परम्परागत सत्ता – वेवर का विचार है कि आर्थिक जीवन में पायी जाने वाली संस्थागत अर्थव्यवस्था समाज की कुछ के लोगों को विशेष अधिकार या सत्ता प्रदान करती है। आर्थिक आधार पर सत्ता संस्थागत धारणा को विश्लेषण करते हुए वेबर ने सत्ता के तीन प्रकार या भेदों का उल्लेख किया है, जिसमें परम्परागत सत्ता भी एक प्रकार हैं।
इस प्रकार की सत्ता वैधानिक या कानूनी आधार पर प्राप्त नहीं होती वरन् उन विश्वासों, आदर्शों, परम्पराओं के अनुसार प्राप्त होती है जो कि लम्बे अर्से से समाज में चल रही होती है। वास्तव में इन विश्वासों आदर्शों व परम्पराओं के अनुसार आचरण करना ही परम्परावाद है। समाज के प्रचलित परम्पराओं व विश्वासों पर आधारित सत्ता को वेबर ने परम्परात्मक सत्ता कहा है।
अनुसूचित जनजातियों का अर्थ एवं परिभाषा बताते हुए इसकी समस्याओं पर प्रकाश डालिए।
उदाहरणार्थ हिन्दू संयुक्त परिवार में सबसे बूढ़ा पुरुष सदस्य परिवार का मुखिया व सर्वेसर्वा होता है। उसे परिवार के अन्य सदस्यों की तुलना में कही विशेष व अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं। सम्पत्ति आय-व्यय आदि मामलों में उसका ही निर्णय अन्तिम होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक लम्बे अर्से से ऐसा होता आ रहा है और पीढ़ी दर पीढ़ी बदलने के बाद भी ऐसा ही हो रहा है अर्थात् इस प्रकार के अधिकार व्यक्ति को परम्परा के आधार पर प्राप्त होते हैं। और इन परम्परागत आधारों के कारण ही व्यक्ति परम्परागत सत्ता का अधिकारी हो जाता है। परम्परागत सत्ता को किसी निश्चित सीमा में बांधना कठिन है। इसके विपरीत वैधानिक सत्ता पर्याप्त निश्चित होती है जैसे मुख्यमंत्री के अधिकार बहुत कुछ अनिश्चित होते है जबकि परम्परात्मक सत्ता में परिवार में पिता के रूप में उनके अधिकारों को निश्चित सीमा में बांधना बहुत मुश्किल काम है।