पर्यावरणीय शिक्षा के अर्थ
पर्यावरणीय शिक्षा के अर्थ – पर्यावरण शिक्षा वह शिक्षा है जो पर्यावरणीय घटकों का विस्तृत ज्ञान, पर्यावरण तथा मानव के मध्य अंतर्संबंधी एवं पारस्परिक निर्भरता का ज्ञान और पर्यावरण के प्रति संचेतना का विकास कर पर्यावरण संरक्षण की अभिवृत्ति व कौशल का विकास करती है।
उपर्युक्त विन्दुओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि “पर्यावरण शिक्षा, पर्यावरण के सुधार के लिए, पर्यावरण के संबंध में पर्यावरण के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा है। यह वाक्य पर्यावरण शिक्षा की परिभाषा, विषय वस्तु करता है लक्ष्य, उद्देश्य तथा शिक्षण की ओर इंगित करता है।
पर्यावरण शिक्षा एक नया अधिगम क्षेत्र है। पर्यावरण शिक्षा की विषय वस्तु के विस्तार और उपागम की अनिश्चितता के कारण इसकी सर्वमान्य परिभाषा की संकल्पना या अपेक्षा करना उचित नहीं है। अतः पर्यावरण शिक्षा की कुछ परिभाषाएं तथा व्याख्याएं निम्नानुसार है
1. ललितपुर (नेपाल) के भोलाप्रसाद लोहानी ने पर्यावरणीय शिक्षा को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “पर्यावरणीय शिक्षा का अभिप्राय मानवी पारिस्थितिकी एवं मानवीयता का प्रकृति के साथ संबंध स्थापना की जागरूकता विकसित करने से है।’ 2.अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक स्रोत संरक्षण परिषद के नेवादा सम्मेलन में पर्यावरण शिक्षा की व्याख्या करते हुए कहा गया कि
“पर्यावरणीय शिक्षा यह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव अपनी संस्कृति तथा जैव भौतिक परिवेश के बीच पारस्परिक संबंधों की समझ तथा राधा का विकासे सम्प्रत्ययों का स्पष्टीकरण, कुशलताओं और अभिवृत्तियों का विकास करता है। यह शिक्षा व्यक्ति ही निर्णय प्रक्रिया एवं व्यवहार संहिता में भी अपेक्षित परिवर्तन लाती है।”
3. न्यूजीलैण्ड के रे चैपमैन टेलर के अनुसार “पर्यावरणीय शिक्षा का अभिप्राय सदनागरिकता विकसित करने के लिए सम्पूर्ण पाठयक्रम को पर्यावरणीय मूल्यों एवं समस्याओं पर केन्द्रित करना है ताकि सदनागरिकता का विकास हो सके तथा अधिगमनकर्ता पर्यावरण के संबंध में मिश, प्रेरित या उत्तरदायी हो सके।”
पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र
पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र बहुत व्यापक है। मानव एक विशालकाय सृष्टि का अभिन्न अंग है। उस सृष्टि का निर्माता या संहारकर्ता नहीं मानव का इस सृष्टि पर पाये जाने वाले सभी जीवधारियों तथा निर्जीव वस्तुओं से घनिष्ठ संबंध है। मानव को अपने इस घनिष्ठ संबंध को बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि संबंधों का बिगाड़ना मानव के अनिए का संकेत है।
1. पर्यावरण की निरंतरता-
पर्यावरण परिवर्तनशील है और पर्यावरण का परिवर्तनशील होना ही उसकी निरंतरता का कारण है। पर्यावरण मानव द्वारा किये गये नुकसान की भरपायी करने में सक्षम है। परन्तु एक सीमा तक उस सीमा के पश्चात अपनी निरंतरता को कायम नहीं रख पाता है और प्रदूषित हो जाता है।
2. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में
विज्ञान और प्रौद्योगिकी एक दूसरे के पूरक है। जहां एक ओर विज्ञान हमें वास्तविकताओं से साक्षात्कार करवाता है, वहां दूसरी ओर प्रौद्योगिकी मानवीय आवश्यकताओं के अनुरूप नवीं चीजों का विकास करवाती है। मानव अपने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सम्मिलित ज्ञान से पर्यावरण को परिवर्तित कर रहा है।
3. कला एवं संगीत के क्षेत्र में
सामाजिक विज्ञान, कला, संगीत और पर्यावरण पर किये। सर्वेक्षणों के आधार पर ये निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं कि मनुष्य पर्यावरण में स्थायित्व चाहता है। वह चाहता है कि प्रकृतिक सदैव जीवनदायिनी बनी रहे उसमें कोई परिवर्तन न हो कला और संगीत के माध्यम से भी पर्यावरण समस्याओं को जन चेतना का विषय बनाया जा सकता है और पर्यावरण के प्रति एक भावनात्मक आधार / लगाव विकसित किया जा सकता है।
4. मानविकी के क्षेत्र में
मानव प्रकृति से सुख की अनुभूति पाता है। प्राकृतिक दृश्य उसको सुख और संतोष प्रदान करते हैं। यह सुख और संतोष मानविकी से ही संबंधित है जो मानव को पर्यावरण से जोड़ती है। प्राकृतिक संसाधन हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी है जिन्हें बनाये रखना अपनी पहचान को कायम रखना है।
