प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य (श्रीनिवास) – श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक “रिवीजन एण्ड सोसाइटी एमंग कुर्ग आफ साउथ इण्डियन 1952” में संस्कृतिकरण की अवधारणा प्रस्तुत किया और इसके द्वारा जाति प्रथा की संरचना एवं संस्तरण में होने वाले परिवर्तनों को समझाने का प्रयत्न किया गया है। आधुनिक भारत में निम्न जाति के सदस्य ऊँची जातियों के संस्कारों व जीवन के ढंग का अनुकरण कर रहे है और जातिय संस्तरण में उच्च स्थान व स्थिति को प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे। हैं और उसमें सफल भी हो रहे हैं।
श्रीनिवास का कथन है कि शिक्षा और आर्थिक संमृद्धि संस्कृतिकरण को बढ़ावा देने लगती है। इस संस्कृतिकरण से जाति में केवल पदमूलक परिवर्तन आता है न कि संरचनात्मक परिवर्तन।
श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण एक जाति को जाति संस्तरण में ऊँचा पद प्राप्त करने योग्य बनाता है। इस प्रक्रिया में केवल रीति-रिवाज, आदतों को ही नहीं बल्कि विचारों, मूल्यों, आदर्शों को भी ग्रहण किया जाता है। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में अधिकतर निम्न जातियाँ या जनजातियाँ ऊपर की ओर गतिशीलता के रूप में आ जाते हैं। अतः इसका जातीय व्यवस्था के पदमूलक परिवर्तन होता है।
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संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का एक स्थानीय स्वरूप भी दिखाई देता है। अतः जो जातियाँ क्षत्रिय, वैश्य, होने का दावा करती है इन जातियों में परस्पर गहरी भिन्नताएँ मौजूद हैं। श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण के लिए विशेष आर्थिक स्तर की आवश्यकता नहीं है और न ही उसका किसी समूह की आर्थिक स्थिति पर कोई प्रभाव पड़ता है। यद्यपि यह सत्य है कि आर्थिक स्थिति उच्च होने पर संस्कृतिकरण में सहायता अवश्य होती है।
उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण एक प्रकार्यवादी प्रक्रिया है जो किसी के द्वारा कभी भी अपना कर अपनी जाति से उच्च जाति में जाया जा सकता है।
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