प्राचीन आश्रम व्यवस्था – मनुष्य को अपने जीवन में विकास के लिए निरन्तर प्रयासरत रहना चाहिए। इस प्रयास हेतु मानव जीवन में चार सोपान बताए गए जिन्हें चार आश्रमों के नाम से जाना जाता है। ये आश्रम है- 1. ब्रह्मचर्य आश्रम, 2. गृहस्थ आश्रम, 3. वानप्रस्थ आश्रम, 4. सन्यास आश्रम ।
इन आश्रमों को 100 वर्षों में बाँटा गया था। प्रारम्भ के 25 वर्ष तक को ब्रह्मचर्य आश्रम, 25 वर्ष से 50 वर्ष तक की आयु को गृहस्थ आश्रम, 50 से 75 वर्ष तक को वानप्रस्थ आश्रम तथा 75 से 100 वर्ष, या जब तक जीवित रहे, को सन्यास आश्रम कहा जाता था।
(1) ब्रह्मचर्य आश्रम
ब्रह्मचर्य शब्द का तात्पर्य है ब्रह्मचारी जीवन का प्रथम काल जो प्रारम्भ से प्रायः 25 वर्ष तक का होता था, उसे ब्रह्मचर्य आश्रम में ही बिताना पड़ता था। इसे जीवन का प्रथम सोपान माना जाता है। ब्रह्मचर्य आश्रम, नियम के पालन एवं अनुशासन के लिएमहत्वपूर्ण माना गया था। इस आश्रम में ही विद्यार्थी वेदाध्ययन करता था। वह हर प्रकार की शिक्षा-दीक्षा इसी आश्रम में प्राप्त करता था। जिस प्रकार माता अपने बच्चे को 9 माह तक गर्भ में रखकर उसका शारीरिक विकास करती है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य जीवन में बालक अपने गुरु के
समीप रहकर अपना शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास करता था। उपनयन संस्कार के बाद ब्रह्मचर्य का जीवन प्रारम्भ होता था। बालक एवं बालिका दोनों का उपनयन संस्कार होता था। अलग-अलग वर्ण के ब्रह्मचारी के लिए उपनयन की उम्र अलग होती थी। ब्राह्मण बालकों का उपनयन संस्कार 7-8 वर्ष के मध्य में, क्षत्रिय बालकों का उपनयन संस्कार 10-11 वर्ष के मध्य में तथा वैश्य बालकों का उपनयन संस्कार 12 वर्ष में होता था। इससे विदित होता है कि ब्राह्मण वर्ण के बालकों का मस्तिष्क जल्दी ही विकसित हो जाता था।
इस आश्रम में ब्रह्मचारी को कठिन परिश्रम द्वारा जीवन बिताना पड़ता था। वह भिक्षा माँग कर भोजन करता था। भिक्षा वृत्ति से भोजन की व्यवस्था का विधान इसलिए किया गया था। ताकि बालक के आदर नम्रता एवं उदारता के गुणों का विकास किया जा सके। ब्रह्मचारी अपने गुरु की सेवा पूरे तन-मन से करता था, उसका कर्त्तव्य था कि वह गुरु के समीप रहें और उनके आदेशों का पालन करें। ब्रह्मचर्य आश्रम में बालक को हर प्रकार की शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी बालक इस आश्रम में आने वाले जीवन की तैयारी करता था। उसे वेदों का अध्ययन करवाया जाता था तथा साथ ही साथ अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों की शिक्षा इस आश्रम में बालक को दी जाती थी। इस गुरुकुल प्रणाली में राजा और प्रजा दोनों के बच्चों में कोई भेद न था। गुरु की दृष्टि में सभी समान थे। गुरु बालकों को अपने पुत्र के समान मानता था। छात्र गुरु को अपने पिता के समान मानते थे। ब्रह्मचारी को नैतिकता, स्वच्छता तथा सदाचरण की शिक्षा सबसे पहले गुरु से प्राप्त होती थी। यहाँ यह समूह में समभाव से जीवन-यापन के लिए प्रशिक्षित होता था। आश्रम में छात्र को माता-पिता, देवता राजा के प्रति वृद्धा का भाव जागृत किया जाता था। यहाँ वह विषयों से दूर रहता था। इसके लिए उसे प्रत्येक क्षण कार्यरत रखा जाता था। इससे उसका चेतन तत्व नियन्त्रित रहता था जो कौटिल्य के अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था अतः उसकी बाह्य क्रियाओं और आन्तरिक भावनाओं में पूर्ण समता रहती है। वह सदा अध्यापक पर ही आश्रित रहता था, तथा उसी के आश्रम में उसके साथ रहता था।