5. साहित्य के क्षेत्र में-
पर्यावरण शिक्षा का संरक्षण, संवहन, विकास एवं वर्तमान से जोड़ने का माध्यम साहित्य है। पर्यावरण के क्षेत्र में सोचने, समझने, लिखने और संचार माध्यमों द्वारा प्रसार करने से ही जागरूकता और संवेदनशीलता का वातावरण बन सकेगा।
पर्यावरण शिक्षा – आवश्यकता एवं महत्व
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता का प्रमुख पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव है। प्राच्य शिक्षा व्यवस्था में बालक की शिक्षा का प्रारम्भ संयुक्त परिवार में होता था जहां वह पारिवारिक संस्कारों से परिचित होता था। इसके पश्चात आश्रम या पाठशाला से उसके संस्कारों का विकास एवं मानसिक अभिवृद्धि होती थी और तत्पश्चात समाज से वह अपने अंतर्सम्बन्धों के कारण प्राप्त हुए अनुभवों से जीवनपर्यन्त सीखता था जिसमें वह कहीं शिक्षक का दायित्व भी निभाता था।
आज बालक की प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम परिवार के स्थान पर उसका पास-पड़ोस चलचित्र दूरदर्शन और कॉमिक्स हो गया है जिसका स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है अभिनय से परिपूर्ण शिष्टाचार में आश्रम शिक्षा के स्थान पर निर्मित विद्यालयों में आधुनिकता के नाम पर कुसंगति, अशिष्टता तथा अश्लीलता ही अधिक दिखायी जाती है। शिक्षा का तीसरा स्तर समाज भी दुर्भावना, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और ईर्ष्या से ओतप्रोत होने के कारण परिवर्तित हो चुका है। आज व्यवहार की परिभाषा बदल चुकी है। व्यववहार का अर्थ काम निकालना या काम करा लेने की क्षमता हो गया है।
उपर्युक्त परिवर्तनों का परिणाम है मानवीय सोच और विचारधारा में परिवर्तन जहां पहले वृक्षों को रात्रि में हाथ लगाना पाप माना जाता था आज उन्हीं पेड़ों को रात्रि में काटकर बेच दिया जाता है। मानवीय सोच अभिवृत्ति में आये परिवर्तन ने ही प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ा है जिसने परिणामस्वरूप आज मनव के ही अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। अतः वर्तमान समय आवश्यकता है मानवीय सोच, उसी अभिवृत्ति में परिवर्तन करने की और निश्चित रूप से यह कार्य शिक्षा ही कर सकती है। पर्यावरण शिक्षा को माध्यम से बालक को प्रारम्भ से ही पर्यावरणीय घटकों के प्रति सचेत किया जाये और मुवावर्ग में पर्यावरण संचेतना जागृत कर उनकी अभिवृत्तियों में परिवर्तन किया जाये ताकि समय रहते पर्यावरण को सुरक्षित रखकर मानव अस्तित्व की रक्षा की जा सके। आज अभिभावकों की व्यस्त दिनचर्या और बच्चों को बढ़ते हुए बस्ते के आकार को देखते हुए प्रश्न यह उठता है कि एक और नया विषय क्यों? परन्तु यदि विषय की गंभीरता और आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व के बारे में सोचा जाये तो पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता स्वयंसिद्ध है। एक साधारण सी बात है कि किसी को यह बताया जाये कि आगे गड्ढा है तो एक जिज्ञासा अवश्य होती है कि चलें देख लें परन्तु फिर भी मन के किसी कोने में गिरने का भय अवश्य रहता है।
अतः यदि किसी बालक को प्राकृतिक साधनों की सीमितता और इसके अंधाधुंध दोहन से होने वाले दुष्परिणामों से अवगत कराया जाये तो ? कम से कम इन समस्याओं के प्रति सजग अवश्य हो जायेगा। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा पर्यावरण से संबंधित समस्याओं को सुझाया जा सकता है। सारांश यह है कि पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि मनुष्य सम्पूर्ण प्रकृति चक्र के प्रति संवेदनशील बने, उसमें प्रकृतिक से लगाव उत्पन्न हो और पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति वह पहले से अधिक क्रियाशील बने। समाज में मनुष्य अनेक समस्याओं, जैसे – जनसंख्या वृद्धि, गरीबी, निरक्षरता इत्यादि से घिरा हुआ है जिन्हें उसकी स्वयं की नासमझी और अकर्मण्यता ने भयावह बना दिया है। कारण चाहे जो हो प्रभावित प्रकृति हुई है और उसका परिणाम भोग रहा है मनुष्य । अतः आज के संदर्भ में पर्यावरण शिक्षा एक अनिवार्य आवश्यकता बन चुकी है।
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