Medieval History

राष्ट्रीय राज्यों से क्या अभिप्राय है? यूरोप में राष्ट्रीय राज्यों के उदय के कारणों पर प्रकाश डालिए।

राष्ट्रीय राज्यों से अभिप्राय – 1453 ई. में कांसटेटिनोपल (कुस्तुनतुनिया) पर तुर्कों का अधिकार हो जाने के कारण सम्पूर्ण पूर्वी यूरोप पर तुकों का प्रधान्य हो गया। पश्चिम यूरोप में प्राचीन यूनानी सभ्यता स्थापित की। इस प्रकार पश्चिमी एवं पूर्वी यूरोप में तनाव का वातावरण पैदा हो गया था पुनर्जागरण की प्रक्रिया के आगम के साथ ही पवित्र रोमन साम्राज्य एवं पोप की निरंकुश धार्मिक सत्ता का पतन होने लगा था। राज्यों में बढ़ती शक्तियों के साथ ही मध्ययुग की प्रमुख संस्था ‘सामन्तवाद का भी पतन होने लगा था और उनके स्थान पर राष्ट्रीय राज्यों का गठन प्रारम्भ हो गया। व्यापारिक उन्नति आरम्भ हो जाने के कारण व्यापार के संरक्षण हेतु शक्तिशाली राज्यों की स्थापना समय की आवश्यकता थी। व्यापारी वर्ग राष्ट्रीय राज्यों के विकास के लिए अधिकाधिक धन प्रदान कर रहा था। आधुनिक युग के समाज में मध्यम वर्ग का उदय हुआ जो सामन्तों के प्रबल विरोधी थे परिणामस्वरूप सामन्तवाद के स्थान पर राष्ट्रीय राज्यों का उदय प्रारम्भ हो गया।

प्रसिद्ध इतिहासकार ‘हेज’ ने लिखा है-“यह राज्य का एक प्रकार था जो कि प्राचीन समय में अत्यन्त कठिनता से विद्यमान था और मध्यकाल में केवल शनैः शनैः एवं मन्द गति में विकसित हुआ। यह बीच के प्रकार का राष्ट्रीय राज्य, राजनीतिक ईकाई था जो कि यूरोप के आधुनिक राज्य प्रकार की एक इकाई बना।”

राष्ट्रीय राज्यों के उदय के कारण

सोहलवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पश्चिम यूरोप के अन्तर्गत राष्ट्रीय राजतंत्रों के उदय के प्रमुख कारण निम्नलिखित

(i) मध्य युगीन यूरोप की प्रमुख राजनीतिक व्यवस्था ‘सामन्तवाद के पतन’ ने राष्ट्रीय राजतंत्रों के उदय की पृष्ठभूमि निर्मित कर दी शोषण के सिद्धान्त पर आधारित सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त निश्चित प्रायः था, शोषित वर्ग के उठते आक्रोश ने सामन्तवाद की नींव हिला दी। शोषित वर्ग ने राजा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित कर लिया। जनता द्वारा राजा का साथ दिये जाने से सामन्तवाद का पतन हो गया।

राजा की शक्ति में वृद्धि हुई, फलस्वरूप निरंकुश राष्ट्रीय राजतंत्रों के उदय का पथ प्रशस्त होता चला गया। सर्वप्रथम इंग्लड में ‘गुलामों के तीस वर्षीय युद्ध के अन्तर्गत सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त हो गया, क्योंकि यह युद्ध सामन्तवादी व्यवस्था के कारण ही घटित हुआ था। सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त करने के लिए ही इंग्लैण्ड के शासक हेनरी सप्तम ने अभियान तीव्र किया और अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली। यूरोप के अन्य देशों में भी इंग्लैण्ड के समान सामन्तवाद के विरुद्ध व्यापक विरोध किया जाने लगा, इस प्रकार जनता द्वारा राजा को सहयोग करने से सामन्तवाद का पतन प्रारम्भ हुआ, राजा की शक्ति में वृद्धि हुई तथा राष्ट्रीय राजतंत्रों का उदय हुआ।

(ii) मध्यम वर्ग के उत्थान ने सामन्ती व्यवस्था के अन्त में अत्यधिक योग किया था, फलस्वरूप जो व्यवस्था स्थापित हुई अर्थात् ‘राष्ट्रीय राजतंत्र’ की स्थापना में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मध्यम वर्ग की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो चुकी थी। मध्यम वर्ग ने अपने व्यापार एवं वाणिज्य के विकास एवं सुरक्षा की दृष्टि से राजतंत्र को समर्थन दिया। राजाओं ने भी व्यापार एवं वाणिज्य को संरक्षण प्रदान करके मध्यम वर्ग की सहानुभूति अर्जित कर ली। इन परिस्थितियों में उपनिवेश स्थापना को प्रोत्साहन मिल गया तथा प्रबुद्ध वर्ग ने राष्ट्रीयता की भावना के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया, इस प्रकार पश्चिमी यूरोप में राष्ट्रीय राजतंत्रों के उदय की परिस्थितियों उभरती चली गई।

(iii) पुनर्जागरण काल में हो रहे नवीन आविष्कारों ने राष्ट्रीय राजतंत्रों के उत्थान में विशेष प्रेरणा प्रदान की थी। बारूद का आविष्कार, तोपों का प्रयोग, युद्धकाल में परिवर्तन, नये-नये उपनिवेशों की खोज एवं छापेखाने के आविष्कार आदि नवीन आविष्कारों ने मध्यकालीन सैन्य-विज्ञान व्यवस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया, इन आविष्कारों ने राष्ट्रीय राजतंत्र के उभरने में विशेष योग दिया।

