प्रबुद्धवाद का युग क्या था? प्रबुद्धवाद के युग के प्रमुख प्रबुद्धवादियों का वर्णन कीजिए।

प्रबुद्धवाद का युग- यूरोप में अठारहवी शताब्दी में बुद्धिजीवियों के विचारों के फलतः एक व्यापक जागृति हुयी, जिसे ‘बौद्धिक क्रांति’ की संज्ञा दी गयी इस शताब्दी को ‘प्रबुद्धवाद’ का नाम दिया गया। इस युग के दार्शनिकों ने धर्म व समाज में प्रचलित प्रत्येक अन्याय, दुष्प्रथा, अन्धविश्वास और पुरातन व्यवस्था की जड़ों पर प्रहार किया। उनका उद्देश्य भ्रष्टाचारी शासन व्यवस्था और क्रूर एवं अमानवीय न्यायिक व्यवस्था को बदलना और समाज से विशेष अधिकारों को समाप्त करके समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व- भावना का विकास करना था। उनके प्रयासों से कालान्तर में यूरोपीय समाज के आर्थिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, दार्शनिक क्षेत्रों में नई मान्यताओं का उदय और विकास हुआ। फ्रांस की बौद्धिक क्रांति के प्रवर्तकों की परम्परा इतिहास में ‘प्रबुद्धवादियों’ के नाम से प्रसिद्ध है। ये विचारक विवेकशील थे, अतः ये प्रत्येक तथ्य की सत्यता और उपयोगिता को विवेक की कसौटी पर कसते थे। उनका दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक था। वे मानववादी भी थे, अतः उन्होंने मानव अधिकारों तथा मानव आदर्शों की प्रतिष्ठा पर बल दिया। वे व्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिकता देते थे। स्पष्ट है कि इन प्रबुद्धवादियों का नारा था, तर्क, सहिष्णु और मानवता

वैज्ञानिक विकास और प्रगति के परिणामस्वरूप दर्शनशास्त्र, समाज विज्ञान और धर्मशास्त्र पर से परम्परा, रूढ़िवादिता और साम्प्रदायिकता का प्रभाव विनष्ट होने लगा। अब बुद्धिवाद और भौतिकवाद का प्रभाव बढ़ने लगा। दर्शन के विकास के क्षेत्र में रेने देकार्त, पौर गेसेण्डी, थामस हॉब्स, वरूच, स्पिनोजा, लाइबनित्ज जान, लॉक, डेविड ह्यूम और इमैनुएल कांट इत्यादि दार्शनिकों की बड़ी महत्वपूर्ण देन है। अठारहवीं सदी को यूरोप के विज्ञान और दर्शन की प्रगति व नवीन विचारधाराओं के परिणामस्वरूप जो व्यापक जागृति उत्पन्न हुई, वह ‘बौद्धिक जागृति’ कहलाती है। अब दार्शनिकों, विचारकों व आलोचकों ने सरकार के दैवी रूप, समाज की घोर असमानता, धार्मिक असहिष्णुता और आर्थिक प्रतिबन्ध की तीव्र आलोचना की अतः सुधारों की माँग, तीव्र बलवती और व्यापक होती गयी।

अठारहवीं सदी के दार्शनिकों, विचारकों व आलोचकों में कुछ सामान्य विशेषताएँ थीं। वे प्रायः सभी प्रचलित व्यवस्था के विरोधी व चर्च राज्य व्यवस्था में सुधारों के समर्थक थे। चूंकि अठारहवीं सदी में विज्ञान और दर्शन या बुद्धिवाद ने मानव विचारों को अत्यधिक प्रभावित किया, अतः इस शताब्दी को प्रबुद्धवाद या बुद्धिवाद का युग’ कहा जाता है।

प्रबुद्धवाद के प्रमुख दार्शनिक व लेखक

मान्टेस्क्यू – तत्कालीन विचारकों, लेखकों में मान्टेस्क्यू का स्थान ऊंचा है। वह परिमित वैधानिक राजतंत्र का समर्थक था। राज्य व्यवस्था के सम्बन्ध में मान्टेस्क्यू ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त का प्रतिपादक था। उसके सिद्धान्त को 1787 में अमेरिकी संविधान में अपनाया गया व फ्रांसीसी क्रांतिकारी ने भी इसी सिद्धान्त का अनुसरण किया। मॉन्टेस्क्यू ने ‘कानून की आत्मा” नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें उसने विविध देशों के विभिन्न ” कानूनों और संस्थाओं को देश-विदेश, भौगोलिक और प्राकृतिक वातावरण का प्रतिफल बताया।

