सामाजिक विकास में संस्कृति को एक बाधा के रूप में समझाइये।

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सामाजिक विकास में संस्कृति एक बाधा – मानव जितने भी विचारों, विश्वासों, धार्मिक नियमों, प्रथाओं, परम्पराओं और जनरीतियों में जीवन व्यतीत करते हैं, वे सब अभौतिक संस्कृति हैं। वीरस्टीट ने कहा है कि अभौतिक संस्कृति में सभी विश्वासों, पौराणिक कथाओं, साहित्य, लोकोक्तियों, प्रथाओं, लोकाचारों, संस्कारों, कर्मकाण्डों,

सदाचार के नियमों को सम्मिलित किया जा सकता है। यही कारण है कि वी. कुप्पुस्वामी ने ‘समाज मनोविज्ञान : एक परिचय’ में कहा है कि ‘संस्कृति का सार भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा वे अभिवृत्तियां तथा विश्वास है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचारित होते हैं।” इस विश्लेषण से ज्ञात होता है कि संस्कृति का भौतिकपक्ष सभ्यता है तथा उसका अभौतिक पक्ष जीवन मूल्य एवं अन्य ज्ञान-विज्ञान की धाराएं हैं।

पारिस्थितिकी को परिभाषित कीजिए तथा पारिस्थितिकी संतुलन के लिए सुझाव दीजिए।

सामाजिक दृष्टि से द्विज या ब्राह्मण वर्ग समाज विकास में बाधक हैं, क्योंकि इससे निम्नवर्गीय समाज का विकास रुकता है। पर जब निम्नवर्गीय समाज द्विजवर्गीय समाज के रीति- रिवाजों, कर्मकाण्ड, विचारधारा, जीवन पद्धति अपनाकर अपनी स्थिति उनसे ऊंची मानने लगता है, तब वस्तुतः यही उसी बिन्दु की ओर बढ़ जाना है, जहां से परिवर्तन की धारा फूटी है।

यह एक प्रकार से निम्न वर्ग का ब्राह्मणीकरण है जो विकास की चक्राकार गति को व्यक्त करता है, जो सामाजिक विकास में आगे चलकर अवरोध पैदा करता है। क्योंकि निम्नवर्गीय समाज द्विजवर्गीय समाज से ऊंचा उठकर उसे निम्नवर्गीय समाज की स्थिति में डाल देगा। परिणामतः एक सामाजिक असन्तुलन पैदा हो जाएगा। यह प्रक्रिया एक प्रकार से विकास में अवरोधक है। समाज का सम्पूर्ण विकास महत्वपूर्ण है न कि किसी एक वर्ग विशेष का विकास।

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