सामाजिक वर्ग विभाजन के आधारों पर प्रकाश डालिए।

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सामाजिक वर्ग विभाजन के आधार विभिन्न विद्वानों ने वर्ग-निर्माण के भिन्न-भिन्न आधार प्रस्तुत किये हैं। एक और मार्क्स और वेबर का विचार है कि केवल आर्थिक स्थिति अथवा सम्पत्ति ही वर्ग निर्माण का सबसे बड़ा आधार है जबकि कुछ दूसरे विद्वानों ने सांस्कृतिक विशेषताओं और सामाजिक स्थिति को वर्ग-निर्माण का सबसे बड़ा आधार मान लिया है। मैकाइवर के अनुसार, यह केवल पद की भावना ही है जो आर्थिक, राजनीतिक अथवा धार्मिक शक्तियों, जीवनयापन के विशेष ढंगों और सांस्कृतिक विशेषताओं द्वारा एक वर्ग को दूसरे से पृथक करती है।” वास्तविकता यह है कि वर्ग-निर्माण को केवल किसी एक विशेष आधार पर ही नहीं समझा जा सकता बल्कि इसे समझने के लिए उन सभी विशेषताओं को ध्यान में रखना होगा जिनको आधार मानते हुए व्यक्ति को एक विशेष वर्ग की सदस्यता प्राप्त होती है। राबर्ट बीरस्टीड ने वर्ग-निर्माण के सात प्रमुख आधारों का उल्लेख किया है, जिन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है।

(1) सम्पत्ति, धन और आय

वर्ग निर्माण के आधार के रूप में सम्पत्ति और आय को सबसे प्रमुख स्थान दिया जाता है। इसका कारण यह है कि वर्तमान जटिल समाजों में धन के द्वारा न केवल सभी वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं बल्कि धन के संचय को ही व्यक्ति की सफलता का आधार भी मान लिया जाता है। दूसरी बात यह है कि धन के द्वारा व्यक्ति को जीवन में विकास

करने की भी सुविधाएं प्राप्त हो जाती है। वर्तमान समाज में यद्यपि सरकार अनेक करों के द्वारा सम्पत्ति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के लिए हस्तांतरित करने पर रोक लगाती है, लेकिन तो भी यह सच है कि उत्तराधिकारर में बड़ी सम्पत्ति प्राप्त होने से व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था में सरलता से ऊँचा स्थान प्राप्त कर लेता है।

केवल सम्पत्ति और धन की मात्रा ही वर्ग-विभाजन का आधार नहीं है बल्कि एक विशेष वर्ग में व्यक्ति की सदस्यता इस बात पर भी निर्भर होती है कि उसने सम्पत्ति को किस प्रकार अर्जित किया है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति किसी निम्न समझे जाने वाले अथवा समाज-विरोधी ढंग से बहुत-सा धन अर्जित कर ले, तो भी साधारणतया उसे वर्ग की सदस्यता प्राप्त नहीं हो सकती। इसी प्रकार यदि एक व्यक्ति अधिक सम्पत्ति अर्जित करके भी उसका घृणित ढंग से उपयोग करे अथवा आवश्यकता होने पर भी उसे काम में न लायें, तो भी उसे उच्च वर्ग का सदस्य कहने में आपत्ति की जाती है। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति उत्तराधिकार में अधिक सम्पत्ति प्राप्त करते हैं, उन्हें भावनात्मक रूप से उतनी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो पाती, जितनी प्रतिष्ठा उन लोगों को मिलती है जो अपने ही प्रयत्नों से सम्पत्ति को अर्जित करते हैं। इसके पश्चात् भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी समाजों में धन और सम्पत्ति वर्ग निर्माण का समान रूप से महत्वपूर्ण आधार नहीं होता।

(2) परिवार तथा नातेदारी

अधिकांश समाजों में व्यक्ति की वर्ग स्थिति का निर्धारण करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि वह किस परिवार का सदस्य है और वह जिन व्यक्तियों का सम्बन्धी है, उनकी सामाजिक स्थिति क्या है? यही कारण है कि वर्ग-व्यवस्था में एक बार व्यक्ति को जो स्थिति मिल जाती है, यह साधारणतया एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती है। इसके पश्चात भी बीरस्टीड का कथन है, “सामाजिक वर्ग की कसौटी के रूप में परिवार और नातेदारी का महत्व सभी समाजों में समान नहीं है, बल्कि यह अनेक आधारों में से केवल एक विशेष आधार है।” हमारे जैसे समाज में आज भी व्यक्ति के परिवार की स्थिति उसे एक विशेष वर्ग की सदस्यता देने में बहुत महत्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट होता है कि एक विशेष वर्ग की सदस्यता यदि परिवार और नातेदारों पर आधारित होती है तब सामान्यतया यह समझ लेना चाहिए कि यहां की सामाजिक व्यवस्था अर्जित स्थिति की अपेक्षा प्रदत्त स्थिति को अधिक महत्व देती है।

