प्रतिस्पर्धा के निर्धारकों का वर्णन कीजिए।

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प्रतिस्पर्धा के निर्धारक

प्रतिस्पर्धा कोई जन्मजात प्रवृत्ति नहीं है, अपिधु एक सामाजिक घटना है। अतः इसके निर्धारक भी सामाजिक परिस्थितियों की ही उपज है। प्रतिस्पर्धा के निर्धारक निम्नलिखित दो प्रकार के हो सकते हैं

1.मूल्यों की व्यवस्था

प्रतिस्पर्धा के निर्धारण में मूल्यों की व्यवस्था इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि इन्हीं मूल्यों के आधार पर हम किसी विशेष वस्तु में अधिक रूचि लेने लगते हैं, और किन्हीं चीजों से दूर भागते हैं; भारतवर्ष में व्यक्तिवादी आदर्श उतना अधिक उम्र नहीं है, जितना अमरीका या इंगलैण्ड आदि में । अतः व्यक्तिगत सुख से सम्बन्धित वस्तुओं के विषय में इस देश में उतनी कटुप्रतिस्पर्धा नहीं है, जितनी कि पाश्चात्य देशों में भारतवर्ष में अब धन का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इसी अनुपात में धन से सम्बन्धित प्रतिस्पर्धा भी बढ़ती जा रही है। अतः स्पष्ट है कि प्रतिस्पर्धा की दिशा व स्वरूप के निर्धारण में समाज-विशेष के मूल्यों की व्यवस्था महत्वपूर्ण होती है।

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2. समूह संरचना

समूह संरचना भी प्रतिस्पर्धा की मात्रा निश्चित करती है। यदि समाज की संरचना जाति-प्रथा (cast system) पर आधारित है तो उस समाज में प्रतिस्पर्धा का जो रूप होगा, वह उस समाज से भिन्न होगा जो वर्ग व्यवस्था (class system) पर टिका हुआ है। जाति-प्रथा एक बन्द व्यवस्था है, अर्थात इसके अन्तर्गत व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, कार्य या पेशा, समूह की सदस्यता आदि जन्म पर निर्भर करते है। अतः इन विषयों के सम्बन्ध में उसे अन्य जाति के सदस्यों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं करनी होती।

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