राज्य सभा के संगठन, कार्य एवं महत्व की विवेचना कीजिए।

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राज्य सभा के संगठन या रचना – भारतीय संसदीय व्यवस्था का एक प्रमुख सदन राज्य सभा है। संविधान के अनुच्छे 80 के अनुसार राज्य सभा की अधिकतम सदस्य संख्या 250 है। इन सदस्यों में से 238 सदस्यों का निर्वाचन राज्यों तथा संघ शासित क्षेत्रों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाता है और शेष 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। यह मनोनयन ऐसे सदस्यों का किया जाता है जो कला, साहित्य, विज्ञान या समाज सेवा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त हों और शेष राज्यों तथा संघ शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

(2) सदस्यों की योग्यताएँ

संविधान के अनुच्छेद 84 के अन्तर्गत राज्यसभा के उम्मीदवार के लिए निर्धारित योग्यताएँ निम्नांकित है-

  1. भारत का नागरिक हो।
  2. वह 30 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।
  4. संसद के अधिनियम द्वारा निर्धारित सभी योग्यताएँ पूर्ण करता हो।
  5. पागल व दिवालिया न हो।
  6. किसी न्यायालय द्वारा किसी फौजदारी मामले में दो या दो से अधिक वर्ष के कारावास का दण्ड प्राप्त न हो।

(3) निर्वाचन –

राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य एकल संक्रमणीय आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा करते हैं।

(4) कार्यकाल

संविधान के अनुच्छेद 83 (1) के अनुसार, राज्यसभा एक स्थायी सदन है। यह सदन कभी विघटित नहीं होता। राज्यसभा के एक तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष बाद सेना निवृत्त हो जाते हैं।

(5) पदाधिकारी

राज्यसभा की कार्यवाही के संचालन हेतु इसके दो पदाधिकारी होते हैं। इसमें एक सभापति और एक उपसभापति होता है। भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है, जिसका कार्यकाल 5 वर्ष होता है। उपसभापति का निर्वाचन राज्यसभा के सदस्य अपने सदस्यों में से करते हैं जो 6 वर्ष के लिए निर्वाचित किया जाता है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति सभापति के स्थान पर कार्य करता है।

लोकसभा अध्यक्ष की तरह संसद की कार्यवाहियों का संचालन राज्यसभा का सभापति भी करता है। यह सदस्यों को अनुशासन में रखते हुए उन्हें याद-विवाद का अवसर प्रदान करता है। प्रस्तावों और विधेयकों पर मतदान करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर अपना निर्णायक मत देता है। अतः सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति और उपसभापति की अनुपस्थिति में राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त राज्यसभा का सदस्य सभा में सभापतित्व करता है।

राज्यसभा के सभापति एवं उपसभापति के विरुद्ध अविश्वास या अयोग्यता का प्रस्ताव पारित करके उसको पद से हटाया जा सकता है। सभापति को हटाने के लिए यदि राज्यसभा उपस्थित सदस्यों के बहुमत से प्रस्ताव पास कर दे और लोकसभा भी इस प्रस्ताव को अपनी स्वीकृति दे दे तो सभापति को उसके पद से हटाया जा सकता है। राज्यसभा में ऐसा प्रस्ताव रखने से पहले सभापति को 14 दिन का नोटिस देना आवश्यक है। उपसभापति को हटाने के प्रस्ताव को लोकसभा की सहमति नहीं ली जा सकती है। केवल राज्यसभा के उपस्थित सदस्यों के बहुमत से यदि उसके विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दिया जाता है तो उपसभापति को अपना पद छोड़ना पड़ता है।

राज्यसभा की गणपूर्ति

राज्यसभा की कार्यवाही चलाने के लिए कुल सदस्य संख्या का दसवाँ भाग उपस्थित होना आवश्यक है।

राज्य सभा के पदाधिकारियों का वेतन

राज्यसभा के सभापति को 125,000 – मासिक वेतन प्राप्त होता है।

राज्यसभा की शक्तियाँ एवं कार्य

राज्य सभा को लोकप्रिय सदन या लोकसभा की अपेक्षाकृत कम शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। लेकिन लोकसभा के सहयोगी के रूप में उसकी शक्तियों कम महत्वपूर्ण नहीं है। राज्यसभा की शक्तियाँ और कार्य का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है:

