प्राथमिक शिक्षा की अवधारणा
प्राथमिक शिक्षा की अवधारणा – औपचारिक रूप से शिक्षा-व्यवस्था के प्रथम स्तर को प्राथमिक स्तर कहा जाता है। वर्तमान समय में सामान्यतः बालक की 4-6 वर्ष की आयु से प्राथमिक शिक्षा का श्रीगणेश हो जाता है, जो साधारणतः 14 वर्ष की आयु होने तक चलती है। इसी प्राथमिक स्तर पर बालक किसी पाठशाला में प्रवेश लेकर नियमित तरीके से विद्या का अध्ययन शुरू कर देता है। प्राथमिक शिक्षा के द्वारा बालक को शिक्षा प्रक्रिया की प्रथम आवश्यकता सम्प्रेषण के माध्यम से भाषा की शिक्षा प्रदान की जाती है, साथ ही उन्हें सामाजिक जीवनयापन की प्राथमिक क्रियाओं में प्रशिक्षण दिया जाता है। अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि प्राथमिक शिक्षा मानव जाति के प्रत्येक सदस्य के लिए अनिवार्य है।
प्राथमिक शिक्षा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्राचीन शिक्षा का इतिहास बहुत पुराना है। प्राचीनकाल से ही मनुष्य शिक्षा को जीवनोपयोगी मानता चला आ रहा है। शिक्षा के इतिहास के अध्ययन हेतु हम इसे मुख्य रूप से
पाँच कालों में बाँट सकते हैं
- वैदिककाल (प्रारम्भ से 600 बी.सी. तक)
- बौद्धकाल (500 बी.सी. से 1200 ई. तक)
- मध्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक)
- ब्रिटिशकाल (1800 ई. से 1947 ई. तक)
- आधुनिककाल (1947 ई. से अब तक)
1. वैदिककाल में शिक्षा
प्राचीनकाल में भारत में शिक्षा का उदय वेदों से माना जाता है। हालांकि वेदों की प्राचीनता के सम्बन्ध में कोई तथ्य उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह सत्य है कि यह हिन्दुओं का प्राचीनतम साहित्य है। वेद शब्द की उत्पत्ति विद धातु से हुई और इसका अर्थ हुआ ज्ञान वेदों को भारतीय जीवन-दर्शन का स्रोत माना जाता है। पुराण और वेद अनादि हैं। इस काल में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था सामान्यतया परिवारों में होती थी लेकिन इस काल में वर्णाश्रम व्यवस्था से यह ज्ञात होता है कि मानव प्रारम्भ से ही शिक्षा को जीवनोपयोगी मानता रहा है। प्राथमिक शिक्षा का रूप हमें गुरुकुलों में देखने को मिलता है। विद्यारम्भ संस्कार ‘ओम नमः सिद्धम्’ के उच्चारण से सम्पन्न होता था उपनयन संस्कार की आयु ब्राह्माणों के लिए 8, क्षत्रियों के लिए 11 और वैश्यों के लिए 12 वर्ष सुनिश्चित थी। वेद, वेदांग, व्याकरण, साहित्य, छन्द, निरुक्ति, कल्प ज्योतिष गणित एवं चिकित्साशास्त्र पाठयक्रम प्रमुख विषय थे शिक्षण पद्धति में रटन्त प्रणाली के साथ-साथ स्वयं करके सीखने पर भी जोर दिया जाता था।
वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य
वैदिककालीन शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य थे
1.चरित्र का निर्माण
छात्रों के व्यक्तित्व का विकास करना भी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था महान विभूतियों के जीवन-चरित्र की शिक्षा देकर उनमें सद्भावना, सहयोग, आत्मसम्मान, आत्म-संयम व प्रेम आदि गुणों का निर्माण किया जाता था।
2. व्यक्तित्व का विकास
व्यक्तिवाद का विकास करना भी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के आयोजन द्वारा उनमें ज्ञान, निष्पक्षता एवं निर्णय और न्याय की शक्तियों का विकास किया जाता था आत्मसंयम और आत्मविश्वास जैसे गुणों का विकास किया जाता था।
3. ज्ञान एवं अनुभव पर जोर-
वैदिक काल में छात्रों की योग्यता का मापदण्डउपाधि या प्रमाण-पत्र न होकर उनके द्वारा अर्जित ज्ञान होता था।
4. चित्तवृत्तियों का निरोध
मानव अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण आसानी से नहीं कर पाता है। वह उनके वंशीभूत होकर विपरीत मार्ग पर चल पड़ता है। इसलिए शिक्षा के – उद्देश्य मन को भौतिक सुविधाओं से दूर कर आध्यात्मिक जगत् की तरफ प्रवृत्त करने का प्रयास करना है और आसुरी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करना ही शिक्षा का उद्देश्य था तथा आत्मोत्सर्ग हेतु जप, तप एवं योग पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
