फ्रांस की सीनेट की शक्ति-हीनता पर प्रकाश डालिए।

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फ्रांस की सीनेट की शक्ति-हीनता

फ्रांस की संसद के दोनों सदनों की तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि शक्तियों और प्रभाव की दृष्टि से राष्ट्रीय सभा की अपेक्षा सीनेट शक्तिरहित तथा कम प्रभावी है। फ्रांसीसी सीनेट संसार के सबसे शक्तिहीन द्वितीय सदनों में से एक है। शायद इसकी शक्तियाँ ब्रिटिश लॉर्ड सदन से कम न हो। चतुर्थ गणतंत्र का उच्च सदन- गणतंत्र की परिषद्- जो लॉर्ड सदन से भी कम शक्तिशाली था। वर्तमान संविधान ने साधारण विधायन के क्षेत्र में दोनों सदनों को एक समान शक्तियाँ प्रदान की हैं। सामान्य रूप से कोई विधेयक तब तक कानून नहीं बन सकता है जब तक दोनों सदन इसे पारित न कर दे। मतभेद की स्थिति में प्रधानमंत्री को स्वतंत्रता है कि वह दोनों सदनों की संयुक्त सीमित से विवादास्पद विधेयक पर विचार करने के लिए कहे। संयुक्त समिति में विधेयक पर जो सहमति हो जाए उसको पुनः दोनों सदनों के विचारार्थ भेजा जाता है। यहाँ तक तो दोनों सदनों की शक्तियाँ एक समान प्रतीत होती हैं।

इसके पश्चात् की स्थिति में राष्ट्रीय सभा की स्थिति अधिक सुदृद्ध है। संयुक्त समिति में विधेयक के जिस रूप पर सहमति हुई है, यदि उसको दोनों या कोई एक सदन स्वीकार न करे तो इसका अर्थ हुआ कि सदनों के मध्य मतभेद बना रहा। यदि इस प्रकार मतभेद के चलते सरकार उस विधेयक को पारित करवा कर कानून का रूप देना ही चाहे तो वह उसे अन्तिम निर्णय के लिए राष्ट्रीय सभा के पास भेज सकती है। अतः जब तक किसी साधारण विधेयक के सम्बन्ध में सरकार हस्तक्षेप न करना चाहे, दोनों सदनों की शक्तियाँ एक समान है। डोरोवी पिकल्स (Dorothy Pickles) ने दि फिफ्थ फ्रेंच रिपब्लिक नामक पुस्तक में लिखा है कि, “1958 का संविधान, पूर्ववर्ती संविधान की भाँति, (राष्ट्रीय) सभा को सीनेट की अवहेलना करने को तब तक आशा नहीं देता जब तक सभा के पक्ष में सरकार हस्तक्षेप करने का निर्णय न करे।” इस प्रकार यदि दोनों सदनों के मतभेद बने ही रहते हैं और सरकार कानून बनवाने के लिए हस्तक्षेप करना चाहती है तभी राष्ट्रीय सभा, सीनेट की अपेक्षा, अधिक शक्तिशाली सिद्ध होता है।

यह स्पष्ट है कि जटिल वित्तीय प्रक्रिया में संविधान सीनेट को कुल 70 दिन में से मात्र 15 दिन का समय देता है। इस सीमित अवधि में सीनेट का बजट तथा अन्य वित्तीय विधेयकों पर अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार प्राप्त है। बजट सदा राष्ट्रीय सभा में ही प्रस्तुत किया जाता है और यदि सीनेट सहमत न हो तो भी उसे राष्ट्रीय सभा की इच्छानुसार पारित कर दिया जाता है। यही नहीं, यदि 70 दिन में भी संसद ने उसे पारित न किया हो तो सरकार स्वयं बजट को प्रारित घोषित कर सकती है।

साधारण तथा वित्तीय विधायन के क्षेत्रों पर दोनों सदनों की सामान्य तुलना करने पर भ्रम उत्पन्न हो सकता है। कुछ स्थितियों में देखने पर दोनों सदनों की शक्तियाँ एक समान प्रतीत होती हैं, परन्तु वास्तव में सीनेट निश्चय ही कम शक्तिशाली है। नई दिल्ली स्थित फ्रांसीसी दूतावास के एक प्रकाशन के अनुसार, “संसद में दो सदन हैं, राष्ट्रीय सभा तथा सीनेट सीनेट मूलरूप से उच्च सदन का विवाद एवं विचार-विमर्श करने का कार्य करती है, जबकि राष्ट्रीय सभा मुख्य विधायी शक्तियों का प्रयोग करती है।”

प्रशासन पर नियंत्रण के सम्बन्ध में सीनेट की शक्तियाँ लगभग नहीं के समान है। प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। सरकार के सदस्य केवल राष्ट्रीय सभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं। मंत्रिगण संसद के सदस्य तो नहीं होते, परन्तु वे दोनों सदनों की कार्यवाही में भाग ले सकते हैं। परन्तु वे मतदान किसी भी सदन में नहीं कर सकते हैं। अनुच्छेद 50 के अनुसार, जब भी राष्ट्रीय सभा मंत्रिपरिषद् के प्रति अपना अविश्वास व्यक्त करती है, तभी प्रधानमंत्री को अपना तथा अपनी सरकार का त्यागपत्र तुरन्त राष्ट्रपति को दे देना पड़ता है। यह विचित्र स्थिति है कि राष्ट्रीय सभा मंत्रिपरिषद् को सत्ता से हटा सकती है, यद्यपि मंत्रिगण उसके सदस्य नहीं होते। परन्तु मंत्रियों पर सीनेट का किसी प्रकार का भी अंकुश नहीं है। वे सीनेट के प्रति उत्तरदायी नहीं होते, न ही वे उन्हें अपदस्थ कर सकती है।

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संविधान के संशोधन की प्रक्रिया में दोनों सदनों की बराबर भागीदारी है। कोई भी संवैधानिक संशोधन तक पारित नहीं हो सकता जब तक उसको दोनों सदनों द्वारा अलग-अलग अथवा संयुक्त बैठक में स्वीकार न कर दिया जाए। युद्ध की घोषणा तथा संधियों के अनुमोदन के क्षेत्रों में भी दोनों सदनों की शक्तियाँ एक समान हैं। इन समानताओं के बावजूद वास्तव में सीनेट निचले सदन की अपेक्षा कम शक्तिशाली है। तृतीय गणतंत्र (1875-1940) में भी उच्च सदन को सीनेट कहते थे। परन्तु वह सीनेट इतनी अधिक शक्तिशाली हो गई थी कि वह प्रभावी प्रशासन के मार्ग में बाधा बन • गई थी। परन्तु अब पंचम गणतंत्र में सीनेट की भूमिका केवल वाद-विवाद करने वाले सदन की रह गई है। यह शक्तिहीन होते हुए भी कुछ क्षेत्रों में प्रभावी भूमिका निभा सकती है। एक टिप्पणी में उचित ही कहा गया है, “नई सीनेट किसी भी प्रकार अपनी तृतीय गणतंत्र की नामरासी की भाँति शक्तियों का प्रयोग नहीं करती है। यह किसी सरकार को अपदस्य नहीं कर सकती है। यह (राष्ट्रीय) सभा के मार्ग में बाधक हो सकती है, सरकार के मार्ग में नहीं।”

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