(3) आवास की दशा-

अनेक विद्वानों ने यह स्पष्ट किया है कि वर्ग-स्थिति इस बात पर भी निर्भर होती है कि उसके निवास स्थान के चारों ओर की परिस्थिति सम्बन्धी विशेषताएं कैसी है? साधारणतया जिन व्यक्तियों का निवास स्थान मुख्य आबादी से बाहर के क्षेत्रों में होता है उन्हें अधिक प्रतिष्ठा दे दी जाती है। इसका कारण यह भावना है कि दूरस्थ स्थानों पर वही व्यक्ति रह सकते हैं जिनके पास अधिक आर्थिक साधन होते हैं। वार्नर ने यह बताया है कि कुछ बहुत पुराने परिवार जो मुख्य आबादी के मध्य में रहते हैं, उन्हें भी उच्च वर्ग की सदस्यता प्राप्त हो जाती है, यदि के अनेक पीढ़ियों से उसी स्थान पर रहते आये हों।

(4) निवास्थान की अवधि-

एक व्यक्ति चाहे कितनी ही सम्पत्ति एकत्रित कर ले अथवा कितने ही अच्छे क्षेत्र में अपना निवास बना ले, लेकिन साधारणतया उसे उच्च वर्ग की सदस्यता तब तक नहीं मिलती जब तक वह एक पुराने सम्भ्रांत परिवार का सदस्य नहीं होता। यही कारण है कि वर्ग-व्यवस्था में ऊंचा स्थान प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अपने जन्मस्थान अथवा पूर्वजों के स्थान को छोड़ना नहीं चाहते। साधारणतया जो व्यक्ति सदवें स्थान परिवर्तन करते रहते है उन्हें साधन-सम्पन्न होने के बाद भी सर्वोच्च वर्ग की सदस्यता प्राप्त नहीं हो पाती। यद्यपि यह बताना बहुत कठिन है कि पुराने परिवार अथवा निवास स्थान की अवधि के साथ प्रतिष्ठा की भावना क्यों जुड़ी होती है लेकिन यह भावना प्रत्येक समाज में पाई अवश्य जाती है।

(5) व्यवसाय की प्रकृति-

बहुत लम्बे समय से ही यह सिद्ध होता रहा है कि व्यक्ति जिस प्रकार से आजीविका उपार्जित करते हैं उसका उनकी वर्ग स्थिति पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ, अधिकारी, प्रशासक, प्रबंधक, शिक्षाधिकारी, निगम संचालक, कानून-विज्ञ चिकित्सक और इंजीनियर आदि चाहे कैसी भी आर्थिक स्थिति में हों अथवा उनके परिवार की स्थिति चाहे कैसी भी रही हो, लेकिन उन्हें वर्ग-व्यवस्था में साधारणतया ऊंचा स्थान प्राप्त हो जाता है। इसके विपरीत, एक व्यक्ति तस्करी, शराब के ठेके अथवा किसी अनैतिक व्यवसाय के द्वारा चाहे कितनी ही बड़ी धनराशि एकत्रित कर ले लेकिन सम्पूर्ण वर्ग-व्यवस्था में उसे कोई उच्च स्थान प्राप्त नहीं हो पाता।

(6) शिक्षा-

सभी समाजों में शिक्षा का सम्बन्ध चाहे धर्म से हो अथवा उद्योग से, यह व्यक्ति को एक विशेष स्थिति प्रदान करने वाला महत्वपूर्ण आधार रहा है। इसका कारण यह है कि शिक्षा प्राप्त करने के लिए विशेष प्रयत्नों की ही आवश्यकता नहीं होती, बल्कि शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति से महत्वपूर्ण कार्यों को उचित रूप से पूरा करने की भी आशा की जाती है। इतना अवश्य है कि कुछ समाजों में शिक्षित व्यक्तियों को दूसरे समाजों की तुलना में अधिक सम्मान दिया जाता है. जबकि अनेक समाजों में व्यक्ति का शिक्षित होना एक सामान्य सी बात है। धर्म प्रधान समाजों में धार्मिक ज्ञान प्राप्त किये बिना व्यक्ति को सामाजिक स्थिति मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता जबकि वर्तमान औद्योगिक समाज में उच्च स्तर प्राप्त करने के लिए प्रौद्योगिक ज्ञान और रचनात्मक विचारधारा को सबसे अधिक आवश्यक समझा जाता है।

मानव जीवन में शिक्षा के दो कार्यों का वर्णन कीजिए।

(7) धर्म-

यद्यपि एक विशेष वर्ग की स्थिति प्राप्त करने में धर्म को बहुत महत्वपूर्ण आधार तो नहीं माना जा सकता लेकिन साथ ही इसके प्रभाव की अवहेलना भी नहीं की जा सकती। जिन समाजों में अनेक धार्मिक समुदाय पाये जाते हैं और परम्परागत विचारों को प्राथमिकता दी जाती है वहां आज भी व्यक्ति की वर्गगत स्थिति का निर्धारण करने में धर्म का प्रमुख हाथ रहता है। इसके पश्चात भी यह सच है कि वर्तमान युग में जैसे-जैसे परम्परावादी समाजों की संख्या कम हो रही है और बंद समाज मुक्त समाज में परिवर्तित हो रहे हैं, वर्ग-विभाजन के आधार के रूप में धर्म का महत्व भी कम होता जा रहा है।

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