5. संस्कृति का संरक्षण
राष्ट्रीय संस्कृति के संरक्षण पर वैदिक काल में विशेष ध्यान दिया जाता था। परिवार और गुरुकुलों के माध्यम से नागरिक कुशलता, सामाजिकता आदि का विश्वास करना शिक्षा का उद्देश्य था ।
2. बौद्ध काल में शिक्षा
ब्राह्मण धर्म की प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्ध धर्म का उदय हुआ जिसमें ब्राह्मण धर्म में व्याप्त कुरीतियों, असमानताओं एवं शूद्रों और नारी शिक्षा की उपेक्षा के निराकरण का संकल्प किया गया। परिणामस्वरूप ब्राह्मणों का शिक्षा पर से एकाधिकार समाप्त होता चला गया। बौद्ध प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा का प्रावधान था। यह शिक्षा बालकों को बौद्ध और विहारों में प्रदान की जाती थी। यह आठ वर्ष की आयु से बारह वर्ष की आयु तक चलती थी। बौद्ध-प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा की अवधि सामान्य तौर पर चार वर्ष होती थी। प्राथमिक स्तर पर सर्वप्रथम बालक को सिद्धरस्तु नामक पोथी के द्वारा 49 अक्षरों का अध्ययन कराया जाता था। इसके पश्चात् भाषा का लिखना और पढ़ना सिखाया जाता था। तदोपरान्त शब्द विद्या, शिल्प विद्या, चिकित्सा विद्या, हेतु विद्या और अध्यात्म विद्या नामक पाँच विज्ञानों की शिक्षा प्रदान की जाती थी।
इस स्तर पर बालकों को बौद्ध धर्म की सामान्य शिक्षाओं का भी ज्ञान कराया जाता था। प्रब्बज्जा का इच्छुक बालक सिर के बाल मुड़वाकर पीताम्बर धारण करके गुरु के चरणों में माथा टेककर ‘शरण-वी’ अर्थात् बालक- “बुद्धं शरणम् गच्छामि, धम्म शरणम् गच्छामि, संघ शरणम् गच्छामि’ का उच्चारण करता था। इसके बाद बालक को ‘सामनेर’ नाम से पुकारा जाता था।
3. मध्यकाल में शिक्षा
इस काल में प्राथमिक शिक्षा ‘मकतबों’ में दी जाती थी। मुस्लिम शिक्षा की शुरुआत ‘बिस्मिल्लाह रस्म’ से होती थी। यह रस्म उस समय सम्पन्न की जाती थी, जब बालक चार वर्ष, चार माह, चार दिन की आयु को प्राप्त कर लेता था। इस मौके पर बालक को नये कपड़े पहनाये जाते थे एवं उसके सभी नाते-रिश्तेदार एवं सम्बन्धी एकत्र होते थे। इसके पश्चात् मौलवी कुरान की आयतों को पढ़ते थे और बालक से उसका उच्चारण कराते थे। अगर बालक पूरा पाठ दोहराने में असक्षम होता था, तो उसको केवल ‘विस्मिलाह’ कह देना ही पर्याप्त समझा जाता था। इस प्रकार से बालक की प्रारम्भिक शिक्षा का श्रीगणेश होता था। प्राथमिक स्तर पर लिपि ज्ञान, कुरान शरीफ का तीसवाँ भाग, लिखना पढ़ना, अंकगणित, पत्र-लेखन, वार्तालाप और अजनवीसी पढ़ाई का ज्ञान दिया जाता था।
मध्यकालीन शिक्षा के उद्देश्य
मध्यकालीन शिक्षा के उद्देश्य वैदिक और बौद्धकालीन शिक्षा से बिल्कुल मित्र थे। इनका प्रमुख उद्देश्य केवल मुसलमानों में ज्ञान का प्रसार करना, इस्लाम धर्म का प्रचार करना, इस्लामी कानूनों का प्रचार करना, शिक्षा द्वारा सांसारिक उन्नति करना एवं मुस्लिम शासन को सुदृढ़ बनाना था।
4. ब्रिटिश काल में शिक्षा
मूलरूप से ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक व्यापारिक संस्था थी जो भारत में धन कमाने केलिए आयी थी, न कि शासन करने के लिए। भारत में उसका आने का उद्देश्य समाज को शिक्षित करने का नहीं बल्कि भारत से धन बटोरकर उसे हड़पने का था। भारत की जनता अंग्रेजी की चाल को नहीं समझ पा रही थी। इसलिए शासन चलाना कठिन हो रहा था। कम्पनी के कर्मचारी यह महसूस करते थे कि स्थानीय लोगों से प्रत्यक्ष कर्तालाप भी अधिक उपयोगी हो सकता है। इसके लिए उन्हें अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना भी आवश्यक है। इसलिए अंग्रेजों ने ईसाई मिशनरियों की सहायता से धर्म और शिक्षा का सहारा लिया। इसके लिए उन्होंने अनेक स्कूलों की स्थापना की जो कि भारत में शिक्षा की शुरुआत थी लेकिन