पुरुषार्थ क्या है? पुरुषार्थ उन मानवीय गुणों का समन्वय है जोकि भौतिक सुख एवं आध्यात्मिक उन्नति के मध्य एक सन्तुलन की सृष्टि करता है। पुरुषार्थ के चार आधार हैं जोकि मानव-जीवन के चार प्रमुख लक्ष्यों को भी व्यक्त करते हैं। वे हैं-धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। मोक्ष मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। इस प्रकार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष-मनुष्य जीवन के इन चार उद्देश्यों एवं आधारों के समन्वित स्वरूप को कहते हैं। इनमें जीवन के अन्तिम लक्ष्य के रूप में मोक्ष को मान्यता दी गई है परन्तु जीवन के अन्य वास्तविक पक्षों अर्थ एवं काम की भी उपेक्षा नहीं की गई है एवं साथ ही उन पर धर्म का नियंत्रण भी रखा गया है। इस स्वरूप में पुरुषार्थ मानव जीवन के एक सम्पूर्ण एवं सार्थक स्वरूप का परिचायक है। चारों पुरुषार्थ के नाम निम्नलिखित हैं
(1) धर्म
पुरुषार्थ चतुष्टय में से सर्वप्रथम एक सर्वप्रधान है धर्म प्रथाओं को धारण करने के कारण यह धर्म कहलाता है। धारण करने का अर्थ है रक्षा करना या पोषण करना। यदि हम धर्म की रक्षा करेंगे पोषण करेंगे तो धर्म भी हमारी रक्षा एवं पोषण करेगा। वस्तुतः धर्म का स्वरूप कल्याणकारी है। धर्म का अभिप्राय वस्तुतः मनुष्य के धार्मिक कृत्यों से हैं। मनुष्य शास्त्रगत एवं विधि-विधान से धर्म-पूर्वक जीवन यापन करता है। धर्म के अन्तर्गत न सिर्फ उन क्रिया-कलाप को शामिल किया जाता है, जिनका उद्देश्य परलोक के सुख से हैं, अपितु धर्म का सम्बन्ध मनुष्य द्वारा व्यावहारिक एवं प्रतिदिन के जीवन यापन को विधिपूर्वक करने से भी है। धार्मिक कृत्यों से मनुष्य समाज एवं स्वयं की सन्तुष्टि महसूस करता है। उसे तन, मन से सन्तोष प्राप्त होता है। जिसके हेतु वह परमार्थ, दान-दक्षिणा, यज्ञ आदि का आयोजन करता है।
धर्म एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है। धर्म के द्वारा मनुष्य अपने कर्त्तव्य पथ की सही दिशा एवं दशा का चुनाव करता है। धर्म के द्वारा मनुष्य को आत्म विश्वास, संकल्प एवं कर्तव्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। मनुष्य के जीवन दर्शन की जो कल्पना की गई है उसमें धर्म इहलौकिक जीवन में सामन्जस्य स्थापित करने का प्रयास करता है। धर्म का तरीके से पालन करने से न सिर्फ व्यक्ति अपना विकास कर सकता है अपितु इसके साथ-साथ सामाजिक विकास में योगदान कर सकता है।
(2) अर्थ
वर्ग चतुष्टय में दूसरा नाम आता है अर्थ का मानव जीवन में अर्थ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। जीवन में अनेकानेक आवश्यकताएँ होती है, जिनकी पूर्ति अर्थ अर्थात् धन से हो सकती है। अतः दैनिक जीवन में मनुष्य को प्रतिदिन धन की आवश्यकता पड़ती रहती है। इस धन की जरूरतों को पूरा करने हेतु वह कुछ न कुछ उद्यम करता है। धन की प्राप्ति का भी सही मार्ग शास्त्रकारों ने सुझाया है। उनका यह सुझाव एवं मार्गदर्शन जो कि मनुष्य की अर्थ प्राप्ति में सहयोग करता है, को अर्थ नाम प्रदान किया गया मनुष्य के जीवन लक्ष्यों में उसे भी शामिल किया गया है। अर्थ नामक पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ धन प्राप्ति एवं उपयोग से हैं लेकिन इसका आश्रय सिर्फ इतना ही न होकर बहुत व्यापक है। इसके अन्तर्गत धन के साथ-साथ मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं का वर्णन किया गया है। यह कहा गया है कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने तथा अपने परिवार के पालन-पोषण हेतु सदैव प्रयत्न करें। मनुष्य अर्थ नामक पुरुषार्थ से न सिर्फ अपना विकास करता है, अपितु साथ ही धन की सहायता से ही वह अपनी पारिवारिक, सामाजिक एवं अन्य जिम्मेदारियों को भी पूरा कर सकता है। अतः अर्थ उसी धन को कहा जाता है जो धर्माचरण पूर्वक अर्जित किया गया है। वह अर्थ कल्याणकारी नहीं है जिसे अधर्म से प्राप्त किया गया है, वह तो अनिष्ट है, अनर्थ है। मनुष्य की भौतिक उन्नति की कुन्जी अर्थ ही है।
(3) काम
काम तीसरा पुरुषार्थ है काम का तात्पर्य है इच्छित सुख अथवा कामना। वह सुख जिसकी कामना मनुष्यों के द्वारा की जाए, काम है। काम वह शाश्वत सुख है जो सृष्टि का मूल कारण है। प्राचीन काल में काम की भावना में भी धर्म एवं सात्विकता का प्रधान्य होता था। आज की भाँति काम से कोई कुत्सित अर्थ या दुराचरण ध्वनित नहीं होता था अपितु लोग गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके धर्म-सम्मत काम की प्राप्ति करते थे। इससे वे पितृऋण से भी मुक्त होते थे साथ ही सृष्टि के चक्र की भी गति निर्वाध रूप से चलती रहती थी काम भारतीय संस्कृति में मान्य है। जिस काम पर धर्म एवं नैतिकता का अंकुश होगा, वह सृजनात्मक एवं हितकारी होगा।