वाल्टेयर – यह यूरोप का ‘साहित्य सम्राट’ समझा जाता था। वह बुद्धिवाद का प्रतिनिधि था। उसने अनेक पुस्तकें-इतिहास, नाटक, महाकाव्य और निबन्ध आदि लिखीं। यह विचार, भाषण, लेखन व कार्य की स्वतंत्रता का समर्थक था। वह प्रबुद्ध व प्रगतिशील राजतंत्र का समर्थक था। वह प्रबुद्ध व परोपकारी राजाओं और व्यक्तियों द्वारा शासन तथा समाज का उत्थान चाहता था। अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में उसका मुख्य उद्देश्य चर्च का समूल विनाश था। उसके विचारों के प्रभावस्वरूप तत्कालीन सामाजिक धार्मिक, शासन सम्बन्धी व्यवस्थाओं व चर्च के प्रति अश्रद्धा व आलोचनात्मक प्रवृत्ति फ्रांसीसी क्रांति का आधारभूत कारण बनी।

रूसो – अठारहवीं सदी का सर्वाधिक मौलिक व प्रभावकारी विचारक व लेखक जीन जैक्स रूसो था। उसने अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें ‘सामाजिक संविदा’ तथा एमिल प्रमुख है। रूसो फ्रांसीसी क्रांति का पैगम्बर माना जाता है। उसकी कृति ‘सामाजिक संविदा’ क्रांति की बाइबिल बन गयी। रूसो के लोकेच्छा सिद्धान्त के अनुसार राज्य की शक्ति जनता में निहित होती है। शासक अपने अधिकारों व कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। जनता उन्हें अपदस्थ कर सकती है। रूसो के ये विचार आधुनिक प्रजातंत्र के मूल तंत्र है। रूसो ने समानता और स्वतंत्रता को सामाजिक का मूलाधार बतलाया। रूसो के विचारों से प्रभावित होकर ही फ्रांसीसी क्रांतिकारियों ने (Liberty, Equality and Fraternity) के नारे अपनाये थे। सम्राट नेपोलियन के विचारानुसार “यदि रूसो पैदा न हुआ होता तो फ्रांसीसी क्रांति भी न हुई होती।”

दिदरो – तत्कालीन समाज और राजनीति के समालोचकों में दिदेरों उल्लेखनीय है। ‘विश्वकोष’ में उसने अनेक निबन्ध लिखे। इनमें क्रांतिकारी और नास्तिक विचारों का प्रचार किया। निरंकुश राजतंत्र व चर्च के दोषों को उजागर किया।

इन विचारकों के अतिरिक्त केक्सेन, एडम स्मिथ, तुर्जी, बेकारिया आदि विचारकों ने तत्कालीन समाज को अपनी परम्पराओं, व्यवस्थाओं के विरुद्ध आन्दोलित कर दिया था।

फिलिप द्वितीय का संक्षिप्त जीवन परिचय दीजिए।

प्रबुद्धवाद का प्रभाव

यद्यपि यूरोप के प्रायः अधिकांश राज्यों में बौद्धिक क्रांति हुई, परन्तु कई कारणों से फ्रांस पर इसका अत्यधिक प्रभाव पड़ा। अठारहवीं सदी के समाज, राजनीतिक, धर्म, अर्थनीति, की आलोचनाओं द्वारा फ्रांस के दार्शनिकों ने न केवल फ्रांस को विद्यमान संस्थाओं व व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में जनता की श्रद्धा को क्षीण बना दिया। वस्तुतः फ्रांसीसी राज्यक्रांति प्रारम्भ होने के बहुत पूर्व ही लोगों में बौद्धिक क्रांति सम्पन्न हो चुकी थी। ये दार्शनिक व विचारक क्रांति के एक निमित्त थे, क्योंकि उन्होंने क्रांति के नेताओं के गुट को शिक्षित किया, उनमें कुछ गहन सिद्धान्तों को जमाया, उनके मस्तिष्क को एक विशेष ढांचे में ढालकर एक विशेष दिशा में मोड़ दिया, उनके नेत्रों के समक्ष कुछ शक्तिशाली खड़े कर दिये और एक अत्यधिक आशावादी दृष्टिकोण को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने क्रांति को जन्म नहीं दिया, अपितु उन्होंने उसके कारणों को बड़ी चतुराई के साथ खोलकर सामने रख दिया और लोगों को वाद-विवाद के लिए बाध्य किया। क्रोध घृणा को उत्तेजित किया। यह • विचार हेजन ने व्यक्त किए हैं।

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