Sociology

प्रतिस्पर्धा का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं स्वरूप की विवेचना कीजिए।

प्रतिस्पर्धा का अर्थ एवं परिभाषा

प्रतिस्पर्धा उस प्रक्रिया को कहतें हैं जब एकाधिक व्यक्ति या समूह आपस में बिना संघर्ष किए हुए किसी ऐसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं जो सबको समान रूप से प्राप्त नहीं हो सकती। इसीलिए इस प्रक्रिया द्वारा एक व्यक्ति या समूह दूसरे व्यक्ति या समूह को पीछे रखकर उस वस्तु को स्वयं पहले प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।

सर्वश्री बोसंज तथा बीसंज के अनुसार, ” प्रतिस्पर्धा दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा ऐसी एक ही वस्तु को प्राप्त करने के लिए किए गये प्रयत्न को कहते हैं जो इतनी सीमित है कि सब उसके भागीदार नहीं बन सकते है।”

श्री बोगार्डस के शब्दों में, “प्रतिस्पर्धा किसी ऐसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए किया गया एक विवाद है जो इतनी मात्रा में नहीं पाई जाती है कि पूरी माँग की पूर्ति हो सके।

श्री सदरलैण्ड, वुडवार्ड तथा मैक्सवेल आदि का भी कथन है कि जो ‘संनुष्टियाँ सीमित है, और जिन्हें इसी कारण सभी लोग प्राप्त नहीं कर सकते, उनको प्राप्ति के लिए व्यक्तियों तथा समूहों के बीच होने वाले अवैयक्तिक (impersonal), अचेतन तथा निरन्तर संघर्ष को ही प्रतिस्पर्धा कहते हैं।”

प्रतिस्पर्धा के प्रकार

प्रतिस्पर्धा निम्न दो कारणों की हो सकती है :

1.वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा

वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा उसे कहते हैं, जो एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति के बीच सचेत रूप से होती है जब दो विद्यार्थी कक्षा में प्रथम आने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं या दो खिलाड़ी पुरस्कार जीतने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं तो उसे वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा कहते हैं।

2. अवैयक्तिक प्रतिस्पर्धा

अवैयक्तिक प्रतिस्पर्धा वह है जो अनजाने व्यक्तियों या समूहों के बीच होती है। उदाहरणार्थ, ‘कामन सेन्स क्रॉसवर्ड्स’ विवाद या ‘हीरो साईकिल पहेली -विवाद’ में देश के अनेक लोग भाग ले सकते हैं और लेते भी हैं। इनमें से कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को पहचानता ही नहीं, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति दूसरे पर विजय पाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। इसी कारण एक ही वस्तु को बनाने वाले कई उत्पादक एक-दूसरे से परिचित हुए बिना ही आपस में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। सर्वश्री गिलिन और गिलिन ने वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा को ‘चेतन प्रतिस्पर्धा तथा अवैयक्तिक प्रतिस्पर्धा को ‘अचेतन प्रतिस्पर्धा’ कहा है।

प्रतिस्पर्धा के स्वरूप

सर्वश्री गिलिन और गिलिन ने प्रतिस्पर्धा के चार स्वरूपों का वर्णन किया है। ये स्वरूप निम्नवत् हैं

1.आर्थिक प्रतिस्पर्धा

आर्थिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों या समूहों के बीच जो प्रतिस्पर्धा चलती रहती है उसे आर्थिक प्रतिस्पर्धा कहते हैं। समाज या संस्कृति के अनुसार प्रत्येक समाज में कुछ आर्थिक वस्तुओं की इच्छा उस समाज के सभी लोग करते हैं। यदि इन वस्तुओं की पूर्ति सीमित है, तो लोगों में उनकी प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा होती है। उद्योगपतियों व्यापारियों आदि में आर्थिक प्रतिस्पर्धा प्रायः अधिक होती है।

2. सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा

मानव की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह होती है कि वह अपनी संस्कृति को अधिक उत्तम समझता है और इसीलिए उसे औरों (Other) पर थोपने का प्रयत्न करता है। किसकी संस्कृति कितनी उत्तम है, इसी होड़ के फलस्वरूप सांस्कृतिक प्रतिस्प चलती है, व्यवहार के तरीकों विश्वासों, आदर्शों, संस्थाओं तथा सांस्कृतिक विधियों के बीच चलने वाली प्रतिस्पर्धा, सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा के अन्तर्गत ही आती है। इसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा के लिए पश्चिमी देशों ने प्रायः कितने ही व्यापारियों व मशिनरियों को अन्य देशों, विशेषकर भारतवर्ष, अफ्रीका आदि को भेजा है। भारतवर्ष में भारतीय धर्मों के मानने वाले अनेक व्यक्तियों का ईसाई धर्म को स्वीकार कर लेना या भारतवासियों द्वारा अंग्रेजी अदब, पोषक, बोलचाल आदि को ग्रहण कर लेना, या भारतवासियों द्वारा अंग्रेजी अदब, पोशाक, बोलचाल आदि को ग्रहण कर लेना, सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में पश्चिमी देशों की विजय का ही द्योतक है।

3. प्रजातीय प्रतिस्पर्धा

विभिन्न प्रजातियों धारणा (Race) में भी परस्पर प्रतिस्पर होती है, क्योंकि लोगों के दिलों में, यह गलत धारणा घर कर गयी है कि प्रजातियों में भी श्रेष्ठता और हीनता होती है। इस धारणा के अनुसार श्वेत प्रजाति (White Race) सर्वश्रेष्ठ प्रजाति है, जबकि श्याम प्रजाति (Black Race) अर्थात नीग्रो प्रजाति सबसे हीन प्रजाति है। इन दोनों के मध्य में ही अन्य प्रजातियों का स्थान है। पर चूंकि इस ऊँच-नीच का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. इस कारण प्रत्येक प्रजाति अपनी श्रेष्ठता को प्रमाणित करने का प्रयत्न करती है। अमेरिका में आज भी श्वेत लोग नीग्रो को अत्यधिक हेय दृष्टि से देखते हैं।

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4.स्थिति या कार्य के लिए प्रतिस्पर्धा

प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक तौर पर उच्च स्थिति प्राप्त करना तथा समाज द्वारा मान्य अधिक महत्वपूर्ण कार्य करना चाहता है। विद्यार्थीगण जब आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं, दो प्रेमी या प्रेमिकाएँ जब परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं, कई व्यक्ति जब प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठते हैं या खेल-कूद आदि में सबसे आगे होने के लिए जी-जान से भरसक प्रयत्न करते हैं, तो हमें स्थिति या कार्य के लिए होने वाली प्रतिस्पर्धाओं के विभिन्न रूपों के दर्शन होते हैं।

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