परसंस्कृति ग्रहण के लिए अनुकूल दशाये
इस प्रक्रिया को समझने के लिए उन दशाओं को समझना भी आवश्यक है। जो इस प्रक्रिया के लिए अधिक अनुकूल होती हैं अथवा इसे प्रोत्साहन देती हैं। इन्हीं दशाओं को हम परसंस्कृति ग्रहण के कारण भी कह सकते हैं।
(1) सांस्कृतिक सम्पर्क
गिलिन और गिलिन ने परसंस्कृति ग्रहण के लिए कुछ समूहों के बीच सांस्कृतिक सम्पर्क को सबसे आवश्यक दशा के रूप में स्वीकार किया है। सांस्कृतिक सम्पर्क के फलस्वरूप कोई भी समूह किसी भी समूह की सांस्कृतिक विशेषताओं को ग्रहण कर सकता है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं होता कि छोटे आकार वाला समूह किसी बड़े समूह की संस्कृति को ग्रहण करे अथवा बाहर से आकर बसने वाले लोग किसी स्थान के मूल निवासियों की संस्कृति को ग्रहण करें।
(2) सम्पर्क की निरंतरता
परसंस्कृति ग्रहण के लिए आवश्यक है कि विभिन्न समूहों के बीच होने वाला सांस्कृतिक सम्पर्क एक लम्बे समय तक चलता रहे। सम्पर्क में निरंतरता होने से विभिन्न समूह यह समझ लेते हैं कि दूसरे समूह की कौन सी सांस्कृतिक विशेषताएँ उनके लिए अधिक उपयोगी हैं। भारत की अनेक जनजातियाँ जब ईसाई मिशनरियों के सम्पर्क में एक लम्बे समय तक रहती रहीं, तभी उन्होंने ईसाई संस्कृति की विशेषताओं को ग्रहण करना आरम्भ किया।
(3) मित्रतापूर्ण सम्बन्ध
परसंस्कृति ग्रहण की प्रक्रिया तभी प्रभावपूर्ण होती है। जब विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध हो। यह सच है कि दबाव, विद्वेष अथवा प्रलोभन से भी एक समूह द्वारा दूसरे समूह की सांस्कृतिक विशेषताओं को ग्रहण किया जा सकता है, लेकिन परसंस्कृति-ग्रहण के लिए ऐसे उदाहरण बहुत कम पाए जाते हैं। विभिन्न समूहों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध होने से उन्हें एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में आने और एक-दूसरे की विशेषताओं को ग्रहण करने की अधिक प्रेरणा मिलती है।
(4) ऐच्छिक स्वीकृति
हर्षकोविट्स के अनुसार परसंस्कृति ग्रहण की प्रक्रिया तभी प्रभावपूर्ण बनती है जब इसकी स्वीकृति ऐच्छिक हो। इसका अर्थ है कि जब एक समूह स्वेच्छा से किसी दूसरी संस्कृति के कुछ तत्वों को अपने लिए उपयोगी समझता है, केवल तभी वह उन तत्वों को स्थायी रूप से ग्रहण करने का प्रयत्न करता है। जब कभी भी किसी समूह ने बलपूर्वक दूसरे समूह पर अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को थोपना चाहा, तब इससे तरह-तरह के आंदोलनों को प्रोत्साहन मिला।
( 5 ) सांस्कृतिकं समानताएँ
विभिन्न समूहों के बीच परसंस्कृति ग्रहण की प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि उनकी सांस्कृतिक विशेषताओं में अधिक अन्तर न हो। उदाहरण के लिए, आदिवासी क्षेत्रों में हिन्दू और आदिवासी समूहों के बीच परसंस्कृति-ग्रहण की प्रक्रिया इसलिए अधिक प्रभावपूर्ण बन सकी है कि आदिवासी समूहों के धार्मिक विश्वास, देवी-देवता तथा सामाजिक संस्थाओं का रूप हिन्दू संस्कृति से अधिक भिन्न नहीं था।
( 6 ) उपयोगिता का विश्वास
एक विशेष समूह के द्वारा दूसरे समूह की सांस्कृतिक विशेषताओं को तभी ग्रहण किया जाता है जब वह उन्हें अपने लिए अधिक उपयोगी समझता है। उपयोगिता की भावना के कारण बड़े आकार वाले समुदायों में परसंस्कृति-ग्रहण की प्रक्रिया जल्दी ही क्रियाशील होने लगती है। जनजातीय समूहों में कुछ विशेष सांस्कृतिक तत्वों की उपयोगिता का उतना महत्व नहीं होता है। जितना पारस्परिक सम्पर्क की निरंतरता का होता है।
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(7) ऐतिहासिक दशाओं का प्रभाव
हर्षकोविट्स ने लिखा है कि कुछ विशेष ऐतिहासिक दशाएँ भी परसंस्कृति ग्रहण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देती हैं उदाहरण के लिए, यदि किसी समूह को यह विश्वास हो कि उसके समीपवर्ती दूसरे समूह ने विपत्ति के समय उसकी सहायता की है अथवा उसके सामाजिक-आर्थिक स्तर को ऊंचा उठाने में योगदान किया है, तब साधारणतया उस समूह द्वारा अपने से भिन्न सांस्कृतिक विशेषताओं वाले समूह की विशेषताओं को स्वीकार किया जाने लगता है।
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