Sociology

पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्पष्ट कीजिए।

पुनर्जन्म का सिद्धान्त (Theory of Rebirth)- हिन्दू मान्तयता यह है कि अपने कर्म फल को भोगने के लिए जीव का बार-बार इस संसार में जन्म लेना होगा, पर प्रश्न यह है कि जीव का पुनर्जन्म मृत्यु के पश्चात् तुरन्त इसी लोक में होता है अथवा परलोक जाकर तब से लौटना पड़ता है। शास्त्रों में ऐसे वचन हैं जिनसे यह अर्थ निकलता-सा प्रतीत होता है कि मृत के पश्चात् जीवन तुरन्त इस लोक में दूसरे शरीर में जन्म लेता है। उदाहरणार्थ, जातक प्रन्थों में कहा गया है कि “मृत्यु घड़ी में ही अगले जन्म की जन्म कुण्डली तैयार होती है।” पर वास्तव में शायद ऐसा नहीं होता है। वृहदारण्यकोपनिषद् (4/4-6/2) के अनुसार अन्न खाने पर पुनः अन्न खाने का समय आने तक खाये हुए अन्न का पाचन होता होना जरूरी होता है, वैसे ही मृत्यु होने के बाद से पुनः जन्म लेने तक बीच में कर्म-विपाक के लिए (अर्थात् कर्म फल को भोगने के लिए) कुछ समय परलोक में बिताना पड़ता है। इच्छा से कर्म, कर्म से वासना और उसका फल, कर्म और फल, इहलोक-वास और परलोक-वास, अत्र सेवन और उसका पाचन, सृष्टिक्रम के ये असंख्य द्वन्द्व आन्दोलन हैं। इन्हीं में मृत्यु और पुनर्जन्म भी एक द्वन्द्व हैं। इसका उद्देश्य जीवन को परिशुद्ध करना होता है ताकि वह परम-शुद्ध परमात्मा में जा मिलने योग्य बन सके।

बार-बार जन्म लेने से उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ संघर्ष करते हुए जीव की सामर्थ्य, वैराग्य, विवेक-संयम आदि गुणों का संवर्धन होता है और वह मुक्ति के अधिक निकट होता जाता है। जीव अनुभव प्राप्त करते-करते परम-गति, परमोच्य ध्येय को प्राप्त हो, यह एक जन्म में साधने वाली बात नहीं है। एक जन्म में देहात्मा का पूर्ण विकास होने के लिए कई वर्ष लगते हैं, इसी प्रकार क्षेत्रज्ञ आत्मा के पूर्ण विकास के लिए अनेक पुनर्जन्म आवश्यक होते हैं, पर स्मरण रहे कि पुनर्जन्म कोई नया जन्म नहीं है। सनातन आत्मा केवल नया वेश (शरीर) धारण कर प्रगट होता है क्योंकि उसे विकास की ओर (परमात्मा की ओर) बहुत ऊंचे जाना होता है। बहुत ऊँचे पर्वत पर चढ़ने के बीच में कहीं-कहीं उतार भी होते हैं। उसी प्रकार जीव के कर्मानुसार तात्कालिक अधःपतन अथवा पशु कोटि में पुनर्जन्म होना भी स्वाभाविक है।

भारतीय समाज में धर्म की क्या भूमिका है?

यही कारण है कि भरत को मृग का जन्म लेना पड़ा, नलकूबर-मणिग्रीव वृक्ष इसी प्रकार चढ़ाव-उतार चढ़ते-उतरते अन्त में यह आत्मा अपने पूर्णत्व को प्राप्त होता है, पर जीव कितने बार जन्म लेगा, कितने उच्च या निम्न योनि में जन्म लेगा, यह बात उसके पूर्व जन्म और वर्तमान जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है। जीव को कर्म-फल भोगने के लिए अपने कर्म तथा वासना से बाध्य होकर ऊंच-नीच विविध योनियों में जन्म ग्रहण करना पड़ता है। (बृहदारण्यक 4/4/5) गीता में लिखा है कि मनुष्य कर्म करने में तो स्वतन्त्र है परन्तु भोग में परतन्त्र है। गीता में यह भी कहा गया है कि जैसे पुराने वस्त्रों को त्याग कर मनुष्य नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर को ग्रहण कर लेती है।

मृत्यु के बाद जीव को उसी समय दूसरी देह मिल जाती है, पर वह स्थूल देह नहीं होती। वह तेज-प्रधान या वायु-प्रधान ‘आतिवाहिक’ देह होती है जिसको ग्रहण करके जीव अपने पुण्य और पाप के अनुसार विविध देवलोक अथवा पितृलोक के विभिन्न स्तरों में पहुंचता है और वहाँ सुख-दुःख का भोग करके पुनः नियति के विधान से यथा योग्य स्थूल देह को प्राप्त होता है निवृत्ति-साधक विरक्त जीव पुनर्जन्म से बचने की इच्छा करते होंगे, पर लोकसंग्रही सन्त पुरुष पुनर्जन्मका भय या तिरस्कार नहीं करते। सन्त तुकाराम जी ने भगवान् से यह विनय की है कि “भगवान्! मुझे मुक्ति या धन-सम्पत्ति नहीं चाहिये, पर ऐसा करो कि तुम्हारा कभी विस्मरण न हो। तुम्हारा गुणगान करने में मेरा मन सदा रंगा हुआ हो। सत्संगति का सदा लाभ होता रहे। इतना दो। फिर भले ही पुनर्जन्म देते रहो।” इन सन्तों का भारतीयों को सतत यही उपदेश रहा कि ज्ञान, उपासना और कर्म के इस त्रिवेदी संगत पर आनन्द के साथ पुनर्जन्म लेकर संसार में वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए सुखपूर्वक रहो।

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