रूसो के स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों को लिखिए।

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रूसो के स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार – रूसो शिशुओं की स्वतंत्रता तथा पशुओं की स्वतंत्रता में कोई भेद नहीं करता वह इसे स्वाधीनता कहकर पुकारता है। इसे इस नाम से इसलिये पुकारा जा सकता है क्योंकि यह मानवीय कानून पर निर्भर नहीं करती। जिस समय पूर्णता की ओर हम अपनी यात्रा आरम्भ करते हैं, उस समय हमें अपने कर्त्तव्यों का ज्ञान नहीं होता, और न ही हमारा कुछ उत्तरदायित्व होता है, हम अपनी इच्छानुसार आचरण कर सकते हैं। परन्तु इस स्वाधीनता को पूर्ण नहीं कहा जा सकता, वस्तुओं के नियमों के प्रति अधीनता की सीमायें इस पर लगी होती हैं। इसका अर्थ यह होता है। कि हम अपनी प्रवृत्तियों तथा भावनाओं के दास होते हैं। “मनमानी करने की पशु की भ अपनी इच्छाओं को तृप्त करने की स्वतंत्रता तो केवल इन्द्रियों की दासता है, और जबकि जंगली मनुष्यों की वासनाओं को तृप्त करने की स्वतंत्रता वासनाओं की दासता सिद्ध होती है तो अति बिन्दु एक जगह मिल जाते हैं।” इससे आगे चलकर मनुष्य नागरिक स्वतंत्रता पर आता है। इसका प्रादुर्भाव नागरिक समाज की स्थापना होने पर होता है, इसमें मानवीय कानून के प्रति अधीनता आती है। मानवीय कानून के प्रति अधीनता के साथ ही साथ अधिकार तथा कर्तव्य सम्बन्धी धारणाओं का प्रवेश होता है।

लॉक के अनुसार राज्य का स्वरूप तथा उसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

“स्वाधीनता किसी कर्तव्य को नहीं जानती थी, स्वतंत्रता की मांग यह है कि हमें प्रत्येक कार्य को कर्त्तव्य समझकर करना चाहिये। स्वाधीनता की अवस्था में कोई अधिकार नहीं हो सकते, क्योंकि यदि सब लोग मनमानी करने लगें तो कोई अधिकार नहीं रह सकता और न ही अधिकारों को निर्धारित करने वाली कोई शक्ति रह सकती है, स्वतंत्रता में हमारे अधिकार निर्धारित रहते हैं और समूह की सम्पूर्ण शक्ति का प्रयोग उनकी सुरक्षा के लिये। किया जाता है। अधिकारों की यह सुरक्षा ही स्वतंत्रता होती है। इसलिये जो चीज हमने खोई है वह है मनमानी करने की संदिग्ध स्वतंत्रता, किन्तु जो कुछ हमने पाया है उस कार्य को करने की सुरक्षित स्वतंत्रता, जिसे हम सब सद् समझते हैं।”

इस प्रकार की स्वतंत्रता नागरिक स्वतंत्रता से भी उच्चतर होती है। रूसो इसे ‘नैतिक स्वतंत्रता‘ कहकर पुकारता है। यह वह उच्चतम अवस्था है जो मनुष्य अपनी प्रकृति के विकास में प्राप्त कर सकता है, यह उसे स्वयं का स्वामी बना देती है। इसकी प्राप्ति उस समय होती है। जबकि मनुष्य अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को इतना संयत बना लेता है कि उसकी केवल एक इच्छा शेष रह जाती है और वह विवेक के साथ एकाकार हो जाने की कामना ।

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