(1) कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियाँ

कार्यपालिका सम्बन्धी कार्यों के क्षेत्र में भी राज्यसभा को लोकसभा की तुलना में कम शक्तियाँ प्राप्त है। संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिपरिषद (कार्यपालिका) संसद के लोकप्रिय सदन के प्रति उत्तरदायी होती है। अत: भारत में भी मन्त्रिमण्डल के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है, राज्यसभा के प्रति नहीं परन्तु कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखने के लिए राज्यसभा मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकती है, पूरक प्रश्न पूछ सकती है और उनकी आलोचना भी कर सकती है।

(2) संविधान में संशोधन सम्बन्धी शक्तियाँ

संविधान संशोधन के सम्बन्ध में राज्यसभा को लोकसभा के समान ही महत्वपूर्ण शक्ति प्राप्त है। विधान संशोधन का प्रस्ताव किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है लेकिन संशोधन प्रस्ताव तभी स्वीकृत समझा जाएगा, जबकि उसे दोनों सदन उपस्थिति और मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से पारित कर दें।

(3) विधायी शक्तियाँ

विधि निर्माण के क्षेत्र में राज्य सभा को लोकसभा के समान ही शक्तियाँ प्रदान की गई है। गैर वित्त विधेयक के सम्बन्ध में दोनों सदनों की शक्तियाँ समान है। गैर वित्त विधेयक लोकसभा अथवा राज्यसभा किसी भी सदन में पहले प्रस्तावित किया जा सकता है। इसे दोनों सदनों से पारित होने के बाद ही राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा जाता है। अनुच्छेद 108 के अनुसार यदि किसी साधारण विधेयक के सम्बन्ध में लोकसभा में मतभेद उत्पन्न हो जाता है तो उस विधेयक पर दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में विचार किया जाता है और विशेषक के भाग्य का निर्माण बहुमत के आधार पर किया जाता है।

(4) वित्तीय शक्तियाँ

वित्तीय मामलों में राज्य सभा शक्तिहीन है, क्योंकि इस सन्दर्भ में सर्वोच्चता लोकसभा को प्रदान किया गया है। संविधान के अनुसार वित्त विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तावित किया जाता है। लोकसभा द्वारा पारित होने पर वित्त विधेयक राज्यसभा में भेजा जाता है। राज्यसभा में अधिक से अधिक 14 दिन तक इस विधेयक पर विचार किया जा सकता है। राज्यसभा वित्त विधेयक को अपने सुझाव सहित लोकसभा को वापस भेज सकती है लेकिन लोकसभा राज्यसभा की सिफारिशों को मानने के लिए बाध्य नहीं है। इस प्रकार वित्तीय क्षेत्रों में राज्यसभा को केवल सूचना पाने तथा लोकसभा द्वारा पारित बजट पर अपनी टीका-टिप्पणी करने का ही अधिकार है। लोकसभा के सदस्यों के साथ-साथ राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते है।

न्यायिक पुनरावलोकन का क्या अर्थ है?

अन्य शक्तियाँ-लोकसभा के समान राज्यसभा कई अन्य कार्य भी करती है। यह कार्य निम्नलिखित है-

  1. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक तथा मुख्य चुनाव आयुक्त को पदच्युत करने के लिए दोनों सदनों की स्वीकृति आवश्यक है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा की गई संकटकालीन उद्घोषणा की स्वीकृति संसद के दोनों सदनों से आवश्यक है।
  3. संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार राज्यसभा उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से घोषित कर सकती है कि राष्ट्रीय हित में संसद को राज्यसूची के अमुक विषय पर कानून बनाना चाहिए।
  4. उपराष्ट्रपति का निर्वाचन दोनों सदनों के सदस्य मिलकर करते हैं।
  5. राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से नवीन अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना के लिए प्रस्ताव पास करती है।
  6. राष्ट्रपति को उसके पद से हटाने के लिए महाभियोग लगाने का अधिकार दोनों ही सदनों को समान रूप से प्राप्त होता है। यदि एक सदन अभियोग लगाता है और दूसरा सदन उसकी जाँच करता है।

उपरोक्त के आधार पर हम कह सकते हैं कि राज्य सभा को लोकसभा की तुलना में कम शक्तियाँ प्राप्त है क्योंकि संसदीय शासन व्यवस्था में अन्तिम निर्णय की शक्ति लोकप्रिय सदन को ही प्राप्त हो सकती है, अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित द्वितीय सदन को नहीं।

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