(2) गृहस्थ आश्रम
ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद विद्यार्थी को विधिपूर्वक स्नान कराया जाता था। विधि पूर्वक करवाए गए इस स्नान के बाद व्यक्ति सांसारिक जीवन में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त कर लेता था तथा यह स्नान के बाद स्नातक कहलाता था। ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद विवाह संस्कार को सम्पन्न किया जाता था जिसके साथ व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। 25 वर्ष की आयु से लेकर 50 वर्ष तक की आयु तक का काल गृहस्थ आश्रम का होता है। सभी आश्रम में गृहस्थ जीवन को ही सबसे महत्वपूर्ण आश्रम माना गया है। इस आश्रम की प्रशंसा प्रत्येक ग्रन्थों में की गई है। यह आश्रम सभी आश्रमों का मूलाधार बताया गया है। गृहस्थ आश्रम का विवरण करते हुए यह कहा गया है कि यह आश्रम धर्म, अर्थ, काम, एवं मोक्ष की प्राप्ति का प्रमुख आधार है। धर्मशास्त्रों में गृहस्थ आश्रम के महत्व पर बहुत बल दिया है। गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में धर्मसूत्रों में कहा गया है कि आरम्भ में केवल यही एक आश्रम था। पुराणों में इसे अन्य आश्रमों का स्रोत कहा गया है। मनुस्मृति में तो यहाँ तक कहा गया है कि जिस प्रकार वायु से सभी प्राणी जीवित रहते हैं उसी प्रकार गृहस्थ आश्रम से सभी आश्रम जीवित रहते हैं। गृहस्थ आश्रम ही अन्य आश्रमों को आश्रय देता है। जिस प्रकार समुद्र छोटी-छोटी नावों को आश्रय देता है।
मनुष्य को वैयक्तिक रूप में समुन्नत बनाने के लिए प्रयुक्त संस्कार व्यवस्था के 16 सोपानों में से दस (विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमान्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण तथा कर्णवेध) इसी आश्रम में सम्पन्न किए जाते थे। फलतः यह आश्रम आत्मोत्कर्ष का मार्ग अनायास अनावृत कर देता था। परम पुरुषार्थ मोक्ष की साधना के लिए अत्यावश्यक ऋणत्रय से मुक्ति तथा मोक्ष के साधनभूत, त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम का सम्पादन गृहस्थाश्रम में ही सम्भव है। संक्षेप में वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्कर्ष का केन्द्र गृहस्थाश्रम ही था।
गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर ही व्यक्ति का विवाह होता था। वस्तुतः मानव जीवन की पूर्णता का आश्रम था। प्रकृतितः विपरीत प्रतीत होने वाले स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक है। उनके पारस्परिक आकर्षण की व्याख्या जैविकीय मनोवैज्ञानिक अथवा स्वाभाविक गृहस्थाश्रम आवश्यकता कहकर भी की जा सकती है परन्तु इसका तार्किक आधार है-अपूर्ण के पूर्ण होने की व्यग्रता। इसीलिए ऋग्वेद में पति-पत्नी के पारस्परिक सहयोग की आकांक्षा की गई।
