इसका तात्पर्य है कि संस्कृति की श्रेष्ठता का निर्धारण एक सापेक्षवादी दृष्टिकोण के आधार पर ही हो सकता है, निरपेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर नहीं। वास्तविकता यह है कि संस्कृति में समायोजन का गुण होता है। संस्कृति का सम्बन्ध जिन मूल्यों, विश्वासों, व्यवहार के नियमों और कार्य प्रणालियों से होता है, वे सभी उससे सम्बन्धित लोगों को अपने पर्यावरण से अभियोजन करने की क्षमता प्रदान करती हैं। इस दशा में एक विशेष संस्कृति का मूल्यांकन इस दृष्टिकोण से करना आवश्यक है कि अपने से सम्बन्धित समुदाय के लिए उसकी उपयोगिता क्या है।
संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न पक्ष इस तरह के होते हैं जिनका कोई सार्वभौमिक रूप नहीं होता। उदाहरण के लिए, क्या नैतिक है और क्या अनैतिक, किसे हम ज्ञान कहें और किसे -अज्ञान, कल्पना और यथार्थ में क्या अन्तर है, कौन-से व्यवहार हमारे जीवन को अधिक संगठित वना सकते हैं, आदि ऐसे प्रश्न हैं जिनके अर्थ विभिन्न संस्कृतियों में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। इस अर्थ में सांस्कृतिक सापेक्षवाद उन वृहत् सिद्धांतों को स्वीकार नहीं करता जो मार्क्सवाद, प्रकार्यवाद, संरचनावाद या उद्विकासवाद के रूप में तार्किक आधार पर सभी घटनाओं की विवेचना करते हैं।
आरम्भ में हर्सकोविट्स ने सांस्कृतिक सापेक्षवाद को एक ऐसी सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया जिसके आधार पर हम विभिन्न संस्कृतियों के प्रतिमानों, जीवन शैली, सामाजिक और नैतिक मूल्यों तथा विभिन्न संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके उनकी समानताओं और असमानताओं को समझ सकते हैं। लिण्टन तथा अनेक दूसरे मानवशस्त्रियों ने सांस्कृतिक सापेक्षवाद को व्यवहार प्रतिमानों की मित्रता के आधार पर स्पष्ट किया। उनके अनुसार शिष्टता और सम्मान के तरीके सभी सांस्कृतियों की प्रमुख विशेषता है, लेकिन विभिन्न संस्कृतियों में इनकी अभिव्यक्ति भिन्न-2 रूप से की जाती है। भारत में अभिवादन के लिए हम हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं अथवा अधिक सम्मान देने के लिए चरण स्पर्श करते हैं। पश्चिमी संस्कृति में यही कार्य हाथ मिलाकर अथवा टोप उतारकर एवं झुककर किया जाता है। मसाई जनजाति में एक-दूसरे पर थूकने की मुद्रा बनाकर सम्मान दिया जाता है। इसका तात्पर्य है कि सांस्कृतिक व्यवहारों की तुलनात्मक प्रकृति को ही साधारणतया सांस्कृतिक-सापेक्षवाद समझ लिया जाता है।
सांस्कृतिक-सापेक्षवाद के बारे में वर्तमान समाजशास्त्रीय विचार भिन्न हैं। पीटर विन्च ने अपने एक लेख ‘अन्डरस्टैन्डिंग ए प्रिमिटिव सोसाइटी, में यह स्पष्ट किया कि जीवन की वास्तविकताओं से सम्बन्धित हमारे विचार एक बड़ी सीमा तक समाज में एक-दूसरे के साथ स्थापित होने वाले सम्बन्धों और व्यवहार के तरीकों पर निर्भर होते हैं। जिन विचारों को हम सत्य, नैतिक रूप से उचित और समाज के लिए उपयोगी समझते हैं, उन्हीं को हम अपनी संस्कृति का हिस्सा मानने लगते हैं। इसका तात्पर्य है कि सांस्कृतिक-सापेक्षवाद किसी ऐसे सार्वभौमिक सिद्धांत में विश्वास नहीं करता जिसके आधार पर अक्सर विभिन्न संस्कृतियों की विवेचना कर दी जाती है।” सांस्कृतिक सापेक्षवाद का तात्पर्य केवल विभिन्न संस्कृतियों से सम्बन्धित सामाजिक यथार्थ तथा समाज में आवश्यक समझे जाने वाले व्यवहार प्रतिमानों को समझना है।
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एडवर्ड सापिर, विलार्ड क्यूने तथा अनेक दूसरे भाषाशास्त्री यह मानते हैं कि यदि हमारे सामाजिक संसार का निर्माण भाषा से हुआ है, तब सामाजिक वास्तविकता भी कोई ऐसा तथ्य नहीं है जिस पर किसी एक संस्कृति का अधिकार हो। विश्व की विभिन्न संस्कृतियों की विशेषताएँ एक-दूसरे से इस कारण भिन्न होती हैं कि भिन्न-2 स्थानों पर लोगों के अनुभव, ज्ञान का स्तर एवं आवश्यकताएँ भिन्न-2 होती हैं। इसका अर्थ है कि केवल तुलना के लिए ही हम विभिन्न संस्कृतियों की विशेषताओं को स्पष्ट कर सकते है, उनके बीच किसी तरह की उच्चता या निम्नता को सिद्ध नहीं कर सकते। यही कारण है कि सांस्कृतिक सापेक्षवाद को समझने के लिए अब लोक-जीवन पद्धति को अधिक महत्व दिया जाने लगा है।
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