सामाजिक समझौता सिद्धान्त पर रूसों के विचारों का परीक्षण – रूसो के अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जीवन शांत, सरल, संतुष्ट और सुखमय था। मनुष्य प्रकृति की गोद में स्वच्छन्द भय और चिंता रहित एक ‘आदर्श बर्बर’ का मस्ती भरा जीवन जीता था। यह प्राकृतिक अवस्था पूर्ण स्वतन्त्रता और समानता की अवस्था थी। मनुष्य में अच्छाई-बुराई, पाप-पुण्य, ऊँच-नीच और तेरे मेरे की भावना का कोई अस्तित्व नहीं था। मनुष्य स्वयं का स्वामी और पूर्णतः आत्मनिर्भर था। परन्तु ऐसी आदर्श प्राकृतिक अवस्था अधिक दिनों तक जीवित न रह सकी। उसका शनैः-शनैः विनाश होने लगा।
सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप का वर्णन कीजिए।
इसके विनाश का मुख्य कारण था व्यक्तिगत सम्पत्ति का उदय। जनसंख्या में वृद्धि और बौद्धिक विकास ने व्यक्तिगत सम्पत्ति को जन्म दिया। व्यक्तिगत सम्पत्ति ने मनुष्यों के मध्य असमानता, अशांति और तेरे मेरे की भावनाओं को उत्पन्न किया और व्यक्ति को ‘आदर्श वर’ से प्रिय कलहकारी, हिंसक व ईर्ष्यालु बना दिया। मनुष्य का जीवन तनावग्रस्त और अशांत हो गया। धनी और निर्धन की असमान स्थिति ने संघर्ष को जन्म दिया तथा उसने मनुष्य को एक हिंसक पशु के रूप में परिवर्तित कर दिया।
रुसो कहता है कि समाज की इस अशांत, अराजक और संघर्ष की स्थिति को समाप्त कर एक शांत, मुख्यवस्थित और सुखी जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु सभी व्यक्ति मिलकर एक समझौता करते हैं तथा प्रतिज्ञाबद्ध होकर कहते हैं कि “हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने शरीर और समूची शक्ति को अन्य सब के साथ संयुक्त रुप वसे सामान्य इच्छा के निर्देशन में रखते हैं तथा हम अपने सामूहिक रुप में प्रत्येक व्यक्ति को समाज के अविभाज्य अंग के रूप में ग्रहण करते हैं। इस तरह रुसो बताता है कि मनुष्य अराजक प्राकृतिक अवस्था को समाप्त करने के लिए जो समझौता करते हैं, वह दो पों के मध्य होता है-एक पज्जा उनके प्राकृतिक जीवन का है। और दूसरा परा उनके सामूहिक जीवन का है। अतः ये व्यक्तिगत रूप से जो कुछ खोते हैं, उसे समझौते के माध्यम से पुनः प्राप्त कर लेते हैं।