सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप (Forms of Social Stratification)– यद्यपि स्तरीकरण प्रत्येक समाज की एक आवश्यक स्थिति है किन्तु स्तरीकरण का स्वरूप प्रत्येक समाज में उसकी परम्पराओं, सामाजिक मूल्यों, राजनैतिक विचारधाराओं और आवश्यकतानुसार भिन्न- भिन्न हो सकता है। यह स्तरीकरण किसी समाज में स्थायी रूप ले लेता है जिससे अनेक वर्षों तक कठिनता से ही कोई परिवर्तन हो पाता है, जबकि कुछ समाजों में तीव्र गति से परिवर्तन होते रहते हैं। इसके आधार पर यह आवश्यक हो जाता है कि वर्तमान विश्लेषण से हम सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न स्वरूपों को समझ लें। इन सभी प्रकार के सामाजिक स्तरीकरण को हम केवल तीन स्वरूपों के अन्तर्गत सम्मिलित करते हुए समझेंगे-
(1) जातिगत स्तरीकरण (Caste Stratification)
जन्म के आधार पर निशित स्तरीकरण की उत्तम अभिव्यक्ति जातिगत स्तरीकरण है। परम्परागत भारतीय समाज में स्तरीकरण का जातीय स्वरूप अत्यन्त ही स्पष्ट रहा है तथा इसका प्रभाव इतना विस्तृत था कि भारत में बाहर से आकर बसने वाले विदेशी समूह जैसे मुसलमान, ईसाई, आदि भी इसके प्रभाव से अपने को मुक्त न रख सके। जातिगत स्तरीकरण के अन्तर्गत ब्राह्मणों की स्थिति सर्वमान्य रूप से सबसे ऊंची थी और उनके बाद क्रमशः क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों का स्थान था। कालान्तर में इन चार प्रमुख जातियों के बीच असंख्य उपजातियां पनप गई और उनमें आपस में एक उच्च-निम्न का संस्तरण हो गया। उसी प्रकार भारतीय मुस्लिमों में भी जातीय आधार पर जो स्तरीकरण देखने को मिलता है उसके अनुसार उच्चता- निम्नता का संस्तरण सैयद शेख, मुगल, पठान, राजपूत आदि हैं। जातिगत स्तरीकरण जन्म पर आधारित होता है। अतः स्तरीकरण के अन्य सभी स्वरूपों से अधिक स्थिर तथा निचित संस्तरण कहा जा सकता है। जिस व्यक्ति का जन्म एक बार किसी परिवार में हो गया है तो वह अपनी पूरी जिन्दगी के लिए उस जाति की स्थिति को प्राप्त कर लेता है। अतः इस प्रकार के स्तरीकरण में उच्च स्तर से निम्न स्तर को या निम्न स्तर से उच्च स्तर को सदस्यों का आना-जाना सामान्यतया सम्भव नहीं है।
(2) प्रजातीय स्तरीकरण (Racial Stratification)
स्तरीकरण का दूसरा स्वरूप जातीय स्तरीकरण से कुछ मिलता-जुलता प्रजातीय स्तरीकरण है। कुछ निश्चित लक्षणों के आधार पर एक प्रजाति को हम दूसरी प्रजातियों से अलग करते हैं और चूंकि शारीरिक लक्षणों में अच्छे- बुरे और उच्चता- निम्नता का कोई औचित्य नहीं हो सकता इसलिए प्रजातीय आधार पर सामाजिक संस्तरण नहीं होना चाहिए। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता है और कुछ समाजों में प्रजातीय श्रेष्ठता के या निम्नता के सिद्धान्तों को केवल माना ही नहीं जाता बल्कि उन्हें खुले तौर पर लागू किया जाता है। सामाजिक संस्तरण का एक स्पष्ट स्वरूप सामने आता है। जिसके अनुसार श्वेत प्रजाति की स्थिति सबसे निम्न होती है। इस प्रकार स्तरीकरण का सर्वोत्तम उदाहरण अमेरिका में देखने को मिलता है।
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(3) वर्गगत स्तरीकरण (Class Stratification)
वर्गगत स्तरीकरण आधुनिक मुक्त समाजों की एक विलक्षणता है किन्तु आदिम समाजों तक में भी वर्गगत संस्करण देखने को मिलता है। इस प्रकार का संस्तरण आयु, व्यवसाय, आय, सम्पत्ति, धर्म, राजनीतिक सत्ता, शिक्षा, कार्यकुशलता आदि आधारों पर होता है क्योंकि इनके आधार पर व्यक्ति को एक निश्चित नक स्थिति प्राप्त हो जाती है तथा एक समान स्थिति वाले व्यक्ति मिलकर समाज में एक स्तर का निर्माण करते हैं और ये सभी स्तर उच्चता- निम्नता के आधार पर सज जाने के फलस्वरूप सामाजिक संस्तरण का एक स्पष्ट रूप सामने लाते हैं। परन्तु इस सम्बन्ध में स्मरणीय है कि संस्तरण की यह व्यवस्था जातीय अथवा प्रजातीय संस्तरण की मांति स्थिर तथा स्पष्ट नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि वर्गगत संस्तरण के आधार शिक्षा, सम्पत्ति, व्यवसाय, धर्म, सता आदि स्वयं ही अस्थिर है तथा व्यक्ति के जीवन में इन आधारों में किसी भी समय परिवर्तन हो सकता है। उदाहरणार्थ आज का अरबपति कल व्यवसायिक असफलता के बाद निर्धन व्यक्ति हो सकता है। साथ ही एक निर्धन व्यक्ति कई लाख की लाटरी जीतकर एक ही दिन में उच्च आर्थिक स्थिति को प्राप्त कर सकता है। अतः वर्तमान स्तरीकरण के अन्तर्गत सदस्यों का एक स्तर से दूसरे स्तर में आना-जाना सम्भव है जबकि जातीय व प्रजातीय संस्तरण में यह सम्भव नहीं है। इसलिए वर्तगत स्तरीकरण की प्रकृति अस्थिर व परिवर्तनशील है।