(iv) पोपशाही के पतन ने भी राष्ट्रीय राजतंत्रों के उभरने की पृष्ठभूमि निर्मित होने में योग किया। पोप जिसकी आज्ञा धार्मिक क्षेत्र में सर्वोपरि मानी जाती थी, स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर, धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीतिक क्षेत्र में भी अनावश्यक हस्तक्षेप करने लगा था, परन्तु आधुनिक युग के आगमन की बेला में हो रहे पुनर्जागरण के कारण यूरोप की जनता अब तर्क सम्मत हो गई थी, उसने पोप की आचारहीनता, भ्रष्टता एवं विलासिता का विरोध किया। पश्चिमी यूरोप के शासकों ने, जो कि पोप के द्वारा किए जा रहे राजनीतिक हस्तक्षेप से क्षुब्ध थे, जनता की भावनाओं का लाभ उठाते हुए पोपशाही का प्रबल विरोध करना प्रारम्भ किया। धर्म-सुधार आंदोलन के फलस्वरूप चर्च पूर्णतः राजा के अधीन हो गए, इससे राजा के सम्मान व राजपद के गौरव में वृद्धि हुई।

(v) राष्ट्रीय राज्य के उदय में धर्मयुद्धों, धर्मसुधार और पुनर्जागरण का भी कम योगदान नहीं है। धर्मयुद्ध ने पश्चिम के ईसाई शासकों को पूर्व के मुस्लिम और बाईजेंटाइन राज्यों के संपर्क में लाया जहाँ से उन्होंने पूर्व के सरकारीतंत्र की भावना प्राप्त की। इन्हीं धर्मयुद्धों में मध्यमवर्ग को व्यापार वाणिज्य की सुरक्षा के लिए राजा से सहायता लेने के लिए बाध्य किया। दूसरी ओर इन धर्मयुद्धों ने अनेक सामन्तों और महत्वाकांक्षी चर्च अधिकारियों को आंतरिक राजनीति से विदेशी मामलों में और दूर दराज के कार्यों में ध्यान देने के लिए बाध्य किया। कुछ सामन्त और पादरी शहरों में बसकर व्यवसाय में लग गए और उन्होंने भी

राजा के संरक्षण की आवश्यकता महसूस की। धर्मसुधार के कारण राष्ट्रीय राजा की शक्ति का और भी विकास हुआ। बिना राष्ट्रीय राजा की शक्ति का और भी विकास हुआ। बिना राष्ट्रीय राजाओं की सहायता के रोम के चर्च के खिलाफ प्रोटेस्टैंड आंदोलन का सफल होना संभव नहीं था। इसीलिए लूथर जैसे प्रोटेस्टेंट नेताओं ने एक ओर चर्च के खिलाफ प्रतिरोध के अधिकार की घोषणा की, तो दूसरी ओर उनहोंने राज्य के प्रति निश्चेष्ट आज्ञाकारिता के कर्तव्य की भी घोषणा की। धर्मसुधार ने राजा को समाज के त्राता के रूप में प्रस्तुत किया। प्रोटेस्टेंट राज्यों में राजाओं ने चर्च पर अपना अधिकार जमाया। राजाओं ने पोप के हस्क्षेप मानने से मना कर दिया। इंग्लैण्ड का राजा तो अपने राष्ट्रीय चर्च का प्रधान ही बन गया। फ्रांस जैसे कैथोलिक देश में भी राष्ट्रीयता की भावना और राजा की शक्ति काफी बढ़ गई।

(vi) पुनर्जागरण के मानवतावादी और राष्ट्रीय साहित्यों ने भी राष्ट्रीय राज्य के निर्माण में उल्लेखनीय योगदान दिया। मैकियावेली जैसे लेखकों ने व्यक्ति तथा राज्य के नए आधारों की पृष्ठभूमि तैयार की। व्यक्ति और राष्ट्र की अस्मिता की स्पष्टतर व्याख्या और उनके सम्बन्धों की अधिक संगठित रूपरेखा ने आधुनिक राज्य की नींव डाली। सामन्तवाद और चर्च की शक्ति को झकझोर कर पुनर्जागरण ने राष्ट्रीय राज्य के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।

पृथ्वीराज रासो पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

निष्कर्ष – तत्कालीन यूरोप की राजनीतक विषमता का चित्रण इतिहासकार हेजन ने किया है, “1789 ई. के यूरोप में यदि दृष्टिकोण करें तो हमें एक बात स्पष्ट रूप से देखने को मिलेगी कि उस समय यूरोप में एकता का अभाव था। पूरे यूरोप में छोटे-बड़े अनेक राज्य थे। उनकी सरकारें अलग-अलग ढंग की थी। जो अन्य चर्च के अधीन थे उनका धर्म सापेक्ष था अर्थात् उनकी प्रशासकीय व्यवस्था ईसाई धर्म के सिद्धान्तों के अनुरूप चलती थी। तुर्की में निरंकुशतावाद तथा स्वेच्छाचारिता का बोलबाला था। रूस, ऑस्ट्रिया, फ्रांस तथा प्रशा में निरकुंश राजा राज्य करते थे। इंग्लैण्ड में संवैधानिक गणतंत्र था। यूरोप में अनेक प्रकार के गणराज्य भी थे। हालैण्ड व स्विट्जरलैण्ड में संघात्मक राज्य थे। पोलैण्ड में गणराज्य का प्रमुख निर्वाचित होता था। वेनिस, जौवा तथा पवित्र रोमन साम्राज्य के स्वतन्त्र नगरों में अभिजातीय गणतत्व विद्यमान थे। यूरोप में इस काल में अनेक प्रभुता सम्पन्न और अर्द्ध प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य विद्यमान थे।”

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