मनुष्य गृहस्थ जीवन में न केवल सन्तानोत्पत्ति ही करता है, प्रत्युत परिवार का संचालन भी सुचारु रूप से करता है। इसी गृहस्थ जीवन में मनुष्य कर्त्तव्यों के बीच में घिर जाता है। गृहस्थ आश्रम सामाजिक कर्त्तव्यों के निर्वहन का अवसर प्रदान करता है। यह आश्रम सुखपूर्वक पारिवारिक जीवन व्यतीत करने तथा परिवार के भरण-पोषण का उपयुक्त आश्रय माना जाता था। इस आश्रम में व्यक्ति धर्मानुकूल अर्थ संग्रह भी करता था। अर्थशास्त्र में गृहस्थ के निम्नलिखित कर्त्तव्य बताए गए हैं
- बताए गए धर्मानुसार ही जीवन यापन करना।
- शास्त्रीय विधान के अनुसार विवाह करना।
- अपनी विवाहित पत्नी के साथ ही सम्बन्ध रखना।
- देवताओं, भृत्यों तथा अन्य पारिवारिक सदस्यों के भोजन ग्रहण करने के बाद बचे हुए भोजन को ग्रहण करना ।
गृहस्थाश्रम का महत्व
गृहस्थ आश्रम को समस्त आश्रमों का मूल कहा गया है, इसका अर्थ है कि गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करता है अथवा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। वह धर्म का कार्य भी गृहस्थ आश्रम में ही रहता है तथा विभिन्न प्रकार के यज्ञों का सम्पादन] इसी आश्रम में करता है। गृहस्थ आश्रम में ही वह वैवाहिक जीवन से सम्बन्धित होता है तथा पूर्ण गृहस्थी में प्रवेश करता है। वह वैवाहिक जीवन में सन्तानोत्पत्ति करता है तथा सन्तानोत्पत्ति द्वारा वह अपने पितृऋण से मुक्ति इसी आश्रम में प्राप्त करता है। सम्पूर्ण चार आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास को हम किसी न किसी रूप में एक दूसरे सम्बन्धित पाते है। ये आश्रम किसी न किसी तरह से गृहस्थ आश्रम पर ही निर्भर थे। गृहस्थ व्यक्ति के भिक्षा एवं दान से ही ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम का गुजारा होता था। भिक्षा एवं दान देना गृहस्थ व्यक्ति का प्रमुख कर्त्तव्य था।
वानप्रस्थ आश्रम
मनुष्य जीवन के तृतीय चरण को वानप्रस्थ आश्रम कहा जाता था। जिसका समय 50 वर्ष से लेकर 75 वर्ष तक माना गया है। वानप्रस्थ आश्रम में मनुष्य गृह को त्याग कर वन में चला जाता था, जहाँ इन्द्रियों को वश में रखकर एकान्त में आध्यात्मिक साधना एवं तपस्या करता था। वह जंगल में भूमि पर शयन तथा कन्द-मूल के माध्यम से उदर की पूर्ति करता था। वानप्रस्थ व्यक्ति की जीवनचर्या काफी कठोर होती थी। उसे अपना घर तथा गाँव छोड़कर जंगल में जाना पड़ता था। उसे अपने गृहस्थ जीवन से हर सम्बन्ध तोड़ना पड़ता था। एक वानप्रस्थी के लिए मांस तथा मिठाई जैसे खार्थो का सेवन वर्जित था। वह कन्दमूल फल खाकर ही जीवन यापन कर सकता था। वानप्रस्थ गाँव में पैदा हुए कन्दमूल फल को नहीं ग्रहण कर सकता था। इसे उसे अपने यत्न से प्राप्त करना होता था। वानप्रस्थ व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता था तथा ब्रह्मचर्य के पालन के साथ-साथ वह सादगी का जीवन व्यतीत करता था। इस प्रकार से वानप्रस्थ आश्रम एक कठोर एवं अनुशासित आश्रम था।
वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति को विभिन्न यज्ञों का संपादन करने का सुझाव दिया गया है। उसके लिए कहा गया है कि यदि वह यज्ञों का आयोजन करता है, तो मोक्ष को प्राप्त करेगा। वानप्रस्थों के जीवन का एक बड़ा भाग वेदों आदि के अध्ययन में व्यतीत होता था तथा यह आवश्यक बताया गया है कि वह इनका अध्ययन करें। वानप्रस्थ व्यक्ति जिन यज्ञों का आयोजन करता था उसमें पंच महायज्ञ विशेष रूप से महत्वपूर्ण माने जाते थे। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि वानप्रस्थ आश्रम मोक्ष का काम करता था। अतएव वानप्रस्थ नियमों का पालन करते हुए व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी तो वह मोक्ष प्राप्त करता था।
(4) सन्यास आश्रम
आश्रम व्यवस्था का सबसे अन्तिम सोपान सन्यास था। जब मनुष्य 75 वर्ष की आयु में पहुँच जाता है, तब वह सन्यास आश्रम में प्रवेश करता था। सन्यास आश्रम कठोर जीवन यापन एवं मोह-माया से विरक्ति का आश्रम था। सन्यासी काम, क्रोध, लोभ एवं मोह को त्याग कर मोक्ष की साधना करता था। एकान्त में रहना एवं भिक्षा माँग कर अपने उदर की पूर्ति सन्यासियों को करनी पड़ती थी। समाज में सन्यास आश्रम का पालन करने के बाद मनुष्य को ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती थी। पुरुषों के समान स्त्रियाँ भी सन्यास आश्रम को ग्रहण कर सकती थीं। प्राचीन भारत में गार्गी, मैत्रेयी, घोषा आदि अनेक नारियों का उल्लेख मिलता है जो ■ तपस्विनी थीं। सन्यासी को दिन में सिर्फ एक बार सादा एवं सात्विक भोजन ग्रहण करने की अनुमति थी। किसी एक स्थान पर अधिक समय तक नहीं ठहर सकता था। एक गाँव में वह अधिक से अधिक एक दिन रुक सकता था। एक नगर में पाँच दिन से अधिक समय तक उसे ठहरने की अनुमति नहीं थी सन्यासी के भ्रमणशील जीवन का प्रमुख कारण यह था कि इसके द्वारा व्यक्ति के अन्दर की आशक्ति समाप्त हो जाएगी। एक सन्यासी जिसका कि आशक्त होना ठीक नहीं था, के लिए भ्रमणशील होना जरूरी था। एक सन्यासी अपनी इन्द्रियों पर कठोर नियन्त्रण रखता था। इसके लिए इन्द्रियों को वश में रखना आवश्यक बताया गया है। उसे हर प्रकार की कुप्रवृत्ति का त्याग कर देना चाहिए तथा एक सन्यासी को सदैव काम, क्रोध, मोह, लोभ से दूर रहना चाहिए। ऐसी मान्यता थी कि कठिन जीवन यापन, कठोर तपस्या एवं काया-क्लेश से व्यक्ति के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, तथा वह परम पद को प्राप्त कर लेता है।
सामाजिक संरचना के स्तर का वर्णन कीजिए।
इस प्रकार से सन्यासी का जीवन कठोर अनुशासन विरक्ति एवं क्लेश का जीवन था, जिन्हें मोक्ष प्राप्त करने का साधन बताया गया है। सन्यास आश्रम के कठोर नियम एवं अनुशासित जीवन से मनुष्य के जीवन में किए गए पाप तथा दुष्कर्मों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, तथा वह स्वर्ग का भागीदार बन जाता है। प्राचीन भारतीय समाज में सन्यासी जीवन को बहुत महत्व प्रदान किया जाता था। उसे समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। सन्यासी के ज्ञान की प्रशंसा अनेक ग्रन्थों में की गई है।
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