फ्रेडरिक महान का जीवन परिचय- फ्रेडरिक द्वितीय का जन्म सन् 1712 ई. में हुआ था। वह अपने पिता फ्रेडरिक विलियम प्रथम की की मृत्यु के बाद सन् 1740 में प्रशा के सिंहासन पर बैठा और इतिहास में फ्रेडरिक महान् के नाम से प्रसिद्ध हुआ उसका पिता उसे एक सैनिक राजा बनाने का इच्छुक था, अतः उसे सैन्य-शिक्षकों के निरीक्षण में रखा गया था।
फ्रेडरिक महान की सैन्य शिक्षा मात्र सात वर्ष की अल्पायु में ही शुरू कर दी गयी थी। अपनी बाल्यावस्था से ही फ्रेडरिक महान को अपने पिता के कठोर नियंत्रण और सैन्यानुशासन से घृणा होने लगी थी। उसकी अभिरूचि साहित्य, कल, संगीत और दर्शन के प्रति अधिक थी परन्तु अपने पिता की इच्छा के अनुरूप फ्रेडरिक को अपने राज्य (प्रशा) की सैनिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं का गहन अध्ययन आरम्भ किया, जो कालान्तर में उसके लिए वरदान सिद्ध हुआ। सन् 1773 में उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध सौन्दर्यहीन एलिजावेव क्रिस्टीना नामक स्त्री से विवाह करना पड़ा, जिससे उसका वैवाहिक जीवन असफल हो गया। उसने अपने अत्यधिक परिश्रम, उदार गुणों और प्रबुद्ध शासन के आधार पर प्रशा की प्रथम श्रेणी की शक्ति बनाने के साथ-साथ उसे एक अत्यन्त सुदृढ़ व्यवस्था भी प्रदान की, प्रशा का यूरोप का नाम यूरोप के शक्तिशाली देश के रूप में लिया जाने लगा और प्रशा के साथ-साथ फ्रेडरिक महान को भी अत्यधिक सम्मान मिला।
फ्रेडरिक महान के राजनीतिक विचार
एसे ऑन दी फॉर्म्स ऑफ गवर्नमेंट नामक उसकी पुस्तक से हमें फ्रेडरिक के राजनीतिक विचारों का पता चलता है। यद्यपि वह समकालीन बौद्धिक क्रांति से अत्यधिक प्रभावित था, किन्तु एक निरंकुश शासक होने के कारण उसने अपने हाथों में सम्पूर्ण प्रशासन और सैनिक शक्तियों को केन्द्रित कर रखा था। उसकी मान्यता थी कि राजा अपने देश का प्रधान न्यायाधीश और आर्थिक विषयों का संचालक होता है, यह सम्पूर्ण देश के लिए सोचता और कार्य करता है, राष्ट्र में राजा का वही स्थान है, जो शरीर में मस्तिष्क का होता है। राजा को कर्तव्यपरायण, परिश्रमी ओर शीलगुणों से युक्त होना चाहिये। फ्रेडरिक महान् स्वयं सभी विभागों पर कड़ी दृष्टि रखता था, प्रशासन में योग्यता को प्राथमिकता देता था। वह अपने समय की प्रबुद्ध निरंकुशता का श्रेष्ठतम उदाहरण था।
सिंहासन पर बैठते समय उसने अपने राजत्व सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए कहा था कि “राजा राज्य का प्रथम सेवक है।” इसीलिए वह अत्यधिक श्रम करता था। राजकीय, प्रशासकीय कार्यों में अधिकाधिक रूचि लेता था। मनोरंजन के लिए उसके पास समय नहीं था। उसके शासनकाल में धर्म का नहीं, अपितु दर्शन का प्रादुर्भाव था। राज्य को चर्च के प्रभाव से पृथक् रखता था। फ्रेड्रिक महान सहिष्णु था। उसने अपने राज्य में बौद्धिक क्रांति का पथ प्रशस्त किया था।
फ्रेडरिक महान् की गृहनीति ( आन्तरिक नीति)
अपने संपूर्ण शासन काल (1740-1786 ई.) में एक महान् वास्तविक रूप से राज्य का प्रथम सेवक ही बना रहा। अपने कर्तव्यों के प्रति बहुत सजग था। किसी भी अवस्था में वह कठिनतम परिश्रम करने के लिए तत्पर रहता था। गृहनीति के अंतर्गत फ्रेड्रिक महान् का उद्देश्य प्रजा के आर्थिक स्तर को उन्नत करना था। इस संदर्भ में वह प्रजा की कृषि में क्रांति लाना चाहता था। उसने सामन्तों को प्रोत्साहित किया कि वे कृषि के क्षेत्र में वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करें। सिंचाई की व्यवस्था करे। नहरों का निर्माण शासन का लक्ष्य बन गया। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में फ्रेड्रिक महान अनुदार था। वह अर्थव्यवस्था का कठोरता से निरीक्षण करता था। साम्राज्य की आय और व्यय पर नियंत्रण रखता था। अपनी सुदृट्ट अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप उसने दो लाख की शक्तिशाली सेना का निर्माण किया था। इसी शक्तिशाली सेना से ही उसने अपने प्रशा को गौरव प्रदान किया था।