मनुष्य की अपनी इच्छाओं की पूर्ति आवश्यक है। मनुष्य की इन इच्छाओं की पू० के लिए शास्त्रकारों ने विधान प्रस्तुत किया है। नियम व तरीके से इसकी पूर्ति काम कहलाती है। इसके अन्तर्गत वैवाहिक जीवन के सुखों के साथ-साथ शारीरिक तथा मानसिक सुख की आवश्यकताओं की पूर्ति को शान्त किया गया है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों ने काम को मनुष्य के पुरुषार्थ में एक बतलाया है। सामान्य तौर पर काम का अभिप्राय मनुष्य का यौन सम्बन्ध, वासना पूर्ति एवं इंद्रिय सुख से किया जाता है, लेकिन काम शब्द का अभिप्राय पुरुषार्थ के रूप में इतना संकुचित एवं संकीर्ण नहीं है। यहाँ पर काम पुरुषार्थ का अभिप्राय मनुष्य की सभी प्रकार की आवश्यकताओं, इच्छाओं की पूर्ति से हैं। उसे यह शास्त्रगत आधार पर अधिकार प्राप्त था कि वह अपने काम की पूर्ति कर सकता है। काम की पूर्ति हेतु गृहस्थ आश्रम को सबसे उपयुक्त बताया गया है, अन्य आश्रमों में काम पर रोक लगायी गई है। मनुष्य काम की पूर्ति सामाजिक एवं नैतिक नियमों के अनुसार ही कर सकता था।
(4) मोक्ष
मानव जीवन का चतुर्थ एवं अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष है। सांसारिक दुःखों से मुक्ति प्राप्त हो जाना ही मोक्ष है। संसार का सबसे बड़ा दुःख है आवागमन के चक्र में फंसे रहना। इस चक्र से मुक्त होना ही मोक्ष है। मनुष्य के जीवन लक्ष्यों को सिर्फ इहलोक तक सीमित न मानकर उसे हमेशा के लिए जीवन-मुक्ति एवं मृत्यु-मुक्ति तक समाहित किया गया है। मनुष्य को जीवन मरण चक्र से मुक्ति प्राप्त हो उसके लिए भी मनुष्य प्रयत्न करता है। मनुष्य का यही प्रयत्न
मोक्ष कहलाता है। योग साधन एवं ब्रह्म ज्ञान, मोक्ष प्राप्ति के प्रमुख साधन है। मनुष्य को इसक हेतु ईश्वर में ध्यान लगाना, जप-तप करना, यज्ञ करना एवं ईश्वर में पूर्ण आस्था रखना आदि बातें समाहित की गई है। मनुष्य के जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष बताया गया है। लगभग सभी धर्म जिनका आविर्भाव भारत भूमि पर हुआ है किसी न किसी रूप में मोक्ष को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं। मोक्ष की प्राप्ति के बाद मनुष्य को जीवन के चक्र से छुटकारा प्राप्त हो जाता है, वह ईश्वर में अपने आप को समाहित कर देता है तथा सर्वोच्च सुख अर्थात् परमानन्द की प्राप्ति करता है।
इस प्रकार से पुरुषार्थ से मनुष्य के न सिर्फ इहलौकिक सुख का ध्यान रखा गया अपितु इसके रहते हुए मोक्ष की तरफ बढ़ने का भी मार्ग प्रशस्त किया, जीवन की किसी भी प्रकृति या स्वरूप की उपेक्षा न करते हुए सर्वोच्च लक्ष्य, मोक्ष तक पहुंचना ही पुरुषार्थ की सबसे बड़ी विशेषता है और उसका महत्व भी इसी में समाहित है।
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पुरुषार्थ का महत्व
भारत के जीवन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय- धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का अपना-अपना एक विशेष महत्व है। पुरुषार्थ संस्था वास्तव में निर्दिष्ट जीवन को पाने के लिए एक साधारण व्यवस्था है, जो आमतौर से हर व्यक्ति को वांक्षित कार्य करने की प्रेरणा देती है। साथ ही साथ भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत के मध्य सन्तुलन भी बनाए रखती है। पुरुषार्थ की अवधारणा जीवन के महान आदर्शों की प्राप्ति का भी एक उत्तम साधन है। पुरुषार्थ के द्वारा ही महान जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। भारतीय सामाजिक जीवन का मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक आधार भी है तथा यह भारतीय संस्कृति की आत्मा है। इसमें हमें क्रमबद्धता के भी दर्शन होते हैं, जो धर्म से शुरू होकर मोक्ष तक पहुंचती है, जिसकी हर कड़ी एक दूसरी से शक्तिशाली रूप में जुड़ी हुई है। यदि किसी कड़ी को छोड़ा जाए तब इसमें व्यत्तिक्रम हो जाएगा। इसी कारण इसको पुरुषार्थ ‘चतुष्टय कहा जाता है। इसमें आपसी महत्व की दृष्टि से धर्म और मोक्ष का विशेष स्थान भी है, क्योंकि धर्म पुरुषार्थ का विश्लेषण अच्छे रूप में किया है। “कुछ लोगों का मत है कि मनुष्य हित धर्म में है, अन्य का मत है यह काम तथा अर्थ पर आधारित है। कुछ इस पर बल देते हैं कि केवल धर्म से ही भला हो सकता है, किन्तु अन्य तर्कों के अनुसार इस पृथ्वी पर केवल अर्थ से ही भला हो सकता है।
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