प्राचीन भारत में पुरुषार्थ – प्राचीन हिन्दू शास्त्रकारों ने मनुष्य तथा समाज की उन्नति के निमित्त जिन आदर्शात्मक विधानों को प्रस्तुत किया, उन्हें पुरुषार्थ की संज्ञा दी जाती है। पुरुषार्थ का सम्बन्ध मनुष्य तथा समाज दोनों से हैं। वास्तव में ये मनुष्य तथा समाज के बीच आन्तरिक सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं। उन्हें नियमित बनाते हैं तथा नियन्त्रित भी करते हैं। संस्कृत में ‘पुरुषैर्ध्य ते पुरुषर्थ्यः’ का वर्णन है अर्थात पुरुष की इष्ट वस्तु ही पुरुषार्थ है। पुरुषार्थों का उद्देश्य मनुष्य के सांसारिक तथा आध्यात्मिक सुखों के बीच सम्बन्ध स्थापित करना है।
भारतीय परम्परा में सांसारिक सुखों को क्षणिक मानते। हुए भी उन्हें पूर्णत: त्याज्य नहीं समझा गया है बल्कि उसके प्रति आवश्यकता से अधिक लगाव का ही विरोध किया है। मनुष्य भौतिक सुखों के संयमित उपभोग द्वारा ही आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है। इस प्रकार भौतिक सुखों को आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति में साधक माना गया है न कि बाधक इस प्रकार दोनों घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है।
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इसके अनुसार मानव जीवन के कुछ उद्देश्य है जिनकी उसे पूर्ति करनी चाहिए। पुरुषार्थ का सम्बन्ध शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा की सन्तुष्टि से है। मनुष्य इसके लिए आजीवन प्रयत्न करता है। चार प्रकार के पुरुषार्थ है-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। पुरुषार्थ मनुष्य को लौकिक एवं पारलौकिक दोनो प्रकार का कल्याण एवं सुख प्रदान करते हैं।
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