गृह-नीति के अंतर्गत फ्रेड्रिक महान् ने न्याय व्यवस्था के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सुधार किए। भ्रष्ट न्यायाधीशों को पदच्युत कर दिया गया। धार्मिक नीति के अंतर्गत वह सहिष्णु था, उसने अपने राज्य में प्रोटेस्टेन्टों तथा कैथोलिकी सभी को स्थान दिया था। उसके समय में प्रशा ने साहित्यिक क्षेत्र में भी अभूतपूर्व उन्नति की थी। विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति हेतु उसने बर्लिन में विज्ञान अकादमी स्थापित की थी तथा विदेशी विद्वानों को प्रशा आमंत्रित किया था। सामान्य जनता के लिए अनेकानेक विद्यालयों की स्थापना की थी। उच्च शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण संस्थान स्थापित किए गए थे। राज्य के प्रशासनिक अधिकारी इन्हीं संस्थाओं से चुने जाते थे। वास्तव में फ्रेड्रिक महान् एक प्रबुद्ध शासक था जिसने प्रशा के सर्वागीण विकास के लिए अथक प्रयत्न किए।
फ्रेडरिक महान् की विदेश नीति
फ्रेड्रिक महान की विदेश नीति के दो मुख्य उद्देश्य थे
- प्रशा का यूरोप में प्रभुत्व में स्थापित करना और
- आस्ट्रिया के हैम्बर्ग वंश के अधिकार को समाप्त करना।
अपने शासन काल के प्रारम्भ में उसने वैदेशिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आस्ट्रिया के विरुद्ध फ्रांस, स्पेन, सैक्सनी तथा बवेरिया के साथ एक गुट की संरचना की थी। उस समय स्पेन तथा इंग्लैण्ड के मध्य संघर्ष चल रहा था, अतः इंग्लैण्ड ने आस्ट्रिया का पक्ष ग्रहण किया। दोनों गुटों का यह युद्ध 1748 ई. में एक्शला शापेल की संधि समाप्त हुई। इस संधि के अनुसार फ्रेट्रिक महान से मेरिया प्रेमा को आस्ट्रिया साम्राज्य की शासिका स्वीकार किया और मेरिया बेसा ने साइलेशिया पर प्रशा के आधिपत्य को स्वीकार किया, इस प्रकार फ्रेड्रिक महान को महत्वपूर्ण क्षेत्र की प्राप्ति हुई। फ्रेट्रिक का उद्देश्य था कि यह प्रशा के साम्राज्य में वृद्धि करे और उसे गौरव प्रदान करे ट्रिक अपने उद्देश्य में सफल रहा। इसने साइलेशिया पर अधिकार स्थापित कर लिया तथा प्रशा को यूरोपियन राष्ट्रों में महत्व प्रदान किया। अब प्रशा को यूरोप में महान शक्तिशाली समझा जाने लगा। 1776 ई. में प्रशा के इस महान शासक ने इंग्लैण्ड के साथ भी अपनी मैत्री सुदृढ़ करने में सफलता प्राप्त की अगले सप्तवर्षीय युद्ध में वह इंग्लैण्ड के साथ सम्मिलित रहा था। 1773 ई. के पोलैण्ड विभाजन के घटनाक्रम में प्रशा पश्चिमी पोलैण्ड का अधिकांश क्षेत्र अधिकृत कर लिया था। प्रशा को विस्तृत साम्राज्य प्रदान किया तथा उसे महान शक्ति बनाया और यूरोप में गौरव प्रदान किया। इस प्रकार फ्रेड्रिक महान् अपने वैदेशिक उद्देश्यों में नितान्त सफलता प्राप्त हुई।
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“फ्रेडरिक महान् का मूल्यांकन
फ्रेडरिक का नाम प्रशा के सबसे योग्य और महान शासकों में लिया जाता है निःसंदेह उसने प्रशा को यूरोप के एक शक्तिशाली राज्य में परिवर्तित किया। यद्यपि वह एक निरंकुश शासक था, जिन्तु उसकी निरंकुशता जनता की भलाई के लिए ही थी जहाँ एक ओर प्रस का तुई चतुर्दशजनता का स्वामी था, वहीं दूसरी ओर फ्रेड्रिक महान जनता का सेवक था। समकालीन यूरोप में उसकी धार्मिक सहिष्णुता निश्चित ही प्रशंसनीय है। अपने राज्य में उसने सभी धर्म के लोगों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की उसका कथन था कि “यदि तुर्क भी मेरे देश में बसने के लिए आएँ, तो मैं उनके लिए मस्जिदों का निर्माण करा दूँगा। उसने प्रबुद्ध निरंकुश के रूप में अपनी जनता के हित को सर्वोपरि स्थान दिया। इसके लिए उसने प्रशासन, शिक्षा, न्याय और कृषि आदि क्षेत्रों में अनेक सुधार भी किए। राज्य के ‘प्रथम सेवक’ के रूप में वह जनकल्याण के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा। उसने प्रशा की सीमाओं को विस्तृत करके उसे एक राष्ट्रीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया। उसने ही यह स्पष्ट किया कि जर्मनी पर आस्ट्रिया और प्रशा दो प्रतिद्वन्द्वी शक्तियाँ हैं, जिनमें केवल प्रशा ही जर्मनी का नेतृत्व करेगा, कोई अन्य शक्ति नहीं। वह अपनी गृह एवं विदेश दोनों ही नीतियों में सफल रहा। उसके सतत् प्रयासों और सुधार कार्यों के फलस्वरूप प्रशा की जनसंख्या और आय दोगुनी हो गयी और यूरोप की राजनीति में प्रशा को प्रथम श्रेणी का स्थान हुआ।