कुछ परोपकारी लोगों के अलावा अधिकारिक रूप से कोई भी प्रयास नहीं किया गया तथा कम्पनी शिक्षा के प्रति उदासीन रही। सन् 1813 में शिक्षा के प्रति कम्पनी के उत्तरदायित्व को निश्चित करने की दिशा में एक कदम उठाया गया और प्रतिवर्ष कम से कम एक लाख रुपया भारतवासियों की शिक्षा के विकास के लिए व्यय किये जाने का प्रावधान किया गया। लेकिन इस अधिनियम में भारत में शिक्षा पद्धति, शिक्षा की प्रकृति, पाठ्य-वस्तु अथवा माध्यम के सम्बन्ध में कोई विवरण नहीं था, जिसकी वजह से निर्धारित धनराशि व्यय नहीं की जा सकी।
इसके पश्चात् सन् 1823 में जनशिक्षा की सामान्य समिति का गठन किया गया और शिक्षा के लिए निर्धारित धनराशि व्यय करने का दायित्व इस पाश्चात्य शिक्षा के पक्ष में थे, जिससे प्राच्य-पाश्चात्य, विवाद पैदा हो गया। प्राचीन भारतीय शिक्षा के समर्थकों का मानना था कि भारत के लोग पाश्चात्य शिक्षा के योग्य नहीं हैं तथा यदि उन्हें पाश्चात्य शिक्षा प्रदान की गयी तो वे अंग्रेजों के समकक्ष हो जाएंगे। अतः उनके लिए संस्कृत व फारसी के माध्यम वाली प्राचीन शिक्षा की ही व्यवस्था होनी चाहिए। इसके विपरीत पाश्चात्य शिक्षा के पक्षधरों का मानना था कि पाश्चात्य शिक्षा भारतीयों को पश्चिमी विचारधारा में ढाल देगी, जिससे भारत में अंग्रेजी राज्य की जड़ें सुदृढ़ होंगी। अतः शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जानी चाहिए। समिति के सदस्यों में मतभेद होने के कारण कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठाया जा सका।
5. स्वतंत्र भारत में शिक्षा
स्वतंत्रता से पूर्व भारत में प्राथामिक शिक्षा सदैव से ही उपेक्षा की दृष्टि से देखी जाती रही है। परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् प्राथमिक शिक्षा से सम्बन्धित समस्याओं का विस्तृत अध्ययन किया गया। इतना अध्ययन पहले कभी नहीं किया गया। इस काल में गठित 1948-49 का विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग, सन् 1952-53 का माध्यमिक शिक्षा आयोग, सन् 1964-65 का शिक्षा आयोग, सन् 1977 की पाठ्यक्रम समिति तथा सन् 1983 के राष्ट्रीय शिक्षक आयोग एवं सन् 1968, 1979 एवं 1986 में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीतियाँ भारतीय शिक्षा के इतिहास की कुछ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं।
अनिवार्य शिक्षा के लिए समय-समय पर विभिन्न समाज सुधारकों और शिक्षा मनीषियों ने इसकी आवश्यकता का अनुभव किया और उसके प्रचार और प्रसार का प्रयास किया। उद्देश्य है
सभ्यता संस्कृति की वाहक है स्पष्ट करें।
स्वतंत्रता भारत का शिक्षा के उद्देश्य
आधुनिक भारत में प्राथमिक शिक्षा के निम्न
- बालकों को स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का ज्ञान कराना और स्वास्थ्यवर्द्धक क्रियाओं का प्रशिक्षण देना।
- बालकों को भाषा का ज्ञान कराना और उन्हें उनके प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण से अवगत कराना।
- बालकों में सामूहिकता की भावना उत्पन्न करना, उन्हें वर्ग-भेद से ऊपर उठाना और जीवन कला में प्रशिक्षित करना।
- बालकों में विभिन्न सांस्कृतिक क्रियाओं-उत्सव, लोकगीत, लोकनृत्य आदि में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना एवं आगे बढ़ाना और उनके अन्तर्गत सांस्कृतिक सहिष्णुता का भाव उत्पन्न करना ।
- बालकों में सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों का विकास करना, उनका नैतिक एवं चारित्रिक विकास करना।
- बालकों को विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों एवं उनकी शिक्षा से अवगत कराना, उनमें सर्वधर्म सम्भाव की धारणा उत्पन्न करना।
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- बेबीलोन के प्रारम्भिक समाज को समझाइये |
- रजिया के उत्थान व पतन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।